पंजाब के नवांशहर में जन्मे अमरीश पुरी जब 22 साल के थे, तो उन्होंने एक हीरो के रोल के लिए ऑडिशन दिया था. ये वर्ष 1954 की बात है. प्रोड्यूसर ने उनको ये कहते हुए खारिज कर दिया कि उनका चेहरा बड़ा पथरीला सा है. इसके बाद पुरी ने रंगमंच का रुख किया. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के निदेशक के रूप में हिंदी रंगमंच को जिंदा करने वाले इब्राहीम अल्क़ाज़ी 1961 में उनको थिएटर में लाए. बंबई में कर्मचारी राज्य बीमा निगम में अमरीश नौकरी कर रहे थे और थिएटर में सक्रिय हो गए. जल्द ही वे लैजेंडरी रंगकर्मी सत्यदेव दुबे के सहायक बन गए. शुरू में नाटकों में दुबे से आदेश लेते हुए उन्हें अजीब लगता था कि कम कद का ये छोकरा उन्हें सिखा रहा है. लेकिन जब दुबे ने निर्देशक के तौर पर सख्ती अपनाई तो पुरी उनके ज्ञान को मान गए. बाद में पुरी हमेशा दुबे को अपना गुरु कहते रहे. फिर नाटकों में पुरी के अभिनय की जोरदार पहचान बन गई.
फिल्मों के ऑफर आने लगे तो पुरी ने कर्मचारी राज्य बीमा निगम की अपनी करीब 21 साल की सरकारी नौकरी छोड़ दी. इस्तीफा दिया तब वे ए ग्रेड के अफसर हो चुके थे. अमरीश पुरी नौकरी तभी छोड़ देना चाहते थे जब में थिएटर में एक्टिव हो गए. लेकिन सत्यदेव दुबे ने उनको कहा कि जब तक फिल्मों में अच्छे रोल नहीं मिलते वे ऐसा न करें. आखिरकार डायरेक्टर सुखदेव ने उन्हें एक नाटक के दौरान देखा और अपनी फिल्म 'रेशमा और शेरा' (1971) में एक सहृदय ग्रामीण मुस्लिम किरदार के लिए कास्ट कर लिया. तब वे करीब 39 साल के थे.
अमरीश पुरी आखिरी बार 2005 में आई सुभाष घई की फिल्म 'किसना- दी वरियर पोएट' में नज़र आए थे.
अमरीश पुरी ने सत्तर के दशक में कई अच्छी फिल्में कीं. सार्थक सिनेमा में उनका मुकाम जबरदस्त हो चुका था लेकिन मुंबई के कमर्शियल सिनेमा में उनकी पहचान अस्सी के दशक में बननी शुरू हुई. इसकी शुरुआत 1980 में आई डायरेक्टर बापू की फिल्म 'हम पांच' से हुई जिसमें संजीव कुमार, मिथुन चक्रवर्ती, नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी, राज बब्बर और कई सारे अच्छे एक्टर थे. इसमें पुरी ने क्रूर जमींदार ठाकुर वीर प्रताप सिंह का रोल किया था. बतौर विलेन उन्हें सबने नोटिस किया. लेकिन डायरेक्टर सुभाष घई की 'विधाता' (1982) से वो बॉलीवुड की कमर्शियल फिल्मो में बतौर विलेन छा गए.
फिल्म 'विधाता' (1982) के एक सीन में दिलीप कुमार के साथ अमरीश पुरी. इस फिल्म में अमरीश पुरी के साथ शम्मी कपूर, संजीव कुमार और संजय दत्त जैसे कलाकार भी नज़र आए थे.
फिर अगले साल आई घई की ही 'हीरो' के बाद उन्हें कभी पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा. यहां से हालत ये हो गई थी कि कोई भी बड़ी कमर्शियल फिल्म बिना पुरी को विलेन लिए नहीं बनती थी.
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