ये डायलॉग साल 2024 में आई फिल्म Fighter का है. इस सीन में Hrithik Roshan का किरदार एक पाकिस्तानी आतंकवादी को पीटते हुए ये बातें चिल्ला रहा होता है. अब Emraan Hashmi की फिल्म Ground Zero आई है. फिल्म में इमरान ने BSF ऑफिसर Narendra Nath Dhar Dubey का रोल किया है. उन्होंने साल 2002 में कश्मीर के ‘ऑपरेशन गाज़ी’ के अंतर्गत आतंकी सरगना गाज़ी बाबा को मार गिराया था. ‘ग्राउंड ज़ीरो’ के सीन में ऑफिसर नरेंद्र का साथी कहता है कि कश्मीर हमारा है. इस पर नरेंद्र का किरदार पूछता है कि, ‘सिर्फ कश्मीर की ज़मीन हमारी है या कश्मीर के लोग भी?’ इन दो उदाहरणों से दोनों फिल्मों की टोन का आइडिया लग जाता है.
हालिया माहौल को देखते हुए ‘ग्राउंड ज़ीरो’ अपने सब्जेक्ट को सेंसिबल ढंग से ट्रीट करती है. वो अपनी देशभक्ति को बाजुओं पर पहनकर नहीं चलती. किसी तरह की कोई बाइनेरी बनाने की कोशिश नहीं करती, कि कश्मीर के स्थानीय लोग ऐसे हैं और आर्मी के लोग ऐसे हैं. ये फिल्म अपने सब्जेक्ट्स को मानवीयता की रोशनी में दिखाने की कोशिश करती है. बड़ी आसानी से छाती ठोककर शोर मचाया जा सकता था, मगर ऐसा नहीं करती है. एक तरफ आप हुसैन जैसे स्थानीय लड़के से मिलते हैं. किस हालात में उसके हाथ में बंदूक थमाई जाती है. तो दूसरी ओर ज़मीन पर तैनात उन फौजियों से भी मिलते हैं जो कभी अपने ऑर्डर के चलते, तो कभी अपनी ड्यूटी के चलते पिस रहे हैं.
‘ग्राउंड ज़ीरो’ ने उस भाव, उस जज़्बे को बरकरार रखा है जो एक फौजी को आम इंसान से अलग करता है. लेकिन वो उसे कोई भगवान नहीं बनाती. एक पॉइंट पर नरेंद्र परेशान है. सही करना चाहता है, लेकिन चाहकर भी ऐसा नहीं कर पा रहा. ऊपर से अंदर ही अंदर परिवार की सुरक्षा का ख्याल खाये जा रहा है. अपना ट्रांसफर करवा लेता है. उसे एक किरदार कहती है कि तुम यहां से चले गए तो ये जगह कभी भी जन्नत नहीं बन पाएगी. इस पर वो झुंझलाकर कहता है,
“भाड़ में गई जन्नत, और भाड़ में गया गाज़ी”.
यहां एक फौजी है जो सर्वशक्तिमान नहीं है. वो इस सिस्टम का हिस्सा है. जान चुका है कि सही और गलत का चुनाव करने जैसी सुविधा उसके पास नहीं है. ‘ग्राउंड ज़ीरो’ सिर्फ इस बारे में नहीं है कि कैसे गाज़ी बाबा को ढूंढकर मार दिया गया. अगर ये सिर्फ उसी बारे में होती तो एक थ्रिलर फिल्म कहलाती. बाकी फिल्म के जिस हिस्से में नरेंद्र की टीम गाज़ी को ढूंढ रही होती है, वो एंगेजिंग ज़रूर है. लेकिन वो सिर्फ फिल्म का एक पहलू है. ये कहानी जितनी नरेंद्र और उसके ऑपरेशन की है, उतनी हुसैन जैसे लोगों की भी है. हालांकि फिल्म इस पहलू में कुछ खामियों की गुंजाइश भी छोड़ती है. इंटरवल से पहले तक फिल्म में बहुत सारी टिपिकल चीज़ें होती हैं. जैसे इमरान का किरदार एकदम संत किस्म का आदमी होती है. वो बच्चों के साथ वक्त बिताने की कोशिश करता है. झील में नाव की सवारी करते हुए वहां पड़ी गंदगी उठाकर फेंक देता है. उसके साथी उसे देखकर चहचहा उठते हैं.
फिल्म में इमरान ने BSF ऑफिसर नरेंद्र नाथ धर दुबे का रोल किया है.
जब आप अपने हीरो को इस लेवल पर ले जाते हैं, तो उसके गलत होने के स्कोप को शून्य कर देते हैं. यहां एक इंसान है जो पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में देवता जैसा है. मेकर्स के ऐसा करने के पीछे का भी कारण हो सकता है. ये किरदार एक असली शख्स पर आधारित था. ऐसे में वो ज़्यादा क्रिएटिव लिबर्टी नहीं लेना चाह रहे होंगे. उसके अलावा फिल्म की दूसरी बड़ी खामी है कि इमरान के अलावा बाकी एक्टर्स को बहुत कम स्पेस मिली है. ज़ोया हुसैन ने एक इंटेलिजेंस ऑफिसर का रोल किया है. उनके किरदार को आप उन्हीं टिपिकल सेटिंग में देखते हैं जहां पहले भी अनेकों बार ऐसे किरदारों को रखा जा चुका है. यही वजह है कि कुछ मौकों पर महसूस होता है कि ऐसा पहले भी देख चुके हैं.
बाकी फिल्म में इमरान हाशमी ने सही काम किया है. अमेरिकी एडिटर Walter Murch ने In The Blink of An Eye नाम की एक किताब लिखी है. इसे दुनियाभर के एडिटर अपनी बाइबल की तरह मानते हैं. वॉल्टर कहते हैं कि जब कोई एक्टर सीन में अपनी पलक झपकाता है, एडिट के हिसाब से उसकी रिदम टूट रही है. उसके दिमाग में जो विचार चल रहे हैं, पलक झपकाने पर उनकी लय भंग हो रही है. ‘ग्राउंड ज़ीरो’ में एक इंटेंस सीन है जहां इमरान और ज़ोया के किरदार अपना पक्ष सामने रखने की कोशिश कर रहे हैं. इस सीन में आपका ध्यान इमरान की आंखों पर जाता है, और फिर वॉल्टर मर्च की सलाह याद आती है. इमरान इस सीन में अपने किरदार के विचारों की लय टूटने नहीं देते.
‘ग्राउंड ज़ीरो’ इस साल की बेस्ट फिल्मों में शुमार न हो पाए, लेकिन ये ऐसी फिल्म भी नहीं जिसे खारिज किया जा सके. फिल्म में भले ही कुछ खामियां हैं, लेकिन इसके पास कहने को कुछ अपना भी है.
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