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वेब सीरीज़ रिव्यू: डेल्ही क्राइम सीज़न 2

सीरीज़ पुलिस का मानवीय चेहरा दिखाने की कोशिश करती है. उसकी स्टीरियोटाइप इमेज को तोड़ती है.

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कैसा है डेल्ही क्राइम सीज़न 2?

जिसने डेल्ही क्राइम का पहला सीजन देखा था, उसे दूसरे का बेसब्री से इंतज़ार था. पहले सीज़न क्रिटिकली सराहा गया था और जनता ने भी हाथोंहाथ लिया था. कई इंटरनेशनल अवॉर्ड्स भी इसके खाते में आए थे. अब फाइनली दूसरा सीजन 26 अगस्त से नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रहा है. चुपके से एक प्लग इन कर देते हैं, डेल्ही क्राइम की स्टार कास्ट हमारे स्टूडियो आई. हमारी हरफ़नमौला साथी ज़ीशा ने उनका इंटरव्यू लिया. पर मौज़ूद है, आप देख सकते हैं. बहरहाल, अब देखते हैं डेल्ही क्राइम का दूसरा सीज़न कैसा है?

डेल्ही क्राइम सीजन 2 

पहला सीजन निर्भया केस पर बेस्ड था. दूसरा सीज़न कच्छा-बनियान गैंग पर बेस्ड है. ये एक ट्राइबल गैंग था, जो नाइंटीज में खूब सक्रिय हुआ करता था. आखिरी बार 2003 में इसके ट्रेसेस मिले थे. ये गैंग कच्छा-बनियान पहनकर डकैती किया करता था. पर मामला यही है कि वर्तमान समय में ये दोबारा कैसे एक्टिव हो गया. यंगर जेनेरेशन ऑफ कच्छा-बनियान गैंग. हत्याओं पर हत्याएं हो रही हैं. डीजीपी वर्तिका चतुर्वेदी की नाक में दम हुआ पड़ा है. कमिश्नर से होम मिनिस्ट्री को हर एक बात का जवाब चाहिए और कमिश्नर विजय को वर्तिका से. जनता और मीडिया अलग पीछे पड़ी है. अपनी टीम के साथ वर्तिका, जिसमें एसीपी नीति, इंस्पेक्टर भूपेंदर, जयराज, सुधीर, सुभाष समेत और भी कई लोग हैं, केस सॉल्व करने में लगी हुई है. कहानी बस यही है.

डीसीपी वर्तिका के रोल में शेफाली

एक जमी जमाई फ्रेंचाइज के लिए ऑडिएंस से कनेक्शन बिठा पाना आसान होता है. वही जाने पहचाने किरदार. उनकी जानी पहचानी स्टाइल. सब अपने घर की बात लगती है. ऐसा ही कुछ डेल्ही क्राइम के साथ होता है. हालांकि ऐसा नहीं है कि जिसने पहला सीज़न नहीं देखा, वो दूसरे में कुछ मिस करेगा. ये एकदम सेपरेट मामला है. बस किरदार सेम हैं. इस क्राइम ड्रामा की ख़ास बात ये है कि पहले आधे हिस्से में न पुलिस को क्रिमिनल का पता होता है, न ही ऑडिएंस को. तीसरे एपिसोड में मेकर्स एक चालाकी करते हैं. जनता को क्रिमिनल के बारे में बता देते हैं. यानी पुलिस को नहीं पता है, हमको पता है. ये स्टोरीटेलिंग की एक जांची-परखी तकनीक है. इससे ऑडिएंस ख़ुद को सुपीरियर समझती है. ख़ुद को पुलिस से आगे पाती है. ऐसे में उसे फ़िल्म या सीरीज़ देखने में और मज़ा आता है.  

स्टोरी कुछ ख़ास नहीं है. सिंपल है. पर उसका ट्रीटमेंट अच्छा है. डायरेक्टर तनुज चोपड़ा टेन्शन बिल्ट होने देते हैं. रबड़ की बद्धी पकड़कर ज़ोर से खींचते हैं. जहां वो टूटती है, वहीं सिनेमा पैदा होता है. चूंकि ये पुलिसिया ड्रामा है, इसलिए चेज और क्रिमिनल हंटिंग सीक्वेंसेज भर-भरकर देखने को मिलेंगे. उनका फिल्मांकन और कैमरा वर्क ऐसा है कि देखने में रस आता है. डायरेक्टर ने अप्रोच रियल रखा है इसलिए ये सब अपना-सा लगता है. ऐसे कई मोमेंट्स आपको सीरीज़ में मिलेंगे, जहां म्यूज़िक और ड्रामा कहर बरपाते हैं. क़सम से मज़ा आ जाता है.

