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फिल्म रिव्यू- गणपत

'गणपत' को मासी एंटरटेनर कहकर प्रचारित किया जा रहा था. देखने के बाद समझ आया कि 'गणपत' मास नहीं, मेस सिनेमा है. इन्हीं फिल्मों के चक्कर में मास एंटरटेनर जॉनर बदनाम होकर रह गया है.

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'गणपत' के पोस्टर पर कृति सैनन, टाइगर श्रॉफ और अमिताभ बच्चन.

Tiger Shroff की नई फिल्म Ganapath बिना किसी बज़ के थिएटर्स में रिलीज़ हुई. फिल्म देखने के बाद आपको समझ आता है कि इस फिल्म को लेकर जनता एक्साइटेड क्यों नहीं थी. क्योंकि इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है, जिसके लिए उत्साहित हुआ जाए. 'गणपत' की सबसे डरावनी बात फिल्म खत्म होने के बाद और क्रेडिट रोल्स से ठीक पहले घटती है. जब आपको बताया जाता है कि इसका पार्ट 2 भी बनेगा. बनेगा कि नहीं, ये इस फिल्म की परफॉर्मेंस पर निर्भर करेगा. इससे पहले भी कुछ फिल्मों को फ्रैंचाइज़ में विकसित करने के मक़सद से बनाया गया था. मसलन विकी कौशल की 'भूत- द हॉन्टेड शिप'.  

ख़ैर, हम 'गणपत' की बात कर रहे थे. ये 'फ्यूचरिस्टिक और पोस्ट-एपोकैलिप्टिक' फिल्म है. यानी हमारे समय से आगे सन 2060 में क़यामत के बाद जो दुनिया बची, वहां ये फिल्म घटती है. यहां अमीर लोगों ने अपनी सारी सम्पत्ति मिलाकर 'सिल्वर सिटी' नाम का शहर बना लिया है. बाकी लोगों को संसाधनों के अभाव में आपस में लड़ने-मरने के लिए छोड़ दिया है. इन दो शहरों को एक गेट और ऊंची दीवार अलग करती है. ये हो गई हिस्ट्री और जॉग्रफी.

अब कहानी पर आते हैं. गरीबों के शहर में थलपति नाम का एक बूढ़ा आदमी रहता है. वो देख रहा है कि उनके इलाके के (पुरुष) लोग फ्रस्टेट हो गए हैं. छोटी-छोटी चीज़ों के लिए आपस में लड़ने और मरने-मारने पर उतारू रहते हैं. इसलिए वो अपने शहर में एक बॉक्सिंग रिंग बनाता है. लोगों को बोलता है कि उस रिंग में लड़िए. उससे फ्रस्ट्रेशन भी निकल जाएगी. और सिल्वर सिटी के अमीरों से लड़ने के लिए योद्धा भी तैयार हो जाएंगे. इस बात की खबर सिल्वर सिटी के हेड दलिनी को लग जाती है. वो अपने राइट हैंड जॉन को गरीबों की बस्ती में भेजता है. जॉन आता है, बॉक्सिंग रिंग तोड़-ताड़ देता है. थलपति की अब तक हर भविष्यवाणी सच हुई है. वो अपनी बस्ती के लोगों को बताते हैं कि एक योद्धा आएगा, जो अपने लोगों के लिए सिल्वर सिटी से लड़ेगा और जीतेगा. उसका नाम है- गणपत. उसके बाद से बस्ती वाले खुद अपनी स्थिति सुधारने की बजाय गणपत का इंतज़ार करते लगते हैं. अब ये गणपत कौन है, कहां से आएगा, सिल्वर सिटी और दलिनी से कैसे लड़ेगा, ये सब जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी. मगर उससे भी ज़रूरी सवाल ये कि क्या इन सवालों के जवाब इतने दिलचस्प हैं, जिन्हें जानने के लिए आपको फिल्म देखनी चाहिए? वो हम आगे समझने की कोशिश करेंगे.

कुछ सालों पहले खबर आई कि 'क्वीन' के डायरेक्टर विकास बहल, टाइगर श्रॉफ को लेकर एक पिक्चर बनाने जा रहे हैं. उम्मीद सी जग गई. लगा चलो अब टाइगर श्रॉफ नॉनसेंस एक्शन से इतर कुछ करेंगे. पब्लिक को उनकी दूसरी साइड देखने को मिलेगी. फिर हमने 'गणपत' देखी. जिसके बाद हमारी सारी ग़लतफहमी जाती रही. फिल्में बनाने का नॉर्मल तरीका ये है कि एक कहानी होती है. उसके हिसाब से एक्टर्स को कास्ट किया जाता है. मगर यहां गेम उल्टा है. टाइगर श्रॉफ हैं. उनके लिए एक स्क्रिप्ट चुनी जाती है, जिसमें वो ठीक लगें. वो किन फिल्मों में ठीक लगेंगे? एक्शन फिल्म. मसला ये है कि उनकी एक्शन फिल्मों में सिर्फ एक्शन ही होता है. कहानी नहीं होती. 'गणपत' उससे किसी मायने में अलग नहीं है. शायद ये टाइगर श्रॉफ की फिल्म होने के लिहाज से भी बहुत बुरी फिल्म है.  

