अमित सियाल. 'मिर्ज़ापुर' के आईपीएस मौर्या, 'महारानी' के नवीन कुमार, 'इनसाइड एज' के मिश्रा जी और 'जामताड़ा' के ब्रजेश भान. पिछले कुछ सालों में जिनका करियर ग्राफ तेज़ी से ऊपर गया है. 'जामताड़ा' का दूसरा सीज़न आया है. इस बहाने हमने उनसे बातचीत की. पढ़िए वो क्या कहते हैं.
एक्टर अमित सियाल की रोचक कहानी: ऑस्ट्रेलिया में बर्तन धोए, टैक्सी चलाई, लौटकर एक्टिंग में झंडे गाड़े
'मिर्ज़ापुर' के आईपीएस मौर्या और 'जामताड़ा' के ब्रजेश भान उर्फ़ भैया जी अमित सियाल के साथ दिलचस्प बातचीत पढ़िए.
# 'जामताड़ा सीज़न 2' में क्या अलग करने वाले हैं?
- सीज़न वन मे ब्रजेश भान बहुत ही नीच किस्म का प्राणी था. सीज़न टू में और भी क्रूर दिखने वाला है. क्योंकि जब शेर घायल हो जाता है तो और ज़्यादा खतरनाक हो जाता है. तो उस तरीके से कुछ चल रहा है सेकंड सीज़न मे.
# ये रोल आपको कैसे मिला?
- मैं गणेश शेट्टी को लंबे समय से जानता था. वो लाइन प्रड्यूसर रहे हैं. एक दिन अचानक उनका फोन आया कि मैं एक प्रोजेक्ट कर रहा हूं और बजट ज़्यादा नहीं है. आम तौर पर मुझे ऐसे ही लोगों के फोन आते हैं, जब उनके पास बजट कम होता है. उन्होंने कहा एक बार कहानी तो सुन लो. फिर मैं डायरेक्टर सौमेंद्र पाढ़ी से मिला. जब उन्होंने कहानी सुनाई तो मुझे लगा कि ये तो करनी पड़ेगी क्योंकि ऐसी कहानी मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी.
# आपकी अभिनय प्रक्रिया क्या रही है? कैसे अपनी स्पेस बनाई?
- मैं जो भी किरदार निभाता हूं, उसके प्रति पूरी ईमानदारी बरतता हूं. मैं उसमें कुछ नया करने की कोशिश करता हूं. किरदार को अच्छी तरह से समझता हूं और इस पूरी प्रक्रिया के दौरान मुझे खुद के बारे में भी बहुत कुछ जानने को मिलता है. इसमें मैं अपने जीवन के अनुभवों को भी जोड़ता हूं.
# वो कौनसा प्रोजेक्ट था जो करियर का टर्निंग पॉइंट रहा?
- ऐसे बहुत सारे प्रोजेक्ट्स हुए, जब मुझे लगा कि बस अब मैंने इंडस्ट्री में पैर जमा लिए हैं. मैंने ‘लव सेक्स और धोखा’ फिल्म की थी. ये प्रोजेक्ट मुझे बहुत लंबे इंतज़ार के बाद मिला था. मुझे लगा कि मैं सबसे अच्छे और अलग तरह से सोचने वाले लोगों के साथ काम कर रहा हूं. जो अलग किस्म का सिनेमा बनाते हैं. मुझे लगा कि लोग बस काम देखेंगे और फिर मुझे एक के बाद एक फिल्में मिलने लगेंगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. फिर मैंने बहुत हाथ-पैर मारे, थिएटर किया, जिसके बाद मुझे ‘तितली’ मिली. जब ये फिल्म मैंने की तो फिर से मुझे लगा कि शायद अब मैं स्थापित हो चुका हूं. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. तो मुझे लगता है कि ओटीटी की वजह से मुझे पहचान मिली और इसका सारा श्रेय 'इनसाइड एज' और 'मिर्ज़ापुर' को जाता है.
