छोटू गनची, चार कट आत्माराम, पाना टीपू, बाबू टाइगर. ऐसे नाम आपने 80-90 के दशक की पिक्चरों में सुने होंगे. गैंगवार, किडनैपिंग वाली पिक्चरें. अगर अपने बेटे को जिंदा देखना चाहते हो, तो माल लेकर पुरानी फैक्ट्री के पीछे आ जाना टाइप. इसी लीक पर एक शो आया है, गन्स एंड गुलाब्स. इसे बनाया है फैमिली मैन और फर्ज़ी बनाने वाले राज एंड डीके ने. शो हमने लिया है देख, बताते हैं कैसा लगा.
सीरीज रिव्यू: गन्स एंड गुलाब्स
राजकुमार राव इस सीरीज के हीरो हैं. उन्होंने ऐक्टिंग के अलग मानक सेट किए हैं. सीरीज का आखिरी एपिसोड बेस्ट है.

# पहले थोड़ा-सा प्लाट और कैरेक्टर्स के बारे में जान लीजिए. कहानी के केंद्र में चार बंदे हैं. पहला है छोटू गनची. इसके पिता अफीम माफिया हैं. बेटे को भी बस उसी स्टेटस तक पहुंचना है. दूसरा नंबर आता है अर्जुन का. एक पुलिसवाला. जो इस अफीम गैंग का सफाया करना चाहता है. लेकिन मामला जितना सीधा दिख रहा है उतना है नहीं. अगला है चार कट आत्माराम. ये बंदा शरीर को चार जगह से शुद्ध करता है. इसलिए इसका ये नाम पड़ा. यानी शरीर में चार पॉइंट्स पर खोंपकर हत्या करता है. चौकड़ी पूरी होती है पाना टीपू से. उसका नाम इसलिए पड़ा है क्योंकि वो पाना से लोगों के क़त्ल करता है.
# राज और डीके की ख़ास बात है कि वो सिर्फ फिल्ममेकर नहीं हैं. उन्हें सिनेमा से भी प्रेम है. ये प्रेम इस पूरी सीरीज में दिखता है. 80-90 के दशक की फिल्मों के तमाम रेफ्रेंसेस मिलेंगे. मिथुन और अमिताभ बच्चन के तो कई सारे रेफ्रेंसेस मिलेंगे. अमिताभ की एक पिक्चर है 'दीवार'. इसमें उसके पास एक 786 नम्बर का बिल्ला होता है. उससे कहा जाता है कि ये जब तक तुम्हारे पास है, तुम्हें कोई मार नहीं सकता. ऐसा ही कुछ-कुछ चार कट आत्माराम के साथ भी घटित होता है. उसका एक टिपिकल डायलॉग भी है, " अगर अपनी बेटी को जिंदा देखना चाहते हो, तो पुरानी वाली फैक्ट्री के पीछे माल लेकर आ जाओ."
# राज और डीके के साथ मुझे एक बात और ये अच्छी लगती है, शुरू से लेकर आखिरी तक वो कंटेंट को फॉर ग्रांटेड नहीं लेते. आखिरी एपिसोड में इसकी छाप दिखती है. हर किरदार की अलग एंडिंग मिलेगी. इंटरमिशन भी लिखकर आता है. यहां तक कि एंड क्रेडिट्स में भी मेहनत की गई है. इसमें भी आपको नाइंटीज की फिल्मों की छाप दिखती है. ध्यान से देखेंगे, तो सतीश कौशिक को ट्रिब्यूट भी दिया गया है.

