फिल्मः नाम शबाना । स्टोरी, स्क्रीनप्ले, डायलॉगः नीरज पांडे । डायरेक्टरः शिवम नायर । एक्टर्सः तापसी पन्नू, मनोज बाजपेयी, अक्षय कुमार, पृथ्वीराज सुकुमारन, अनुपम खेर, डैनी डेनजॉन्गपा । टाइमः 2 घंटे 27 मिनट
फिल्म रिव्यूः नाम शबाना
अक्षय कुमार का छोटा नहीं बड़ा रोल है इसमें.

फिल्म के एक दृश्य में अक्षय कुमार और तापसी पन्नू.
कितनी एंटरटेनिंग है, इसका जवाब यही है कि 'बेबी' फ्रैंचाइज़, नीरज पांडे और अक्षय कुमार के फैन हैं तो सिनेमाघर में जाकर ये फिल्म देख सकते हैं, ठीक-ठाक मजा आएगा. लेकिन पैसे मेहनत से कमाते हैं और मल्टीप्लेक्स में हजार-दो हजार रुपये लगाने से पहले दो बार सोचते हैं तो न जाएं. टीवी पर देख सकते हैं.
नीरज पांडे की अब तक की ये सबसे कमजोर फिल्म है. 'नाम शबाना' को देखने का कौतूहल सिर्फ तीन कारणों से है - पहला, तापसी पन्नू का किरदार फिल्म 'बेबी' में बहुत संक्षिप्त था और उसे लेकर जो रहस्य बना उसने असर छोड़ा. अब उसकी पिछली कहानी जानने की इच्छा दर्शकों में है.
दूसरा, स्पाय थ्रिलर फिल्में हमारे यहां न के बराबर हैं. सीआईए और एमआई5 के एजेंट्स वाली फिल्में देखकर भारतीय दर्शकों के मन में इस जॉनर के लिए रुचि विकसित हो ही रखी है. नीरज पांडे ने 'बेबी' से इस जॉनर में एक सफल शुरुआत की. इसमें उन्होंने पॉलिटिक्स भी वो चुनी थी जो हर आम दर्शक के मन में सक्रिय है - कश्मीर या इस्लामी आतंकवाद.
ऐसे में 'बेबी' के हर किरदार को लेकर चाहे कितने भी spin-off बना दिए जाएं, लोग देखेंगे ही.
तीसरा कारण हैं, अक्षय कुमार.
'नाम शबाना' शुरू के आधे घंटे बहुत उबाऊ है. बहुत अधपके तरीके से सब आता है. सीक्रेट एजेंट बनने से पहले की कहानी में शबाना ताइक्वांडो सीखती है. उसके दृश्य और एक टूर्नामेंट में हिस्सा लेने, जीतने के दृश्य नीरज पांडे की फिल्मों के स्टैंडर्ड के हिसाब से बहुत ही कमजोर है. बी ग्रेड टाइप. ऐसा अन्य जगहों पर भी है.

फिल्म के एक दृश्य में तापसी पन्नू.
अंत भी कमजोर है. कहानी में बताया जाता है कि मिखाइल नाम का एक बड़ा अपराधी है जो भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान में हथियार सप्लाई करता है. उसे आतंकवाद और देह व्यापार के धंधे से जुड़ा भी बताया जाता है. एक जगह पर उसे पकड़ने जा रहा एक भारतीय एजेंट अपने साथियों को बताता है "अगर वो पकड़ा गया तो 10 सालों में पूरे वर्ल्ड की सीक्रेट सर्विस एजेंसीज में से ये सबसे बड़ा ऑपरेशन होगा." ये संवाद वैसे भी और फिल्म के संदर्भ में भी बहुत बड़बोला लगता है.
दर्शक अब इतने भोले नहीं रहे कि वे कुछ भी निगल जाते हैं.
मान भी लें कि वाकई ये इतना बड़ा मिशन है तो उस लिहाज से भी अंत ढीला रहता है.
'बेबी' के क्लाइमैक्स की तर्ज पर इस फिल्म में वैसा करने की कोशिश होती है. क्लाइमैक्स में अनुपम खेर और अक्षय कुमार, शबाना के साथ आते हैं. लेकिन ये अंत 'बेबी' वाले परफॉर्मेंस का कुल पांच परसेंट कैरिकेचर बनकर रह जाता है.

