Emergency (2025)
Director: Kangana Ranaut
Cast: Kangana Ranaut, Anupam Kher, Shreyas Talpade
Rating: 2 Stars (**)
Emergency - मूवी रिव्यू
कैसी है Kangana Ranaut के निर्देशन में बनी Emergency, जानने के लिए रिव्यू पढ़िए.

Kangana Ranaut के निर्देशन में बनी फिल्म Emergency को सेंसर बोर्ड ने लंबे वक्त से रोक रखा था. फिल्म में खालिस्तानी मूवमेंट से जुड़े एक बड़े हिस्से पर आपत्ति दर्ज करवाई गई थी. वो सीन काटे गए. उसके बाद फिल्म 17 जनवरी को रिलीज़ हुई है. फिल्म कैसी है, उसके मज़बूत और कमज़ोर पहलू क्या हैं, अब उन पर बात करेंगे.
फिल्म का पहला शॉट. फ्रेम पर लिखा आता है, ‘साल 1929. आनंद भवन’. नेहरू परिवार का घर. इंदिरा नाम की बच्ची अपने दोस्तों के साथ बगीचे में खेल रही है. बच्चे भागते हुए घर में आते हैं. हम कुछ महिलाओं को देखते हैं. उनमें से एक इंदिरा गांधी की बुआ विजयलक्ष्मी हैं. उनके बगल में खड़ी वो महिलाएं हैं जिनका क्रेडिट्स में Extras वाली प्लेट के नीचे नाम आता है. कायदे से आपका सबसे पहले ध्यान विजयलक्ष्मी पर जाना चाहिए था. लेकिन आप उन Extras को देख रहे हैं. उसकी वजह है कि अलग-अलग गुटों में बंटी इन महिलाओं के सिर एक ही दिशा में घूम रहे हैं. जैसे उनसे कहा गया हो कि आपको बस बातें करने की एक्टिंग करनी है. बातें नहीं करनी, बस एक्टिंग करनी है. खैर दो सीन बाद इंदिरा अपने दादा जी के पास जाती हैं. वो उन्हें इंद्रप्रस्थ की कहानी सुनाते हैं. छोटी इंदिरा के दिमाग में बचपन से इस बात का बीज पड़ जाता है कि दिल्ली जिसकी हुई, ये देश उसका हुआ.

स्क्रीनप्ले के स्ट्रक्चर के लिहाज से इस पॉइंट को Inciting Incident कहते हैं. यानी वो पॉइंट जहां से आपके प्रॉटैगनिस्ट की यात्रा शुरू होती है या उसके जीवन में कुछ बदलाव आता है. ये Inciting Incident का मज़बूत नमूना नहीं मगर आप आगे बढ़ते हैं. मगर आगे का सफर सुगम नहीं होने वाला. ‘इमरजेंसी’ की राइटिंग आगे वही गलती करती है जो ‘सैम बहादुर’ ने की थी. फिल्म बेसिक स्क्रीनराइटिंग के स्ट्रक्चर का पालन करने की जगह बस एक किस्से से दूसरे किस्से पर कूदती है. किसी लार्जर दैन लाइफ शख्सियत के जीवन में बहुत कुछ घटा, उनकी पूरी कहानी दिखाने के लिए फिल्म छोटा मीडियम पड़ जाता है. ऐसे में आप सीन को एंगेजिंग बनाने की जगह बस उसे रख देते हैं. उस सीन से पहले क्या घटा, उसके बाद क्या हो रहा है, उससे कोई सरोकार नहीं.
बस छूकर निकल जाने से नुकसान ये है कि आप अपने किरदारों को Humanise नहीं कर पाते. वो इतिहास के पन्नों से निकले पात्र बनकर रह जाते हैं. वो ऐसे इंसान क्यों हैं, उनके आंतरिक मतभेद क्या हैं, ऐसे इंसान बनने की पीछे कैसी नींव पड़ी है, इन सबको जगह ही नहीं मिलती. नतीजतन आप उन किरदारों के लिए कुछ महसूस नहीं कर पाते. कोई रिश्ता नहीं बनता. और जब कुछ महसूस ही नहीं हो रहा, तो आप ऐसे इंसानों की कहानी क्यों जानना चाहेंगे. फिल्म से दूसरी शिकायत ये है कि अधिकांश किरदारों को बस सिंगल नोट में समेटकर रख दिया गया. जैसे आप संजय गांधी को गुस्से में देखते हैं. फिल्म की राइटिंग ये सुनिश्चित करती है कि आप अगले हर सीन में उस आदमी को इसी तरह देखें. उसके किसी दूसरे शेड से आपको परिचित नहीं करवाया जाएगा. ऐसा ही जे.पी. नारायण और अटल बिहारी वाजपेयी के साथ भी होता है.

जब आप सेफ खेलने की कोशिश करते हैं और अपने किरदारों को एक ही रोशनी में दिखाना चाहते हैं, तो ऐसे में एक्टर्स के पास भी अपनी रेंज दिखाने का कोई स्कोप नहीं होता. यही वजह है कि ‘इमरजेंसी’ कंगना रनौत, अनुपम खेर और श्रेयस तलपड़े के सबसे औसत कामों में से एक है. फिल्म में बहुत खामियां हैं. बाकी ऐसा नहीं कि उसके पास अपने मोमेंट नहीं. जैसे जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री आवास छोड़ रही होती हैं तब वहां काम करने वाले लोग भावुक हो जाते हैं. वो कहते हैं कि हमें अपने साथ ले चलिए, हम फ्री में काम करेंगे. यहां आपको किरदार के ह्यूमन साइड का एक पहलू देखने को मिलता है. इसी तरह का एक और सीन आता है जब इंदिरा बिहार जाती हैं. यहीं से ‘आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा जी को लाएंगे’ नारे का जन्म होता है. यहां फिल्म अपनी नायिका को गर्दन ऊपर कर के नहीं देखती, बल्कि उसे Eye Level पर लेकर आती है. लेकिन मसला यही है कि ऐसे मोमेंट्स बस गिनती के हैं.
‘इमरजेंसी’ में हिन्दी के अलावा कई किरदार बांग्ला, फ्रेंच और तेलुगु भी बोलते नज़र आते हैं. कुछ जगहों पर ऐसे डायलॉग्स को हिन्दी में डब किया गया. लेकिन कई मौकों पर ओरिजनल भाषा को रहने दिया गया. सीन को पूरी तरह से समझने के लिए सब्टाइटल होते तो ज्यादा बेहतर होता, लेकिन ‘इमरजेंसी’ से ये हमारी सबसे हल्की शिकायत है.
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