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मूवी रिव्यू - धोखा: राउंड द कॉर्नर

सॉलिड थ्रिलर फिल्मों में एक चीज़ तय होती है. ऐसे मोमेंट्स जहां आपके किरदार के साथ कुछ भी हो सकता है. उसको लेकर वो और आप, दोनों ही टेंशन में रहते हैं. ‘धोखा’ के किरदारों के लिए आप ऐसा महसूस नहीं करते.

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बस ऐसा ही अचरज भरा एक्सप्रेशन फिल्म आपसे चाहती है. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता.

1950 में एक कमाल की जापानी फिल्म आई थी. ‘रशोमोन’. फिल्म को बनाया था अकीरा कुरोसावा ने. ‘रशोमोन’ के किरदारों के साथ कुछ घटता है. लेकिन उन सभी के पास उस घटना के अलग-अलग वर्ज़न होते हैं. जो आपस में मेल नहीं खाते. ऐसे में सच क्या है. ‘रशोमोन’ का असर ऐसा था कि एक टर्म को ईजाद कर दिया गया, रशोमोन इफेक्ट. जहां सबके पास सच के अपने-अपने वर्ज़न हों. इस इफेक्ट पर आधारित कई फिल्में बनी हैं.  

आज रशोमोन इफेक्ट पर बात करने की वजह है एक हालिया रिलीज़. ‘धोखा: राउंड द कॉर्नर’. फिल्म को लिखा और डायरेक्ट किया है कुकी गुलाटी ने. वो इससे पहले ‘प्रिंस’ और ‘द बिग बुल’ जैसी फिल्में भी बना चुके हैं. नीरज सिंह ने फिल्म के लिए एडिशनल डायलॉग लिखे हैं. आर माधवन, अपारशक्ति खुराना और दर्शन कुमार मुख्य किरदारों में हैं. साथ ही खुशाली कुमार ने अपना फीचर फिल्म डेब्यू किया है.

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फिल्म में सबकी कहानी का वर्ज़न एक-दूसरे से अलग है. 

फिल्म में माधवन और खुशाली एक कपल बने हैं. यथार्थ और सांची इनके नाम हैं. कुछ समय से इनकी शादीशुदा ज़िंदगी ऑफ ट्रैक चल रही है. तभी एक दिन उनके घर एक फरार आतंकी पहुंच  जाता है. घर पर अकेली सांची को वो बंधक बना लेता है. न्यूज़ पर ‘पूछता है भारत’ चल रहा होता है और उसी न्यूज़ से यथार्थ को पता चलता है कि उसकी बीवी मुसीबत में है. या फिर शायद नहीं. क्योंकि वो अपनी बिल्डिंग के बाहर तैनात पुलिस को कुछ और कहानी बताता है. सांची खुद भी खतरा है और खतरे में भी है. पुलिस क्या करेगी, कौन सच बोल रहा है या नहीं, आतंकी इनके घर में ही क्यों आकर घुसा, आगे पूरी फिल्म यही पता करने की कोशिश करती है.

फिल्म जिस वादे पर आपको सिनेमाघरों की सीट तक बुलाती है, सीधा उस पर पहुंचती है. शुरुआती क्रेडिट्स में हम देखते हैं कि सांची और यथार्थ किसी ज़माने में खुश रहते थे. लेकिन अब नहीं. फिर हक गुल नाम का एक आतंकवादी आकर सांची को हॉस्टेज बना लेता है. उसके बाद फिल्म बस एक पॉइंट स्थापित करती है. उसे थोड़ी देर में ही फिर से खारिज कर देने के लिए. फिल्म का लगभग पूरा फर्स्ट हाफ इसी में गुज़रता है. आप समझने की कोशिश करते हैं कि चल क्या रहा है. ये भले ही आपको अपनी सीट के ऐज पर नहीं रखता. लेकिन नेरेटिव को कुछ हद तक इंट्रेस्टिंग बनाकर रखता है.  

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फिल्म किसी भी पॉइंट पर ग्रिपिंग नहीं लगती. 