अक्षय, तापसी और अनुपम खेर.
फिल्म का एक्शन बिलुकल भी इम्प्रेसिव नहीं है. क्लाइमैक्स में दो बार, मशीनगन लिए कुल दस-बारह सिक्योरिटी गार्ड्स को अक्षय का कैरेक्टर मारकर बेहोश कर देता है और उन लोगों की गन्स में से एक भी गोली नहीं चलती, जबकि अक्षय जब एक को मार रहा होता है तब दूसरा उचित दूरी पर खड़ा होता है. दूसरा, सारे के सारे गार्ड एक-एक वार से ही बेहोश हो जाते हैं. इन बेहद प्रशिक्षित गार्ड्स में से एक-दो तो थप्पड़ और लात से ही बेहोश हो जाते हैं.
कहानी में दो जगह ऐसा होता है कि मिखाइल को पकड़ने गए कुल पांच एजेंट मारे जाते हैं. ऐसे मारे जाते हैं जैसे नुक्कड़ पर हफ्ता वसूली कर रहे एक पसली वाले गुंडे हों. उनके मरने में सीक्रेट सर्विस के स्पेशल एजेंट जैसा कुछ नहीं होता.
ये सब बातें ये समझाने के लिए कि 'नाम शबाना' को देखते हुए अपेक्षाएं कितनी कम पूरी होती हैं.
ऐसा लगता है कि फिल्म में अक्षय के किरदार की लंबाई कितनी रहने वाली है इसे लेकर भी राइटर-प्रोड्यूसर नीरज पांडे और डायरेक्टर शिवम नायर के मन में संशय था. बहुत मौकों पर तो वे फिल्म को पूरी तरह टेकओवर कर लेते हैं.
अंत में विलेन के सामने शबाना पूरी तरह नाकाम साबित होती है. दिखता है कि उसे महीने भर जो ट्रेनिंग शबाना का ऑफिसर रणवीर सिंह दिला रहा होता है वो कितनी नाकाफी होती है. ट्रेनिंग का रिजल्ट यहां रत्ती भर नहीं दिखता.
मनोज बाजपेयी का किरदार रणवीर सिंह डैनी डेनजॉन्गपा के कैरेक्टर फिरोज अली खान से जूनियर और बाकी सबसे सीनियर का होता है. फिल्म में तीन बार उसके आदेश पर एजेंट्स मिखाइल को पकड़ने आगे बढ़ते हैं. दो मौकों पर सब मर जाते हैं और तीसरी बार भी उसकी एजेंट मरते-मरते बचती है. वो एक नाकाम लीडर साबित होता है लेकिन इसे लेकर फिल्म में कोई बात नहीं होती.
'अ वेडनसडे' फिल्म से डायरेक्टर बने नीरज पांडे ने उस फिल्म में जेल में बंद कुछ मुस्लिम आरोपियों को आतंकी बताया और एक अधेड़ आम आदमी की प्लानिंग से मरवाया. उस आम आदमी की पहचान फिल्म में नहीं बताई जाती लेकिन उसके मुस्लिम होने का संकेत कहीं नहीं दिखता. उसके हिंदु होने का आभास ही होता है. अपनी डेब्यू फिल्म में नीरज ने चतुराई से अपना एजेंडा रखा. लेकिन 'नाम शबाना' में वो खुलकर सामने आते हैं. एक सीन में रणवीर और शबाना बात कर रहे होते हैं तो शबाना कुछ ऐसा कहती है कि क्या आपने मुझे इसलिए चुना कि मैं मुसलमान हूं? तो वो कहता हैं हां, क्यों नहीं. तुम अपनी जिंदगी और रिलीजन को जैसे कैरी करती हो वो प्रशंसनीय है. और तुम्हारा धर्म हमारे लिए एक एडवांटेज तो है ही. 'आज के दौर और परिस्थितियों में' हमें तुम जैसे एसेट की बहुत जरूरत है.

