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बॉयकॉट बॉलीवुड: हम वक़्त और विचार में पीछे जाकर तर्क के तेल में पकौड़े तल रहे हैं

क्या हम समाज के तौर पर कतई दीवालिया हो गए हैं? तार्किकता हमारे घुटनों में आ गई है.

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हम जल्द ही तर्क के तेल में पकौड़े तलेंगे

बीते कुछ दिनों से बॉयकॉट बॉलीवुड चल रहा है. कोई फ़िल्म रिलीज़ होने को होती है, कुछ लोग उस पर टूट पड़ते हैं. उदाहरण देने की कोई ज़रूरत नहीं है. आप सब समझदार हैं. लोगों को किसी न किसी तरह से बॉयकॉट करना ही होता है. कभी फ़िल्म में कोई समस्या ढूंढ़ लेंगे. कभी फ़िल्म के एक्टर्स का कोई बयान उठा लेंगे. सालों पुरानी कोई बात खोद लाएंगे.

प्रश्न ये है कि बॉयकॉट इसलिए नहीं हो रहा है कि फ़िल्म बुरी है. बल्कि उसके अन्य कारण होते हैं. जैसे: धर्म, संस्कृति, संस्कार और विचारधारा. क्या आज के समाज में 'जाने भी दो यारों' जैसी फ़िल्म बनाना सम्भव है? किसी फ़िल्म को उसके क्राफ़्ट से आंका जाना चाहिए, न कि बेमतलब की टुच्ची चीज़ों से. ऐसे में तो 'गुलाल' जैसी फ़िल्म बनाना भी बड़ा मुश्किल होगा? 'रंग दे बसंती' कैसे बनेगी? ऐसा ही चलता रहा तो हम तमाम अच्छी फ़िल्में और अच्छे फिल्मकार खो देंगे. बिलावज़ह की बातों पर बहिष्कार भी रचनात्मकता को मारने का एक तरीका ही है.

सुबह फेसबुक पर मेरे सामने से एक वीडियो गुज़रा. उसमें आलिया, शाहरुख, अमिताभ, रणबीर समेत कई ऐक्टर्स की फ़िल्मों के कुछ सीन कम्पाइल किए गए थे. उन्हें धर्म विरोधी बताया गया था. अमिताभ को भी धर्म विरोधी बताया गया था, बाक़ी आप समझ सकते हैं. उस वीडियो के सारे सीन तो नहीं याद हैं. एक 'मोहब्बतें' का सीन याद है.

अमिताभ शाहरुख को मंदिर जाने के लिए कह रहे हैं. शाहरुख मना करते हुए कह रहे हैं कि मैं नहीं जाऊंगा. मेरा उनसे (भगवान से) छत्तीस का आंकड़ा है या बनती नहीं है, ऐसा ही कुछ. ये राज का किरदार कह रहा है. क्यों कह रहा है? फ़िल्म में उसे उसी तरह से दिखाया गया है. जिसने 'मोहब्बतें' देखी है, जानता है. अब सोचिए ये कितनी वाहियात बात है.

एक सीन को इस तरह प्रोपेगेट किया जा रहा है कि वो धर्म विरोधी है. एक देश और समाज के तौर पर ये कितनी शर्म की बात है. क्या हम इतने अतार्किक हो गए हैं? हमें किसी बात को ख़ारिज करने के लिए धर्म का सहारा लेना पड़ रहा है. आपका मन नहीं है, फ़िल्म देखने का, मत जाइए. पर उसका किसी बेकार की बात पर बॉयकॉट करना बंद कीजिए. या फिर फ़िल्म देखकर आइए. फिर उसकी धज्जियां उड़ाइए. तार्किक रूप से अपना मत रखिए. लोगों को बताइए उस फिल्म की कहानी बेकार है. उसमें ऐक्टिंग दो कौड़ी की है. कैमरा वर्क भी बेकार है. म्यूजिक चोरी का है. जो भी आपको बुरा लगे.

किसी फ़िल्म को नकारने के लिए एक वैलिड पॉइंट लेकर आइए. हम समाज के तौर पर क्या कतई दीवालिया हो गए हैं? तार्किकता हमारे घुटनों में आ गई है. थोड़ा थमकर सोचने की ज़रूरत है. 'ब्रह्मास्त्र' का इसलिए विरोध कि रणबीर को बीफ पसंद है. अभी बीफ पर एक और पुराना बयान आया है, कश्मीर फाइल्स के डायरेक्टर का, उस पर क्या कहेंगे. ऐसा रहा तो हम बहुत जल्द वैचारिक आदिमानव बन जाएंगे. तर्क के तेल में पकौड़े तलेंगे. हम लोग वक़्त और विचार दोनों में पीछे जा रहे हैं. ठहरना होगा. संभलना होगा.

रिव्यू: ब्रह्मास्त्र