Do Aur Do Pyaar
Director: Shirsha Guha Thakurta
Cast: Vidya Balan, Pratik Gandhi, Ileana D’Cruz, Sendhil Ramamurthy
Rating: 3.5 Stars
मूवी रिव्यू - दो और दो प्यार
‘दो और दो प्यार’ आपसी रिश्तों और प्यार पर बनी एक मैच्योर फिल्म है. जो किसी भी तरह की नैतिकता का ज्ञान झाड़ने से बचती है.

ग्राउचो मार्क्स एक अमेरिकी राइटर, कॉमेडियन और एक्टर थे. उन्हीं के कोट से ‘दो और दो प्यार’ की शुरुआत होती है: Marriage is an institution, but who wants to live in an institution. इसका रफ ट्रांसलेशन कुछ ऐसा होगा कि शादी एक सामाजिक व्यवस्था है, लेकिन इस व्यवस्था में रहना कौन चाहे. थिएटर की लाइट डिम होती है. सफेद परदे पर रोशनी चमकती है और हम काव्या और विक्रम से मिलते हैं. दोनों कैफ में बैठे हैं. आंखों में ऐसी चमक है कि कॉलेज के बच्चों जैसा प्यार हो. इन दोनों से बिल्कुल अलग हैं नोरा और अनिरुद्ध. दोनों के बीच हंसी-मज़ाक, सब कुछ है, लेकिन उन्हें प्यार ने साथ बांधा हुआ है.
कहानी कुछ मिनट आगे बढ़ती है. अब काव्या और अनिरुद्ध एक छत के नीचे हैं. दोनों एकदम सादा, सतही किस्म की बातें कर रहे हैं. पहली नज़र में एक-दूसरे के फ्लैटमेट लगते हैं. फिर सिनेमैटोग्राफर कार्तिक विजय का कैमरा घर की दीवार दिखाता है. जो अनिरुद्ध और काव्या की फोटोज़ से सजा हुआ है. काव्या और अनिरुद्ध की शादी 12 साल पहले हुई थी. लेकिन अब दोनों एक-दूसरे से इतने कट चुके हैं कि सारी बातचीत बस हाल-चाल तक ही सिमटकर रह गई. एक दिन काव्या को खबर मिलती है कि उसके दादा जी नहीं रहे. वो और अनिरुद्ध ऊटी में उसके घर पहुंचते हैं. इस दौरान पुराने दिनों को रीक्रिएट करते हैं. आंखों में वही चमक, हंसी में वही पुरानी खनक दिखती है. वापस मुंबई लौटने पर दोनों के मन में द्वंद्व चल रहा है. ये दो लोग खुद के इमोशन्स को समझकर क्या करेंगे, इन चारों ज़िंदगियों में क्या उथल-पुथल मचती है, आगे की फिल्म वही कहानी बताती है. बगैर किसी गैर-ज़रूरी ड्रामे के.

इन चारों लोगों के रिश्ते में जो परिवर्तन आते हैं, वो आपको फिज़िकल स्पेस में भी नज़र आते हैं. जैसे एक शॉट में काव्या और अनिरुद्ध अलग-अलग कमरों में हैं. उन्हें ऐसे शूट किया गया है कि बीच की दीवार साफ नज़र आती है. ये शॉट नया नहीं लेकिन हर बार अपना काम कर देता है. ठीक ऐसे ही एक पॉइंट पर विक्रम और काव्या के बीच खटपर होने लगती है. काव्या उसके लाइटिंग रूम में बैठी है. दोनों एक दूसरे के सामने हैं. और उनके बीच लड़की का फ्रेम है. जो दोनों के दिल की दूरी दर्शा रहा है.
सिनेमा ने हम सभी को प्यार का एक फिक्स आइडिया बेचा है. शाहरुख ने फलां फिल्म में काजोल के लिए ये किया, तो हर प्रेमी के लिए वो नियम बन गया. या सलमान ने प्रीति ज़िंटा के लिए ऐसा किया, तो फिल्म देखने वाले को भी वैसे ही पेश आना चाहिए. प्यार सादा होने के साथ-साथ कितना पेचीदा हो सकता है, ये इस पूरी जेनरेशन को सिनेमा ने बताया ही नहीं. दो लोगों के प्यार में रहने के लिए उन्हें प्यार से ज़्यादा की ज़रूरत पड़ती है. शिर्षा गुहा ठाकुरता के निर्देशन में बनी फिल्म यही दर्शाने की कोशिश करती है. उन्होंने अपनी पहली ही फिल्म में जिस सेंसीबिलिटी के साथ इस सब्जेक्ट को संभाला है, वो अपने आप में तारीफ के काबिल है.

