
थलापति विजय हमेशा की तरह पूरे स्वैग में हैं. (फोटो-ट्रेलर)
कट टु चेन्नई का एक कॉलेज. यहां JD नाम का प्रोफेसर है. दिन रात शराब के नशे में डूबा रहता है. और स्टाइल के साथ-साथ लोगों को भी मारता है. ज़ाहिर तौर पर वो ये सब कॉलेज और स्टुडेंट्स की बेहतरी के लिए करता है. कॉलेज मैनेजमेंट किसी तरह से उससे पीछा छुड़ाना चाहती है. मगर स्टुडेंट्स में उसका खूब भौकाल है. चेन ऑफ इवेंट्स के बाद JD को भवानी के गढ़ यानी रिफॉर्मेंशन होम में तीन महीने के लिए मास्टर बनाकर भेज दिया जाता है. वहां रहने वाले बच्चे भवानी के लिए जान भी देने को तैयार रहते हैं. पहले तो JD इसे अपनी नौकरी से मिला ब्रेक मानकर एंजॉय करता है. मगर दो बच्चों की मौत उसके भीतर का मास्टर जगा देती है. अब कहानी ये है कि भवानी के ट्रेन्ड किए गुर्गों को JD कैसे उसके चंगुल से आज़ाद करवाता है. और उन्हें ये अहसास दिलाता है कि भवानी अपने फायदे के लिए उनका इस्तेमाल कर रहा है. # विजय VS विजय फिल्म में मास्टर यानी JD का रोल किया है थलपति विजय ने. और भवानी के रोल में दिखाई दिए हैं विजय सेतुपति. बेसिकली ये फिल्म इसी क्लैश ऑफ टाइटन्स के बारे में है. विजय JD के कैरेक्टर में खूब सारा स्वैग और स्टाइल लेकर आते हैं. ये चीज़ उनकी पर्सनैलिटी पर खूब जंचती है. आपको सिनेमाघरों में तालियों और सीटी की आवाज़ सुनकर ये बात आसानी से समझ आ जाएगी. मगर वो फिल्म के इमोशनल सीन्स मे बिलकुल डेप्थ नहीं ला पाते. कई बार तो उनकी आंखों से गिरते आंसू देखकर लगता है कि ये आदमी रो किस पर बात पर रहा है. मगर तीन घंटे की फिल्म में हम इन कुछ सेकंड्स को आसानी से नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ सकते हैं.
दूसरी ओर भवानी के रोल में हैं विजय सेतुपति. भवानी के टीनएज वाला रोल महेंद्रन ने निभाया है. महेंद्रन ने भवानी को बहुत गंभीर रखा था. मगर विजय के सीन में आते ही वो गंभीरता डाइल्यूट हो जाती है. सीरियसनेस है मगर उसे चेहरे पर दिखाने का लोड नहीं लिया गया है. विजय, भवानी को कोल्ड ब्लडेड बना देते हैं. उन्हें देखकर आपको डर भी लगता है और मज़ा भी आता है. मगर आप इस बात से इन्कार नहीं कर पाएंगे कि ये विजय सेतुपति के निभाए सबसे कमज़ोर किरदारों में से है. बावजूद इसके फिल्म का सबसे बड़ा टेकअवे उनकी परफॉरमेंस ही है. आपको लगातार JD और भवानी के आमने-सामने आने का इंतज़ार रहता है. मगर ये चीज़ बिलकुल ही फिल्म के आखिरी हिस्से में होती है. और बड़े ही कम समय के लिए. फिल्म खत्म होने के बाद आपको मलाल रह जाता है कि काश दोनों विजय को एक साथ कुछ और सीन्स में देखने को मिलता.