# अपनी मर्ज़ी के प्रोजेक्ट्स मिलते हैं?
- ख़ुशक़िस्मती से अब ऐसा होने लगा है. नज़र नहीं लगानी चाहिए, पर हां, अब ऐसे कॉल्स आते हैं कि आपको सोचकर लिखा है. तो बहुत अच्छा लगता है. दिल खुश हो जाता है. पर मैं कोशिश करता हूं कि अपने ऊपर हावी नहीं होने दूं.
# टाइपकास्ट होने का डर? जैसे 'मिर्ज़ापुर', 'महारानी', 'जामताड़ा' सब हिंदी बेल्ट में बेस्ड हैं.
- मैं टाइपकास्ट हो चुका हूं और इसे मैं ही तोड़ सकता हूं. मैं ऐसे काफी रोल्स मना करता हूं, पर कभी-कभी बैंक अकाउंट चीख-चीख कर बोलने लगता है कि काम करो. फिल्म मेकिंग मे इकॉनमिक्स इन्वॉल्व है, तो लोग सेफ़ प्ले करते हैं. मैं लगा हुआ हूं. इस स्टीरियोटाइप से निकल जाऊंगा. कुछ-कुछ मैंने अलग काम किए हैं, जिनमें कोई भी मीन स्ट्रीक नहीं है. तो जब वो रिलीज़ होंगे, तो लोग मुझे दूसरी नज़रों से देखेंगे
# सबसे अच्छा कॉम्प्लिमेंट क्या मिला?
- 'इनसाइड एज' के बाद सड़क पर एक शख्स मिला. बोला कि आपने इतना अच्छा काम किया है कि आई हेट यू. मैंने कहा मैं इसे तारीफ़ की तरह लूंगा. उसने कहा, मैंने ये आपकी तारीफ़ में ही कहा है. मैं शो देखते वक़्त सचमुच में आपसे घृणा करने लगा था.
# हीरो और पॉज़िटिव रोल्स? कमर्शियल प्रोजेक्ट्स?
- यार, मैं करना तो चाहता हूं. मैं एक कहानी बताता हूं. मैं बहुत त्रस्त हो गया था कि काम तो मिल रहा था, पर जिस फ़्रीक्वेन्सी से चाहिए था वैसे नहीं मिल रहा था. घर, दिमाग और लाइफ़ चलाने मे समस्या आ रही थी. ऐसा लग रहा था कि अब कुछ नहीं होगा. क्या करूं क्या नहीं, कुछ समझ नहीं आ रहा था. दो पेग मारने के बाद, भगवान से बात कर रहा था कि हीरो नहीं बना रहे हो तो विलन ही सही. और उसके बाद से विलन ही विलन बना रखा है. मैं हूं नहीं ऐसा रियल लाइफ़ में. मैं बहुत अच्छा आदमी हूं. पर अब नेगेटिव रोल्स ही मिल रहे हैं. एक भेड़चाल है कि आप एक काम करते हो, तो सबको लगता है कि इस पर ये ही सूट करता है. पर मैंने उसे तोड़ने की काफी कोशिश की है. दो-तीन प्रोजेक्ट्स हैं, जो पोस्ट-प्रोडक्शन में हैं. तो, वो जब आएंगे तो दूसरा कुछ देखने का मौका मिलेगा.
# अमिताभ जी के साथ मुलाकात हुई ? बचपन मे घुटना तोड़ दिया था उनके स्टंट्स से इन्सपायर हो कर. क्या आपने उनको ये कहानी बताई?
- नहीं, मैं उन्हें कुछ नहीं बता पाया. मैं बिल्कुल स्तब्ध रह गया था. असल में मैंने अपनी पहली फ़िल्म अनुपम खेर के साथ की थी. हमारी अच्छी जान-पहचान हो गई थी. हम न्यूयॉर्क में थे और उन्होंने मुझे अपनी ऐक्टिंग एकेडमी के उद्घाटन में बुलाया. मैं गया. जब गेट के अंदर घुसा तो वहां बच्चन साहब दिखे. वो सबसे अलहदा थे. मैं डर के मारे बाहर आ गया. फिर मैं मुड़ा तो बाहर शामियाना लगा हुआ था. वहां अभिषेक बच्चन भी थे. मुझे लगा, वाह! आई हैव अराइव्ड. तब तक अनुपम खेर बाहर आए और उनके साथ अमिताभ बच्चन जी भी. खेर साहब ने मिलवाया कि अमित जी, ये भी अमित जी हैं. मैं अभी इनके साथ काम करके आया हूं. अमित जी मुझसे हाथ मिलाने आए. बोले कि बधाई हो, मज़ा आया आपसे मिलकर. मैं खड़ा ही रह गया. मुंह से निकला ही नहीं कुछ. ‘मैं बड़ा फ़ैन हूं, सर’, इतना भी नहीं बोल पाया. बस उसके बाद फिर उनसे मुलाक़ात नहीं हुई है.