टाइगर ने फिल्म में गुड्डू नाम के लड़के का रोल किया है. जो सिल्वर सिटी में रहता है. अय्याशी भरी लाइफस्टाइल जी रहा है. जॉन का खास आदमी है. क्योंकि सिल्वर सिटी में बॉक्सिंग सबसे बड़ा बिज़नेस है. गुड्डू, जॉन को अच्छा बॉक्सर चुनने में मदद करता है. मगर कुछ कांड होता है, जिसकी वजह से गुड्डू गरीबों की बस्ती में पहुंच जाता है. यहां उसे जस्सी नाम की एक लड़की मिलती है. इसके साथ वो नाचता-गाता और एक गाने के दरम्यान प्रेम में भी पड़ जाता है. उसके बाद गुड्डू क्या करता है? जस्सी क्या करती है? एक्शन. पिक्चर में आगे क्या होता है? बिना मतलब का अंतहीन एक्शन. ऐसा लगता है कि आप फिल्म नहीं, टाइगर श्रॉफ का ट्रेनिंग वीडियो देख रहे हैं. भाई हमने पिछली फिल्मों से जान लिया कि टाइगर श्रॉफ आला एक्शन करते हैं. बहुत एजाइल बॉडी है उनकी. अब हमारी उत्सुकता ये जानने में है कि वो एक्शन के अलावा और क्या कर सकते हैं. मसलन, एक्टिंग.

कई दफे होता है कि आपको फिल्म की कहानी नहीं जम रही. मगर विजुअल्स आपको बांधे रखते हैं. मगर 'गणपत' तो विजुअली भी इतनी खराब फिल्म है कि 'आदिपुरुष' को कड़ी टक्कर दे दे. इस फिल्म के अधिकतर या यूं कहें कि पूरी पिक्चर ही ग्रीन स्क्रीन पर शूट की गई है. VFX की मदद से बैकग्राउंड में सीन्स जोड़े गए हैं. इस फिल्म में बॉक्सिंग देखने आई ऑडियंस तक असली नहीं लगती. 'ग्लैडियटर' से प्रेरित जो रोमन कोलोसियम टाइप माहौल बनाने की कोशिश की गई, वो सरप्राइज़िंग तरीके से नकली और गंदा लगता है. आपको यकीन नहीं होता कि ये सारे सीन्स क्वॉलिटी चेकिंग से पास कैसे हो गए. हमने तो एक सीन का उदाहरण दिया. पूरी पिक्चर में न जाने ऐसे कितने ही सीन्स हैं.    

'गणपत' में एक सीन है. यहां गुड्डू अपने 'गुरु' शिवा को चाय बनाकर पिलाता है. शिवा उस पर अटैक करता रहता है, गुड्डू उससे बचते हुए चाय बनाता है. इस सीन की मदद से ये बताया जा सकता है कि एक्शन का कुछ मतलब भी हो सकता है. हर बार उसका बेमतलब होना कंपल्सरी नहीं है.  

'गणपत' चाहती है कि उसे सोशल फिल्म की तरह देखा जाए. जो क्लास डिफरेंस की बात करती है. अमीर बुरे होते हैं और गरीब अच्छे. मगर एक्शन और टाइगर श्रॉफ के चक्कर में ये पूरा मसला ही कहीं पीछे छूट जाता है. मुझे इस फिल्म से ज़्यादा शिकायतें टाइगर श्रॉफ से हैं. दुनिया का चाहे कोई भी एक्टर हो, वो कहानी और फिल्म से बड़ा नहीं हो सकता. टाइगर को ये चीज़ जितनी जल्दी समझ आ जाए, वो उतनी जल्दी वापसी कर पाएंगे.

'गणपत' में न किसी तरह की इमोशनल डेप्थ है, न ऐसी कहानी, जो आपने पहले न सुनी हो. न ऐसा कुछ खास एक्शन है. न परफॉरमेंस. परफॉरमेंस से याद आया कृति सैनन ने फिल्म में जस्सी नाम की लड़की का रोल किया है. फिल्म में उनका रोल ये है कि वो खुद को फर्ज़ी में किडनैप करवा लेती हैं. हैरान करने वाली बात ये कि ये सब कहानी का हिस्सा है. और फिर भी कृति ने ये फिल्म करना चुना. उनके ही हिस्से कुछ सीन्स आते हैं, जिसे देखकर आपको लगता है कि चलो कोई तो इस फिल्म में एक्टिंग करने आया है. अमिताभ बच्चन ने थलपति का रोल किया है. ये कैमियो अपीयरेंस है. जो फिल्म में कुछ खास नहीं जोड़ पाता.

'गणपत' को मासी एंटरटेनर कहकर प्रचारित किया जा रहा था. देखने के बाद समझ आया कि 'गणपत' मास नहीं, मेस सिनेमा है. इन्हीं फिल्मों के चक्कर में मास एंटरटेनर जॉनर बदनाम होकर रह गया है. क्योंकि इस तरह की फिल्में न आपको एंटरटेन कर पाती हैं, न एज्युकेट. सैरिडॉन का खर्चा अलग.

वीडियो: मूवी रिव्यू: लियो