ये रोल विजय सेतुपति के कैलिबर से थोड़ा कमज़ोर ही है. (फोटो-ट्रेलर)
बाकी फिल्म में मालविका मोहनन, एंड्रिया जेरेमी, शांतनु भाग्यराज और अर्जुन दास जैसे एक्टर्स भी नज़र आते हैं. मगर दिक्कत ये है कि ये एक्टर्स सिर्फ नज़र ही आते हैं. फिल्म में इनके करने के लिए कुछ खास बचता नहीं है. सबसे ज़्यादा निराशा होती है फिल्म की लीडिंग लेडी मालविका को देखकर. वो फिल्म के चार-पांच गैर-ज़रूरी सीन्स में दिखाई देती हैं. अगर मास्टर से उनका किरदार निकाल दें, तो ये चीज़ फिल्म के फेवर में काम कर जाएगी. इससे फिल्म की लंबाई थोड़ी कम हो जाएगी. # काश ये फिल्म भी होती 'कुट्टी' स्टोरी! 'मास्टर' जब शुरू होती है, तब से लेकर आखिर तक फिल्म में एक ट्यून बैकग्राउंड में चलता है. उसके लिरिक्स अंग्रेज़ी में है- दे कॉल मी मास्टर. वो सुपरफन ट्यून है. वो अकेली धुन विजय का पूरा पर्सोना कैरी करती है. मैं इसे लिखने से पहले वो धुन ढूंढ रहा था. अलग से तो वो मुझे नहीं मिली, मगर वो गाना 'मास्टर' के टीज़र में सुना जा सकता है. फिल्म का सबसे बुरा गाना है कुट्टी स्टोरी. वो गाना फिल्म में ऐसे समय पर आता है, मानों डायरेक्टर के पास विज़ुअल्स खत्म हो गए हों. उस पूरे गाने में आपको सेम विज़ुअल्स देखने को मिलते हैं. फिल्म में वो पहला मौका है, जब आप बोरियत महसूस करते हैं. मगर दिक्कत ये है कि उस गाने के बारे में इतना कुछ सोचने के बाद जब स्क्रीन पर नज़र ले जाते हैं, तब भी वही गाना चल रहा होता है. 'मास्टर' का म्यूज़िक पॉपुलर कंपोज़र अनिरुद्ध रविचंद्र ने किया है. जब आप पूरी फिल्म खत्म कर लेते हैं, तब आपको लगता है कि काश ये फिल्म भी होती कुट्टी स्टोरी! # क्या रहा मास्टर को देखने का ओवरऑल एक्सपीरियंस? जब आप थिएटर से निकलने के बाद खुद से ये पूछेंगे कि आखिरी मास्टर कहना क्या चाहती थी, तो उसका आपको पॉज़िटिव जवाब ही मिलेगा. एक आदमी है, जो नशे और एक गुंडे की गिरफ्त में कैद बच्चों को मुक्त करना चाहता है. क्योंकि वो बच्चे उस गुंडे की शातिर पॉलिटिक्स के शिकार हैं. मगर ये सब करने में फिल्म के हीरो के सामने एक चैलेंज है. वो ये कि उसे ये सब डायलॉग्स के माध्यम से करना है. और प्रीची यानी ज्ञान बांटने जैसा साउंड भी नहीं करना है. 'मास्टर' ये चीज़ कायदे से कर ले जाती है. दिक्कत बस ये आती है कि ये फिल्म इतनी सी बात कहने के लिए ढेर सारा समय ले लेती है. मास्टर का पहला हाफ एंजॉएबल है. मगर दूसरा हिस्सा थोड़ा ढीला पड़ जाता है, जो ओवरऑल फिल्म का एक्सपीरियंस झिलाऊ बना देता है.

'मास्टर' से इंडस्ट्री को उम्मीदें हैं कि वो लोगों को फिर से सिनेमाघरों तक खींच लायेंगी. (फोटो-ट्रेलर)
# फिल्म से कुछ शिकायतें भी हैं, जिन्हें शॉर्ट में बताने की कोशिश करेंगे # हमारी पहली शिकायत है विजय सेतुपति को लेकर. जब आप विजय सेतुपति जैसे एक्टर को अपनी फिल्म में कास्ट कर रहे हैं, तब वो रोल भी उनके प्रतिष्ठा और टैलेंट के अनुरूप होना चाहिए. वरना वही होता है, जो इस फिल्म में विजय सेतुपति के साथ हुआ. वो तो भला हो उस आदमी के एक्टिंग टैलेंट का, जो उन्होंने इसे भी मज़ेदार बना डाला है.
# 'मास्टर' से हमारी दूसरी शिकायत है सीन्स कॉपी किए जाने का. फिल्म में दो ऐसे सीन्स हैं, जिन्हें देखकर आपको थलपति विजय की ही पिछली फिल्में याद आ जाएंगी. पहला सीन है इंटरवल से ठीक पहले होने वाला कबड्डी मैच. अगर आपने विजय की 2004 में आई फिल्म 'घिल्ली' देखी है, तो आपको ये समझने में देर नहीं लगेगी कि कैसे पुराने हिट सीन्स को कैश करने के लिए उन्हें सुपरस्टार्स की नई फिल्मों में जबरदस्ती ठूंस दिया जाता है. 'घिल्ली' जहां पूरी तरह से कबड्डी के ऊपर बेस्ड फिल्म थी, वहीं 'मास्टर' में कबड्डी मैच आउट ऑफ ब्लू आ जाता है. और कमाल की बात ये कि इस सीन में आपको म्यूज़िक भी 'घिल्ली' वाला ही सुनाई देता है. 'मास्टर' में विजय की फिल्म 'थुपाकी' का भी बड़ा क्लीयर रेफरेंस देखने को मिलता है. 'थुपाकी' वही फिल्म है, जिससे प्रेरित होकर अक्षय कुमार की फिल्म 'हॉलीडे' बनी थी.
कुल मिलाकर 'मास्टर' एक ऐसी फिल्म है, जिसे देखने के दौरान आपके पकते नहीं हैं मगर थक ज़रूर जाते हैं. किसी भी फिल्म को दो भागों में तोड़कर नहीं देखना चाहिए. ना ही वैसे बात की जानी चाहिए. मगर मास्टर को देखकर लगता है कि तीन घंटे के अंतराल में हमने दो अलग-अलग फिल्में देख डाली हैं. जिसमें से पहले वाली कतई एंटरटेनिंग थी और दूसरी वाली थकाऊ.