कॉल सेंटर की पूजा
आपको याद होगा कि कभी अखबारों में 'मीठी बातें कीजिए' वाले ऐड्स आया करते थे. शायद अब भी आते हो. जहां ढेरों नंबर लिखे होते थे और जिनपर लगने वाली कॉल बड़ी महंगी हुआ करती थी. जहां आपकी बात किसी मीठी आवाज़ वाली लड़की से होती थी. ऐसे ही एक 'फ्रेंडशिप कॉल सेंटर' में काम करता है करम उर्फ़ पूजा. करम के पास एक अनोखा हुनर है. वो लड़की की आवाज़ बड़ी कामयाबी से निकाल लेता है. वो भी ऐसे दिलकश अंदाज़ में कि क्या लड़कियां भी कर पाती होंगी! इसी हुनर के चलते रामलीला में सीता का रोल उसके नाम फिक्स है. और बेरोज़गार करम की यही यूएसपी उसे इस कॉल सेंटर में नौकरी दिलवा गई है. यहां पूजा बनकर वो रात-रात भर अपने अजीब-अजीब क्लाइंट्स से बात करता है. और पाता है कि अकेलेपन के मारे लोगों की एक पूरी दुनिया है. एक भीड़ है जो किसी सुनने वाले के सामने अपने आप को उड़ेलकर रख देना चाहती है.करम बचपन से लड़कियों की आवाज़ निकालने में माहिर है.
इन्हीं क्लाइंट्स में से कुछेक क्लाइंट्स पूजा के प्यार में पड़ जाते हैं. हर वरायटी के लोग. एक विधुर आदमी, एक बाल ब्रम्हचारी युवक, अपनी बीवी से त्रस्त एक शायर मिज़ाज कॉन्स्टेबल, एक रंग-बिरंगा मिलेनियल लड़का... और तो और लड़कों से धोखे खा चुकी एक लड़की भी.
फिर इस प्यार का, उससे उपजी तकरार का, जेंडर के फ्यूजन का और तगड़े कन्फ्यूजन का क्या हश्र होता है ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी. और कुछ बताएंगे तो आपका मज़ा मारा जाएगा.
पूजा भारी कि करम?
कहना न होगा कि आयुष्मान हर बार की तरह इस बार भी जाबड़ काम कर गए हैं. उनका पूजा बनना बेहद एफर्टलेस लगता है. पूजा के क्लाइंट सिर्फ उसकी आवाज़ सुन रहे होते हैं लेकिन हम दर्शक उसे देख भी रहे होते हैं. तो ऐसे में पूजा के फेशियल एक्सप्रेशंस, उसकी देहबोली, ख़ास तौर से भवें मटकाना आयुष्मान ने बेहद सहजता से और बिना फूहड़ बनाए किया है. उन्हें पूरे मार्क्स. उनकी कॉमिक टाइमिंग दिन ब दिन उम्दा होती जा रही है. वो पूरी शिद्दत से जोक की पंचलाइन डिलीवर करते हैं.आयुष्मान जितने ही नंबर अन्नू कपूर को भी देने पड़ेंगे. ये आदमी कमाल है बॉस! करम के पिता के रोल में गर्दा काट दिहिस. ख़ास तौर से उनके उर्दू से जूझने वाले सीन. फुल पैसा वसूल. एक दो सीन तो ऐसे हैं कि उनसे नज़र नहीं हटती. जैसे वो सीन जब वो पूजा से मिलने जाते हैं और ज़ुबैदा नाम की खातून की लाइफ हिस्ट्री से दो-चार होते हैं.
अन्नू कपूर, मथुरा वाला एक्सेंट ग़ज़ब की सहजता से पकड़ते हैं.
विजय राज के लिए अलग से तारीफी अल्फाज़ खर्चने की ज़रूरत नहीं है. वो हमेशा की तरह मज़ेदार हैं. उनकी शायरी में भी दम है और एक्टिंग में भी.
नुसरत भरुचा ने अपने हिस्से आया काम, जो ज़्यादातर वक्त सुंदर लगना ही था, पूरी ईमानदारी से किया है. हां वो जब-जब पश्चिमी यूपी का एक्सेंट पकड़ने की कोशिश करती हैं, काफी हद तक कामयाब रहती हैं. अभिषेक बैनर्जी, निधि बिष्ट, राजेश शर्मा, राज भंसाली, मनजोत सिंह सब लोग जमे हैं, जंचे हैं. स्पेशल मेंशन नुसरत की दादी का रोल करने वाली एक्ट्रेस का करना होगा जिन्होंने एक-दो सीन में ही रंग जमा दिया.