इंस्पेक्टर भूपेंदर के रोल में राजेश तैलंग 

स्क्रीनप्ले अधपका जान पड़ता है. ट्राइबल गैंग वाले और डीएनटीज़ वाले मुद्दे को बीच में छोड़ दिया गया है. बीच में एक वकील साहब भी कहीं से आ धमकते हैं. उनके ज़रिए इस ट्रैक को आगे बढ़ाने की नाक़ाम कोशिश हुई है. इस मामले को थोड़ा और ढंग से एक्सप्लोर किया जाना था. तीन प्रमुख किरदारों भूपेंद्र, नीता और वर्तिका की पर्सनल लाइफ पहले दो एपिसोड में थोड़ी बहुत दिखती है. उसके बाद एकदम गायब हो जाती है. लास्ट में थोड़ा-सा हिंट, फिर ग़ायब. कहीं-कहीं पर स्क्रीनप्ले खिंचता है. हालांकि बोर नहीं करता. पर लास्ट एपिसोड ज़बरन घुसेड़ा हुआ लगता है. अगर पांच एपिसोड की जगह एक ढाई से तीन घण्टे की फ़िल्म बना देते, तब भी कुछ ज़्यादा बिगड़ता नहीं. डायलॉग्स भी बहुत उल्लेखनीय नहीं हैं. कुछ जगहों पर न भी होते तो कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता. कहीं-कहीं पर तो लगता है ऐक्टर्स को पता ही नहीं था क्या डायलॉग्स हैं, कुछ भी बोल दिया. जैसे लास्ट एपिसोड में एक सीन है जिसमें नीति अपने हसबैंड को जवाब देती है. उसमें वो कुछ भी बोलने लगती है. ऐसे ही और कई सीन हैं, जहां डायलॉग पर एक्स्ट्रा काम किए जाने की ज़रूरत थी.

अपनी टीम के साथ वर्तिका

सीरीज़ पुलिस का मानवीय चेहरा दिखाने की कोशिश करती है. उसकी स्टीरियोटाइप इमेज को तोड़ती है. पर इकतरफ़ा नहीं होती. वो पुलिस के दोनों पक्ष दिखाती है. उजले पक्ष की परसेंटेज ज़्यादा रखती है. मीडिया ट्रायल वाले एंगल को भी छूती है. पर एक्सप्लोर नहीं करती. पुलिस पर फोकस बनाए रखती है. जो कई मायनों में अच्छी बात है. एक चीज़ जो सीरीज़ के बारे में अच्छी लगी कि ये दिल्ली दिखाने के लिए घिसेपिटे शॉट्स इस्तेमाल नहीं करती. साउथ डिस्ट्रिक्ट की बात करती है, तो वहीं रहती है. इंडिया गेट, संसद या और भी कई फेमस जगहें नहीं दिखाती.

एसीपी नीति के रोल में रसिका दुग्गल 

सारे अभिनेता मंझे हुए हैं. इसलिए ऐक्टिंग सभी की लगभग अच्छी है. शेफ़ाली शाह किरदार की बॉडी लैंग्वेज तो पकड़ती ही हैं, पर अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से अभिनय को और सुंदर बना देती हैं. इंस्पेक्टर भूपेंद्र बने राजेश तैलंग तो ऐक्टिंग करते नज़र ही नहीं आते. एसीपी के रोल में रसिका दुग्गल ने भी बढ़िया काम किया है. आदिल हुसैन कम स्क्रीन टाइम में भी छाप छोड़ने में क़ामयाब रहे हैं. गोपाल दत्त, सिद्धार्थ भारद्वाज, अनुराग अरोड़ा ने भी अपने हिस्से का सटीक काम किया है. सरप्राइजिंग एलिमेंट हैं, तिलोत्तमा शोम. उन्होंने अपने कॉम्प्लेक्स कैरेक्टर की मनोदशा को अच्छे से पोट्रे किया है. बाक़ी के भी सभी ऐक्टर्स ने जो चाहिए था, वो किया है.

कुल मिलाकर स्क्रीनप्ले अच्छा होता, तो सीरीज़ को अच्छा कहा जा सकता था. अभी ठीकठाक ही कह सकते हैं. ये तो मेरी राय है. आप नेटफ्लिक्स पर देख डालिए. फिर हमारा भी थोड़ा ज्ञानवर्धन कीजिए.

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वेब सीरीज़ रिव्यू- सुड़ल: द वॉर्टेक्स