फिल्म में शबाना और रणवीर सिंह के कैरेक्टर.
नीरज इस संवाद से जाहिर कर जाते हैं कि अपनी फिल्मों से मॉडरेट छवि वाले मुसलमानों को प्रमोट करते हैं. जैसे शबाना और उसकी मां, जो दोस्त की तरह व्यवहार करती हैं. शबाना अपने हिंदू बॉयफ्रेंड के बारे में मां को हर बात बताती है और उसे कोई आपत्ति नहीं है. जैसे, फिरोज जो सीक्रेट सर्विस एजेंसी का प्रमुख है.
वहीं दूसरी तरह के (पारंपरिक, धार्मिक) मुसलमानों को बुरी आदतों में घोलकर दिखाते हैं. जैसे शबाना के पिता को पियक्कड़ और wife-beater बताया. जैसे 'बेबी' में बिलाल, तौफीक, मौलाना, वसीम के किरदार थे. सब आतंकी. और दंभ भरने वाले आतंकी.
वे अपनी कहानियों में पोलिटिकली करेक्ट होने की कोशिश नहीं करते और पूरी तरह पॉपुलिस्ट अप्रोच दिखाते हैं. अच्छे सिनेमा की ये निशानी नहीं. उनकी फिल्मों को ध्यान से देखने जाने की जरूरत है. जैसे 'नाम शबाना' में वे एक extrajudicial killing करवाते हैं और दर्शक नोटिस भी नहीं करते. फिल्म में शबाना को भर्ती करने से पहले सीक्रेट सर्विस ऑफिसर रणवीर सिंह एक लड़के की हत्या करने में उसकी मदद करता है, न्यायिक प्रक्रिया से परे जाकर. एक जगह वो कहता है - "एजेंसी का हमारा मोटो है National security, at any cost." हालांकि शबाना के इस लड़के की हत्या करने में कोई नेशनल सिक्योरिटी का मसला नहीं होता है.
https://www.youtube.com/watch?v=OP_dV87Vj5Q
नीरज पांडे की अब तक की ये सबसे कमजोर फिल्म है. 'नाम शबाना' को देखने का कौतूहल सिर्फ तीन कारणों से है - पहला, तापसी पन्नू का किरदार फिल्म 'बेबी' में बहुत संक्षिप्त था और उसे लेकर जो रहस्य बना उसने असर छोड़ा. अब उसकी पिछली कहानी जानने की इच्छा दर्शकों में है.
दूसरा, स्पाय थ्रिलर फिल्में हमारे यहां न के बराबर हैं. सीआईए और एमआई5 के एजेंट्स वाली फिल्में देखकर भारतीय दर्शकों के मन में इस जॉनर के लिए रुचि विकसित हो ही रखी है. नीरज पांडे ने 'बेबी' से इस जॉनर में एक सफल शुरुआत की. इसमें उन्होंने पॉलिटिक्स भी वो चुनी थी जो हर आम दर्शक के मन में सक्रिय है - कश्मीर या इस्लामी आतंकवाद.
ऐसे में 'बेबी' के हर किरदार को लेकर चाहे कितने भी spin-off बना दिए जाएं, लोग देखेंगे ही.
तीसरा कारण हैं, अक्षय कुमार.
'नाम शबाना' शुरू के आधे घंटे बहुत उबाऊ है. बहुत अधपके तरीके से सब आता है. सीक्रेट एजेंट बनने से पहले की कहानी में शबाना ताइक्वांडो सीखती है. उसके दृश्य और एक टूर्नामेंट में हिस्सा लेने, जीतने के दृश्य नीरज पांडे की फिल्मों के स्टैंडर्ड के हिसाब से बहुत ही कमजोर है. बी ग्रेड टाइप. ऐसा अन्य जगहों पर भी है.

फिल्म के एक दृश्य में तापसी पन्नू.
अंत भी कमजोर है. कहानी में बताया जाता है कि मिखाइल नाम का एक बड़ा अपराधी है जो भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान में हथियार सप्लाई करता है. उसे आतंकवाद और देह व्यापार के धंधे से जुड़ा भी बताया जाता है. एक जगह पर उसे पकड़ने जा रहा एक भारतीय एजेंट अपने साथियों को बताता है "अगर वो पकड़ा गया तो 10 सालों में पूरे वर्ल्ड की सीक्रेट सर्विस एजेंसीज में से ये सबसे बड़ा ऑपरेशन होगा." ये संवाद वैसे भी और फिल्म के संदर्भ में भी बहुत बड़बोला लगता है.
दर्शक अब इतने भोले नहीं रहे कि वे कुछ भी निगल जाते हैं.
मान भी लें कि वाकई ये इतना बड़ा मिशन है तो उस लिहाज से भी अंत ढीला रहता है.
'बेबी' के क्लाइमैक्स की तर्ज पर इस फिल्म में वैसा करने की कोशिश होती है. क्लाइमैक्स में अनुपम खेर और अक्षय कुमार, शबाना के साथ आते हैं. लेकिन ये अंत 'बेबी' वाले परफॉर्मेंस का कुल पांच परसेंट कैरिकेचर बनकर रह जाता है.