# अस्स्सी-नब्बे के दशक का पूरा तियां-पांचा आपको 'गन्स और गुलाब्स' में मिलेगा. जैसे उस दौर की फिल्मों में एक ओर गैंगवार, माफिया होते थे और दूसरी ओर होती थी लव स्टोरीज. यहां भी ऐसा ही है. सीरीज देखते हुए 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' ज़रूर याद आएगी. कई किरदार भी वैसे लग सकते हैं. आदर्श गौरव का किरदार रामाधीर सिंह के बेटे जेपी सिंह का किरदार याद सकता है. ऐसे ही टीपू का किरदार फैसल खान की याद दिला सकता है. बच्चों वाले ट्रैक में परपेंडीकुलर और डेफिनिट की झलक दिखती है. हालांकि इन सभी किरदारों का 'वासेपुर' से कोई सम्बन्ध नहीं है, बस वैसी वाइब आती है.
# सीरीज में 90 के दशक की दुनिया है. इसमें उस दौर की फिल्मों को ट्रिब्यूट भी दिया गया है, लेकिन इन सबके बीच में सुमन कुमार के साथ राज और डीके ने स्क्रीनप्ले में कोई कसर नहीं छोड़ी है. इसे प्रॉपर थ्रिलर की तरह ट्रीट किया गया है. कई एपिसोड्स में लगता है, कहानी थोड़ी-सी खींच दी गई. इसकी चूलें और कसी जा सकती थी. लेकिन सातवां एपिसोड देखते हुए ये शिकायत भी दूर हो जाती है. आप इस एपिसोड के इंतज़ार में ही बाक़ी के छह एपिसोड देख सकते हैं.
# सीरीज को सजाने में म्यूजिक ने अहम भूमिका निभाई. अगर एटीज और नाइंटीज की दुनिया क्रिएट करनी है, तो बैकग्राउंड म्यूजिक बहुत अहम हो जाता है. अमन पन्त ने इसमें कमाल काम किया है. इसके साथ ही उस दौर के गाने राज और डीके ने क्या ही सुंदर तरीके से इस्तेमाल किए हैं.
# पंकज कुमार की सिनेमैटोग्राफी भी बहुत अच्छी है, खासकर चेज सीक्वेंसेज में. लम्बे लम्बे शॉट्स हैं. वाइड ऐंगल शॉट्स की भरमार है. जो कि निजी तौर पर मुझे बहुत पसंद है. पंकज की सिनेमैटोग्राफी में एक बात ये भी है कि अच्छे कैमरावर्क के साथ ही उन्होंने लाइटिंग में भी कुछ-कुछ खेल किए हैं. जैसे: शैडो लाइटिंग का इस्तेमाल उन्होंने कई-कई जगहों पर बहुत अच्छा किया है.

# राजकुमार राव मेरे लिए इस सीरीज के हीरो हैं. चाहे ऐक्टिंग वाइज हो या फिर टीपू के किरदार की कहानी में इम्पॉर्टेंस को देखें. राज ने बहुत बारीक काम किया है. उनके साथ अच्छी बात है, वो स्क्रीन पर कोई भी किरदार निभाते हैं, तो यक़ीन दिला देते हैं कि ऐसे भी किरदार दुनिया में होते होंगे. ये कुछ ऐसा ही कैरेक्टर है. मेरी नज़र में ये उनके कुछ चुनिंदा अच्छे कामों में से एक है. सबसे अच्छा भी कह सकता था, लेकिन इतनी गुंजाइश तो रखनी ही चाहिए. खैर, राज की अच्छी ऐक्टिंग का एक उदाहरण दे देता हूं. टीपू पाने से एक शक्स को मारता है. और मारकर भाग रहा होता है, तभी याद आता है कि उसका मफलर लाश के पास छूट गया. खटाक से मुड़कर वो मफलर उठाता है और फिर भागता है. अगर ये खुद राज ने इम्प्रोवाइज किया है (जिसकी सम्भावना ज़्यादा है), तो बहुत कमाल चीज़ है. अगर राज और डीके के कहने पर किया है, तो भाईसाहब ये बहुत बारीक निर्देशन है.
# राज के अलावा गुलशन देवैया ने चार कट आत्माराम का किरदार ऐसा निभाया है, कि लगता है इसे सिर्फ वही निभा सकते थे. पूरी पिक्चर में मुश्किल से उनके 8 से 10 डायलॉग ही होंगे. लेकिन उन्होंने आत्माराम को ऐसे निभाया है कि डायरेक्टर का कट बोलने का मन नहीं करता होगा सेट पर. मुझे निराशा है कि उनको काफी कम स्क्रीनटाइम मिला है.
# दुलकर सलमान हमेशा ही अच्छी ऐक्टिंग करते हैं. यहां भी उन्होंने नारकोटिक्स ऑफिसर अर्जुन के रोल में बढ़िया काम किया है. शायद जैसा किरदार लिखा गया होगा, उन्होंने वैसे ही इस किरदार के तमाम शेड्स अपनी देह भाषा में भी उतारे हैं. आदर्श गौरव फ्यूचर स्टार हैं. उनको इस सीरीज के बाद बहुत काम मिलने वाला है. जुगनू गनची के रोल में उनका काम लाखों में एक है. इस पर विस्तार से किसी रोज़ बात करेंगे. इसके अलावा विपिन शर्मा समेत सभी ऐक्टर्स ने बढ़िया काम किया है. टीजे भानु भी निखरकर आई हैं. सतीश कौशिक जितने भी देर के लिए फ्रेम में आते हैं, आपको पता चल जाता है कि कोई मंझा हुआ कलाकार आपके सामने है.
चलिए अभी सीरीज नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है. पहली फुर्सत में देख डालिए. राज और डीके की दुनिया में आपका स्वागत है.
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