पंच दर पंच
फिल्म जिस डिपार्टमेंट में स्कोर करती है वो है इसकी राइटिंग. ढेर सारे पंच आते रहते हैं जो कभी आपको गुदगुदाते हैं तो कभी पेट पकड़कर हंसने पर मजबूर करते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह डायरेक्टर राज शांडिल्य हैं. उन्होंने फिल्म डायरेक्ट करने के साथ ही स्क्रीन प्ले और डायलॉग्स भी लिखे हैं. राज के बारे में बता दें कि वो पहले मशहूर शो 'कॉमेडी सर्कस' में स्क्रिप्ट लिखा करते थे. सैकड़ों शो किए है उन्होंने वहां. इसलिए एक अच्छी पंचलाइन का महत्व जानते हैं. और वही ह्यूमर अपनी फिल्म तक भी लाए हैं. चाहे 'क़ानून से छेड़छाड़' वाला पंच हो या पाकिस्तानी क्रिकेटर्स के नामों का फनी इस्तेमाल. राइटिंग फ्रेश और मज़ेदार है.संगीत ठीक-ठाक है. 'राधे-राधे' गाने के बीट्स ठीक हैं कोरियोग्राफी कमज़ोर.
म्युज़िक कैसा है?
संगीत एक्सेप्शनल नहीं है, तो निराश भी नहीं करता. एक दो गाने अच्छी बीट लिए हुए हैं और याद भी रहते हैं. जैसे 'राधे-राधे' या 'इक मुलाकात'. जोनिता गांधी का गाया 'दिल का टेलीफोन' बहुत अच्छा लगता है. इनमें से एकाध गाना यकीनन पार्टी सॉंग बन जाने वाला है. मराठी गाना 'ढगाला लागली कळ' प्रमोशन में तो यूज़ हुआ लेकिन फिल्म में उसका न होना खटकता है.क्या खटकता है?
एक दो सेक्सिस्ट, बॉडी शेमिंग वाले जोक्स अगर न होते तो बेहतर रहता. मी टू जैसे सीरियस कैम्पेन को हल्के तौर पर पेश किए जाने से भी बचा जा सकता था. एक और बात. ये फिल्म सिर्फ कॉमिकल सिचुएशन्स पर ज़ोर रखती है और ऐसे कॉल सेंटर्स में काम करने वाले लोगों की ज़िंदगी में गहरा झांकने से परहेज़ करती है. वो भी होता तो शायद ठीक रहता.ऐसी लाइंस पर कॉल करने वालों की तनहाई को भी फिल्म ढंग से एक्सप्लोर नहीं करती. महज़ पासिंग रिमार्क्स देकर गुज़र जाती है. एकाध जगह आयुष्मान का कहा कोई डायलॉग ज़रूर इसका हिंट देता है लेकिन बस उतना ही. जैसे उनका ये कहना कि 'दुनिया में जितनी भीड़ बढ़ती जा रही है, लोग अकेले होते जा रहे हैं'. इस अकेलेपन को फिल्म बस दूर से छूती है, इसके अंदर नहीं उतरती. शायद ये फिल्म को सीरियस न बनने देने की मेकर्स की डेलीब्रेट कोशिश हो. पर ये भी है कि दोनों ही डिपार्टमेंट संभालते हुए अच्छी फ़िल्में बनाई भी हैं बॉलीवुड ने. जैसे आयुष्मान की ही 'बधाई हो', 'विकी डोनर' या 'शुभमंगल सावधान'. 'ड्रीम गर्ल' ऐसा कुछ नहीं करती. वो सिर्फ और सिर्फ कॉमेडी पर फोकस रखती है.
आयुष्मान के दोस्त के रोल में मनजोत सिंह मस्त हैं.
बहरहाल, फिल्म अपनी खामियों के बावजूद एंटरटेन करती है. फ्रेंडशिप कॉलिंग जैसा सब्जेक्ट होने के बावजूद वल्गर नहीं है. सपरिवार भी देखी जा सकती है. देख आइए. निराश नहीं होंगे.
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