अक्षय, तापसी और अनुपम खेर.
फिल्म का एक्शन बिलुकल भी इम्प्रेसिव नहीं है. क्लाइमैक्स में दो बार, मशीनगन लिए कुल दस-बारह सिक्योरिटी गार्ड्स को अक्षय का कैरेक्टर मारकर बेहोश कर देता है और उन लोगों की गन्स में से एक भी गोली नहीं चलती, जबकि अक्षय जब एक को मार रहा होता है तब दूसरा उचित दूरी पर खड़ा होता है. दूसरा, सारे के सारे गार्ड एक-एक वार से ही बेहोश हो जाते हैं. इन बेहद प्रशिक्षित गार्ड्स में से एक-दो तो थप्पड़ और लात से ही बेहोश हो जाते हैं.
कहानी में दो जगह ऐसा होता है कि मिखाइल को पकड़ने गए कुल पांच एजेंट मारे जाते हैं. ऐसे मारे जाते हैं जैसे नुक्कड़ पर हफ्ता वसूली कर रहे एक पसली वाले गुंडे हों. उनके मरने में सीक्रेट सर्विस के स्पेशल एजेंट जैसा कुछ नहीं होता.
ये सब बातें ये समझाने के लिए कि 'नाम शबाना' को देखते हुए अपेक्षाएं कितनी कम पूरी होती हैं.
ऐसा लगता है कि फिल्म में अक्षय के किरदार की लंबाई कितनी रहने वाली है इसे लेकर भी राइटर-प्रोड्यूसर नीरज पांडे और डायरेक्टर शिवम नायर के मन में संशय था. बहुत मौकों पर तो वे फिल्म को पूरी तरह टेकओवर कर लेते हैं.
अंत में विलेन के सामने शबाना पूरी तरह नाकाम साबित होती है. दिखता है कि उसे महीने भर जो ट्रेनिंग शबाना का ऑफिसर रणवीर सिंह दिला रहा होता है वो कितनी नाकाफी होती है. ट्रेनिंग का रिजल्ट यहां रत्ती भर नहीं दिखता.
मनोज बाजपेयी का किरदार रणवीर सिंह डैनी डेनजॉन्गपा के कैरेक्टर फिरोज अली खान से जूनियर और बाकी सबसे सीनियर का होता है. फिल्म में तीन बार उसके आदेश पर एजेंट्स मिखाइल को पकड़ने आगे बढ़ते हैं. दो मौकों पर सब मर जाते हैं और तीसरी बार भी उसकी एजेंट मरते-मरते बचती है. वो एक नाकाम लीडर साबित होता है लेकिन इसे लेकर फिल्म में कोई बात नहीं होती.
'अ वेडनसडे' फिल्म से डायरेक्टर बने नीरज पांडे ने उस फिल्म में जेल में बंद कुछ मुस्लिम आरोपियों को आतंकी बताया और एक अधेड़ आम आदमी की प्लानिंग से मरवाया. उस आम आदमी की पहचान फिल्म में नहीं बताई जाती लेकिन उसके मुस्लिम होने का संकेत कहीं नहीं दिखता. उसके हिंदु होने का आभास ही होता है. अपनी डेब्यू फिल्म में नीरज ने चतुराई से अपना एजेंडा रखा. लेकिन 'नाम शबाना' में वो खुलकर सामने आते हैं. एक सीन में रणवीर और शबाना बात कर रहे होते हैं तो शबाना कुछ ऐसा कहती है कि क्या आपने मुझे इसलिए चुना कि मैं मुसलमान हूं? तो वो कहता हैं हां, क्यों नहीं. तुम अपनी जिंदगी और रिलीजन को जैसे कैरी करती हो वो प्रशंसनीय है. और तुम्हारा धर्म हमारे लिए एक एडवांटेज तो है ही. 'आज के दौर और परिस्थितियों में' हमें तुम जैसे एसेट की बहुत जरूरत है.

फिल्म में शबाना और रणवीर सिंह के कैरेक्टर.
नीरज इस संवाद से जाहिर कर जाते हैं कि अपनी फिल्मों से मॉडरेट छवि वाले मुसलमानों को प्रमोट करते हैं. जैसे शबाना और उसकी मां, जो दोस्त की तरह व्यवहार करती हैं. शबाना अपने हिंदू बॉयफ्रेंड के बारे में मां को हर बात बताती है और उसे कोई आपत्ति नहीं है. जैसे, फिरोज जो सीक्रेट सर्विस एजेंसी का प्रमुख है.
वहीं दूसरी तरह के (पारंपरिक, धार्मिक) मुसलमानों को बुरी आदतों में घोलकर दिखाते हैं. जैसे शबाना के पिता को पियक्कड़ और wife-beater बताया. जैसे 'बेबी' में बिलाल, तौफीक, मौलाना, वसीम के किरदार थे. सब आतंकी. और दंभ भरने वाले आतंकी.
वे अपनी कहानियों में पोलिटिकली करेक्ट होने की कोशिश नहीं करते और पूरी तरह पॉपुलिस्ट अप्रोच दिखाते हैं. अच्छे सिनेमा की ये निशानी नहीं. उनकी फिल्मों को ध्यान से देखने जाने की जरूरत है. जैसे 'नाम शबाना' में वे एक extrajudicial killing करवाते हैं और दर्शक नोटिस भी नहीं करते. फिल्म में शबाना को भर्ती करने से पहले सीक्रेट सर्विस ऑफिसर रणवीर सिंह एक लड़के की हत्या करने में उसकी मदद करता है, न्यायिक प्रक्रिया से परे जाकर. एक जगह वो कहता है - "एजेंसी का हमारा मोटो है National security, at any cost." हालांकि शबाना के इस लड़के की हत्या करने में कोई नेशनल सिक्योरिटी का मसला नहीं होता है.
https://www.youtube.com/watch?v=OP_dV87Vj5Q