# आप ऑस्ट्रेलिया गए थे तो वापस कैसे लौटे?
- मैंने डीयू से बीकॉम ऑनर्स किया था. मैं काफी थिएटर कर रहा था, तो घर वाले डर गए थे. क्योंकि मैं ऐक्टिंग को लेकर बहुत सीरियस हो गया था. उन्होंने मुझे भी डरा दिया कि ऐसे नहीं चलेगा. प्लान बी होना चाहिए. ऐक्टिंग मे काम करके कैसे सर्वाइव करोगे? मैं भी डर गया. फिर मैंने और एक दोस्त ने तरक़ीब निकाली कि हम ऑस्ट्रेलिया जाते हैं. आगे की पढ़ाई के लिए. क्योंकि यहां के कॉम्पिटेटिव एग्ज़ाम्स मैं कभी पास नहीं कर पाता. उतना दिमाग ही नहीं था. बहुत वक़्त और मेहनत से परिवार वालों को मनाया. मेरा हो गया लेकिन मेरा दोस्त पीछे रह गया. ये वो वक़्त था जब मैं ऐक्टिंग से छह साल दूर रहा. मैं इक्कीस साल का था. वहां स्टूडेंट लाइफ़ मज़ेदार थी. पढ़ाई के साथ-साथ मैंने काम भी किया. जाते ही बर्तन धोने का काम मिला. फिर प्रमोशन हुआ तो बेकरी का काम किया. फिर ग्रेवयार्ड शिफ्ट करता था. रात के बारह से सुबह सात बजे तक. फिर वहां से घर भागता था, नहा-धोकर यूनिवर्सिटी पहुंचता था. फिर लगा कि टैक्सी चलाने में ज्यादा पैसे मिलेंगे. टैक्सी का लाइसेंस मिला. एक-दो साल टैक्सी चलाई. 2001 मे वहां मंदी आ गई तो मैं वापस लौट आया.
वैसे भी मैं वहां बोर हो गया था. क्योंकि वहां सब ऑर्गेनाइज़्ड है और मुझे उथल-पुथल चाहिए थी. मैं वापस आ गया और दिल्ली मे बंगाली मार्केट के पास एक दफ्तर मे काम करना शुरू कर दिया. मैं एक दिन बंगाली मार्केट में गोलगप्पे खा रहा था. मुझे गोलगप्पे बहुत पसंद हैं. अचानक से मेरे कंधे पर किसी ने हाथ रखा. जब मैं मुड़ा तो मेरे सामने थिएटर के दिनों का एक पुराना मित्र खड़ा था. मैं उससे मिलके बहुत ख़ुश हो गया. उसने बताया कि वो थिएटर में अपना प्रोडक्शन बना रहा है. मुझे उसकी बातें सुनकर ईर्ष्या हुई. मुझे लगा कि वो अभी भी अपना मनपसंद काम कर रहा है और मैं पता नहीं कहां भटक गया. मैंने फिर उसे जॉइन किया और उसके शो में काम किया. अपनी नौकरी छोड़ दी. फिर लगा कि शायद गलती कर दी क्योंकि खाने की दिक़्क़त हो गई थी. मगर फिर मेरे दोस्त रणदीप हुड्डा ने फ़ोन किया. उन्होंने अपनी डेब्यू फ़िल्म में काम दिया और इस तरह मेरी मुंबई की कहानी का सिलसिला शुरू हुआ.
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