‘दो और दो प्यार’ की सबसे अच्छी बात ये है कि यहां कोई हीरो या विलन नहीं. बस इसके केंद्र में कुछ लोग हैं जो हम-आप जैसे हैं. वो आपस में बात नहीं करते, और फिर उन चीज़ों के फट पड़ने का इंतज़ार करते हैं. उनके प्यार जताने, बताने और दिखाने के तरीके क्यों एक-दूसरे से जुदा है, क्यों दूसरा इंसान पहले वाले की तरह प्यार नहीं करता, क्यों प्यार शब्द की एक्स्पेक्टेशन ही दो लोगों के दिमाग में बिल्कुल अलग है, फिल्म बिना जज किए ऐसे पहलुओं को छूती है. जैसे फिल्म के अंत में काव्या अपने पिता से शिकायत करती है कि उन्होंने खुलकर प्यार क्यों नहीं दिखाया. उस वजह से उसे जहां भी बाहर प्यार मिला, उसने कसकर पकड़ लिया. बड़े होकर उसके प्यार करने के तरीके में उसके बचपन का दुख छुपा था.
ठीक उसी तरह अनिरुद्ध पर ज़िम्मेदारियां आईं. पिता की डेथ के बाद घर को संभाला. उनके काम को आगे बढ़ाया. इस बीच म्यूज़िक, हंसी-मज़ाक सब पीछे छूटता गया. और उसे पता भी नहीं चला कि नाक पर एक लूज़ फ्रेम के चश्मे ने उन सब की जगह ले ली. एक सीन में काव्या, अनिरुद्ध से कहती है कि तुम बदल गए हो. और वो पूछता है कि तुम बिल्कुल भी नहीं बदली. ये एक लाइन दोनों के रिश्ते का निष्कर्ष बन जाती है. फिल्म किसी को भी सही या गलत करार नहीं देती. वो बस आपको ऐसे इंसानों की कहानी दिखा रही है जो अपनी भावनाओं में उलझे हुए हैं. चूंकि ये काव्या और अनिरुद्ध की कहानी है, उस वजह से नोरा और विक्रम को ज़्यादा जगह नहीं मिलती. इलियाना डी क्रूज़ और सेंधिल रामामूर्ति को नोरा और विक्रम के रोल में भले ही कम जगह मिली हो, लेकिन वो हर सीन में आपका ध्यान खींचते हैं. अपने किरदारों को प्रॉपर इमोशनल डेप्थ देते हैं.

हालांकि इस शो के स्टार विद्या बालन और प्रतीक गांधी ही हैं, जिन्होंने काव्या और अनिरुद्ध के रोल किए. अनिरुद्ध एक बंगाली लड़का है. बीच-बीच में डायलॉग बोलते वक्त प्रतीक का गुजराती लहजा झलकने लगता है. लेकिन उनकी इमोशनल रेंज इतनी मज़बूत है कि किसी भी बात पर ध्यान ही नहीं जाता. खासतौर पर उन्होंने जिस ढंग से खामोशी का इस्तेमाल किया है. आपकी नज़र उस आदमी की आंखों पर पड़ेगी और उसके बिना बोले आप समझ जाएंगे कि वो क्या महसूस कर रहा है. किसी भी पॉइंट पर प्रतीक अपनी भावनाओं को ड्रामाटाइज़ नहीं करते, और ना ही अपनी ऑडियंस पर थोपने की कोशिश करते हैं. उनका नियंत्रण में रहना ही यहां उनके काम की खासियत है.
बाकी विद्या बालन की इंटेंसिटी पर जितनी बात की जाए, उतनी ही कम होगी. विद्या सीमित डायलॉग्स और अपनी आंखों के भरपूर इस्तेमाल के साथ सब कुछ साफ कर देती हैं. कि काव्या का अपने परिवार वालों के साथ क्या संबंध रहा. वो विक्रम से प्यार करते हुए भी एक अजीब-सी उलझन में क्यों है. फिल्म के इंटेंस सीन्स में कई जगह विद्या को बस सामने वाले की बात पर रिएक्ट करना था. आपको उनकी प्रतिक्रिया देखकर ऐसा नहीं लगेगा कि वो बस रिएक्ट करने के इंतज़ार में थीं. वो अपने किरदार, और उसकी भावनाओं को लेकर कंट्रोल में दिखती हैं. उन्हें पता है कि इस समय उनके किरदार की क्या मनोदशा है. बस विद्या उसे अच्छे से समझकर रिएक्ट करती हैं. एक्टिंग के उस्ताद कहते हैं एक्टिंग करने का सबसे अच्छा तरीका है कि एक्टिंग मत करो. विद्या अपने काम से उस बात को सार्थक करती हैं.
‘दो और दो प्यार’ प्यार, आपसी रिश्तों पर बनी एक मैच्योर फिल्म है. जो किसी भी तरह का ज्ञान झाड़ने से बचती है. वो बस अपने किरदारों को सिर्फ एक चश्मे से देखती है, जैसा वो डिज़र्व भी करते हैं, एक आम इंसान की तरह.
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