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फिल्म रिव्यू: जो जीता यहां है रुस्तम वही!

फ़िल्म रुस्तम. मर्डर का केस. ज्यूरी ट्रायल. थ्रिलर. पढ़ें रिव्यू.

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रुस्तम. हिंदुस्तान के इतिहास के एक मशहूर मर्डर केस पर बनी फ़िल्म. लव ट्रायेंगल और एक खून. खून करने वाला इंडियन नेवी में कमांडर. मरने वाला कमांडर की बीवी का आशिक़. कमांडर नानावटी ने अय्याश बिज़नेसमैन प्रेम आहूजा को गोली मार दी थी. अहूजा नानावटी की गैरमौजूदगी में नानावटी की बीवी सिल्विया से इश्क़ फ़रमाता था. फिल्म रुस्तम इस कत्ल और अदालत में चले उसके ज्यूरी ट्रायल पर बनी है. सच्ची घटना पर आधारित. लेकिन नाम बदले, रिफरेन्स बदले. हिंदी फिल्मों की पुरानी बीमारी.
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खैर, अक्षय कुमार बने हैं रुस्तम. फिल्म बेस्ड है 60 के दशक से कुछ पहले के समय पर. एक नेवी का कप्तान अपने घर आता है और पाता है कि उसकी बीवी सिंथिया का किसी के साथ अफ़ेयर चल रहा है. वो तीसरा शख्स है शहर का एक बड़ा नाम. बड़ा बिज़नेसमैन. विक्रम. रुस्तम विक्रम को जान से मार देता है और तुरंत ही पुलिस के सामने सरेंडर कर देता है. विक्रम की बहन तय करती है कि वो रुस्तम को कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवाएगी. रुस्तम पर मुकदमा चलता है और वो कोर्ट में अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए लड़ता है. इसी केस के ज्यूरी के ट्रायल की कहानी है रुस्तम.
फिल्म पूरी तरह से नानावटी केस से उठाई गयी है. ऊपर से डायरेक्टर टीनू सुरेश देसाई ने कई लेयर्स चढ़ाने की कोशिश की है, जिससे कि फिल्म एक मसालेदार मर्डर थ्रिलर बन सके. साथ ही देश की सुरक्षा में सेंध जैसा भी ऐंगल उठाने की कोशिश की गयी है. और इसके लिए सहारा लिया गया है रुस्तम की देह पर हर पल मौजूद भारतीय नौसेना की सफ़ेद चमचमाती वर्दी का.
फ़िल्म अपनी कहानी से ज़्यादा ऐक्टिंग के दम पर चलती दिखती है. एक सैनिक की बीवी की 'बेवफ़ाई' के किस्से फिल्मों में सैकड़ों ही बार भुनाए जा चुके हैं. यहां तक की ठीक यही कहानी हम 1963 में आई ये रास्ते हैं प्यार के और अचानक में भी देख चुके हैं. इसके साथ ही विदेशी फ़िल्मों में भी एनॉटमी ऑफ़ अ मर्डर में ऐसा ही केस देखा गया है. ये शायद एक इत्तेफ़ाक ही है कि नानावटी मर्डर केस का साल और एनॉटमी ऑफ़ अ मर्डर के रिलीज़ होने का साल एक ही है. 1959.
अक्षय कुमार फ़िल्म में हर वक़्त मौजूद रहते हैं. फ़िल्म उन्हीं के इर्द-गिर्द है और वो ही रुस्तम हैं. एक टिपिकल फ़िल्मी मरीन ऑफिसर. पूरी फ़िल्म बिना हंसे गुज़ार दी. मुस्कुराया तो बस फ़्लैशबैक में. बेहद शातिर. एकदम काइयां. साथ में एक पुलिस वाला. इन्स्पेक्टर लोबो बने हुए पवन मल्होत्रा. नाम नहीं समझ आ रहा है तो याद दिला दूं कि ब्लैक फ्राइडे में पवन मल्होत्रा ने टाइगर मेमन का रोल निभाया था. इलियाना डिक्रूज़ के स्क्रीन पर आते ही उनकी बर्फ़ी वाली महा-क्यूट छवि याद आ जाती है. मैं पर्सनली अभी तक उस सर पर चश्मा चढ़ाये कार से झांकती, बर्फ़ी को साइकिल चलाते देखती हुई लड़की को भूल नहीं पाया हूं. वक़्त लगेगा, लेकिन हो जायेगा. आमीन! इसके साथ ही विक्रम की बहन के रोल में हैं एशा गुप्ता. जिन्हें देखते ही खुन्नस चढ़ जाती है. और यहीं उनका कैरेक्टर जीत जाता है.
पवन मल्होत्रा, इलियाना डिक्रूज़, एषा गुप्ता
पवन मल्होत्रा, इलियाना डिक्रूज़, एषा गुप्ता

फिल्म का कुल जमा सार ये है कि ज़्यादा उम्मीदें न बांध के जायें, तो संतुष्ट वापस आयेंगे. साथ ही ये भी ज़रूरी है कि टिकस बहुत महंगा न खरीदा हो. कम लागत में टाइम पास फिल्म है. आदर्श हिंदी भाषी पत्रकार की जुबान में - फ़िल्म आपको बांधे रखती है. फिल्म देखते-देखते अक्षय कुमार की स्पेशल 26 की याद आती है. वो भी एक पीरियड ड्रामा फिल्म थी. कई जगहों पर लेट 50 का माहौल बनाने के चक्कर में विज़ुअल इफ़ेक्ट्स का सहारा लिया गया है. कई जगह पर वो अटपटा भी लगता है. मसलन हवा में लहरता हुआ वीएफ़एक्स से बनाया गया झंडा साफ़-साफ़ नकली दिखता है.

फ़िल्म देखने जाओ. यार-दोस्तों के साथ जाओ. फैमिली के साथ जाओ. एक बार देख लो. आज-कल जो परोसा जा रहा है, उसके हिसाब से सही डील रहेगी. ज़्यादा न बढ़िया मान के चले जाना. नहीं तो हमको गाली दोगे. और हां, टिकट पे ज़्यादा रुपिया न खर्चा करना. नॉट वर्थ इट.

https://www.youtube.com/watch?v=L83qMnbJ198


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