‘धोखा’ एक थ्रिलर होने का दावा करती है. आपने फर्स्ट हाफ जितना समय दिया, कि चीज़ें शायद आगे चलकर ग्रिपिंग बनेंगी. फर्स्ट हाफ तो चलो बिल्ड अप में चला गया. लेकिन चीज़ें ग्रिपिंग नहीं बनती. ढूंढने पर भी फिल्म के हिस्से कोई हाई पॉइंट नहीं आते. जो आपको सिनेमाघर से बाहर आने के बाद भी याद रहें. सॉलिड थ्रिलर फिल्मों में एक चीज़ तय होती है. ऐसे मोमेंट्स जहां आपके किरदार के साथ कुछ भी हो सकता है. उसको लेकर वो और आप, दोनों ही टेंशन में रहते हैं. कि जाने क्या घट जाए उसके साथ. ‘धोखा’ के किरदारों के लिए आप ऐसा महसूस नहीं करते. वो कनेक्ट मिसिंग रहता है.  

ऐसे में घटने वाली हर घटना को आप सिर्फ एक दर्शक की तरह ही देख पाते हैं. किरदारों की दुनिया में इंवेस्ट नहीं हो पाते. नतीजतन किरदारों के साथ कुछ भी हो, आपको कोई खास फर्क नहीं पड़ता. कायदे से सबसे पहले आपको ऑडियंस को अपने किरदारों से मिलवाना चाहिए. उनकी दुनिया से रूबरू करवाना चाहिए. फिर घटनाओं की एंट्री हो. फिल्म सीधा ही अपने बड़े ईवेंट पर आती है. और फिर फर्स्ट हाफ जो भी बिल्ड अप करने की कोशिश करता है, उसका काम सेकंड हाफ आकर बिगाड़ देता है.  

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अपरशक्ति खुराना ने फिल्म में हक गुल नाम के एक आतंकी का रोल निभाया है. 

‘धोखा’ आपको चौंकाने के लिए शॉक वैल्यू का इस्तेमाल करना चाहती है. यानी पूरी फिल्म में कुछ खास न घटा हो और फिर क्लाइमैक्स में अचानक बहुत सारे ट्विस्ट और टर्न आपकी ओर फेंक दिए जाएं. लेकिन वो इस कदर आपके पास आते हैं कि कैच करने का जी नहीं करता. पूरी फिल्म सीधी-सीधी चलती है और क्लाइमैक्स में आकर अचानक सारे राज़ एक झटके में खोल दिए. ऐसे राज़, जो कोई झटका नहीं दे पाते. मेरे लिए ‘धोखा’ एक अच्छी थ्रिलर साबित नहीं हो पाई.  

फिल्म कुछ जगह गैर ज़रूरी कमेंट्री में भी खर्च होती है. मतलब वो कमेंट्री गैर ज़रूरी नहीं, बस वो नेरेटिव में कुछ नहीं जोड़ती. मतलब वो हिस्सा अगर पूरी तरह फिल्म से गायब रहता तब भी किरदारों और उनकी दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता. फिल्म आज की मीडिया पर कमेंट्री करती दिखती है. कैसे मीडिया हर चीज़ को सनसनी बनाकर दिखाना चाहती है. लोग कैसे सिर्फ हैशटैग और कीवर्ड बनकर रह गए हैं. ये सारे पॉइंट जायज़ हैं. बस मेरा कहना है कि इन्हें किसी और कहानी में इस्तेमाल किया जा सकता था.  

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अगर थ्रिलर समझकर फिल्म देखने जाएंगे तो संभव है कि आपके साथ ‘धोखा’ हो. 

सच और झूठ के बीच का बारीक फर्क. फिल्म अपनी इस फिलॉसफी को भी पूरी तरह जस्टिफाई नहीं कर पाती. जैसे अंत में सभी मेजर किरदारों के सच हमारे सामने आते हैं. सिवाय हक गुल के. उसके सच के धागे कभी जोड़े नहीं जाते. एक्टिंग के स्तर पर बात करें तो किसी का भी काम यहां एक्स्ट्राऑर्डनेरी नहीं. मतलब इन एक्टर्स ने बेटर रोल्स किए हैं. इसका ये भी मतलब नहीं कि ओवर द टॉप काम किया हो. सभी ने ठीक काम किया है. खुशाली कुमार की पहली फिल्म थी. कुछ जगह उन्हें देखकर लगता है कि डायलॉग बोलने की कोशिश कर रही हैं.

कुल जमा बात ये है कि ‘धोखा राउंड द कॉर्नर’ थ्रिलर और ड्रामा, दोनों के लेवल पर पास नहीं हो पाती. बाकी आप खुद फिल्म देखिए और तय कीजिए. 

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