ये तो खैर सभी को पता है कि ये फिल्म 1995 में आई गोविंदा-करिश्मा की इसी नाम की हिट फिल्म का रीमेक है. ऊपर से वरुण धवन गोविंदा की कॉपी बनने का प्रयास लंबे अरसे से कर रहे हैं. ऐसे में तुलनाएं होना लाज़मी है. और तुलनाओं के हर पैमाने पर ये फिल्म गोविंदा वाली फिल्म से उन्नीस ही साबित होती है. यहां मेरी एक निजी राय भी रजिस्टर कर लीजिए. पुरानी वाली 'कुली नंबर 1' भी कोई महान फिल्म नहीं थी. स्क्रिप्ट के मामले में उसमें भी बहुत झोल था. लेकिन उस फिल्म को काबिले-कबूल बनाया था गोविंदा-कादर ख़ान-करिश्मा और सदाशिव अमरापुरकर की शानदार परफॉरमेंसेस ने. नई वाली 'कुली नंबर 1' इस मामले में बुरी तरह फेल है. हम पूर्वाग्रह से भरकर ज़्यादा तल्ख़ न भी हों, तो भी कहना पड़ेगा कि कई बार तो ये फिल्म एकदम अझेल हो जाती है.

गोविंदा की 'कुली नंबर 1' से इसकी तुलना होकर रहनी है.
# कहानी वही, ट्रीटमेंट सतही
कहानी क्या है! एक अमीर आदमी है जेफ्री रोज़ारियो. दो बेटियों, सारा और अंजू का पिता. अपनी बेटियों की शादी अपने से कहीं ज़्यादा अमीर आदमी से करना चाहता है. इतना अमीर कि सब्जी लेने भी जाए, तो प्राइवेट जेट से. ऐसे में किसी मिडल क्लास वाले लड़के का रिश्ता लेकर आए पंडित जय किशन को बुरी तरह अपमानित करता है. पंडित जी कसम खाते हैं कि इसको सबक सिखाकर रहूंगा. कहानी में एंट्री होती है राजू कुली की. पंडित जी से स्टेशन पर टकराता है और पंडित जी ठान लेते हैं कि इसी को रोज़ारियो का दामाद बनवाएंगे. अब इस टास्क को अंजाम तक पहुंचाने के लिए जो अतार्किक उठापटक होती है, वही सवा दो घंटे की फिल्म की सूरत आपके सामने आती है.
'कुली नंबर 1' एक चीखती हुई फिल्म है. यहां सब कुछ लाउड है. संवाद अदायगी से लेकर अदाकारी तक सब. सेट्स ले लेकर लोकेशंस तक सब कुछ आर्टिफिशियल लगता है. पहली बार जब पंडित जी राजू से मिलते हैं, उस वक्त का एक संवाद मुलाहिज़ा फरमाइए...
पंडित जी कहते हैं, "इस लड़की का नाम सारा है".
राजू का चहकता हुआ जवाब आता है, "हां तो अपने को कौन सा आधा चाहिए, अपने को भी सारा ही चाहिए".
ऐसे सर धुनने लायक डायलॉग्स की भरमार है. जो हंसी पैदा करने की जगह चिढ़ पैदा करते हैं. फरहाद सामजी के लिखे संवाद फनी किसी सूरत नहीं लगते. बल्कि उनमें हाउसफुल फ्रेंचाइज़ी का पूरा-पूरा इफेक्ट नज़र आता है.
# लाउडस्पीकर एक्टिंग
एक्टिंग के फ्रंट पर एक बात की तारीफ़ करनी होगी. कंसिस्टेंसी की. सबने एक समान खराब काम किया है. वरुण धवन बहुत लाउड हैं. तेज़ रफ़्तार से संवाद बोलने का गोविंदा का स्टाइल जब वरुण कॉपी करते हैं, तो बहुत ही ख़राब लगते हैं. गोविंदा पर जो नैचुरली अच्छा लगता था, वरुण पर ओढ़ा हुआ (या शायद डेविड धवन का थोपा हुआ) लगता है. इकलौता डांस का फ्रंट ही है, जहां वरुण ठीक-ठाक निभा ले जाते हैं.

वरुण का सारा फोकस गोविंदा की नकल करने पर लगा रहता है. (फोटो - 'कुली नंबर 1' ट्रेलर)
सारा अली ख़ान भी निराश करती हैं. हालांकि उनके लिए स्क्रिप्ट में ज़्यादा स्कोप था ही नहीं. स्कोप था परेश रावल के लिए. पर उनके कद का अभिनेता भी लचर स्क्रिप्ट के चलते मात खा गया. कादर ख़ान के जूतों में पैर फंसाने का उनका प्रयास बेहद कमज़ोर रह गया. जावेद जाफरी अच्छे एक्टर हैं, लेकिन सदाशिव अमरापुरकर के निभाए शादीराम घरजोडे की बात ही अलग थी. अगर कोई फिल्म में लाउड नहीं लगता, तो वो हैं राजू के दोस्त दीपक का रोल करने वाले साहिल वैद. जबकि इस तरह के किरदारों से लाउड होना ज़्यादा अपेक्षित होता है. ये भी एक आयरनी ही रही, खैर.
एक सीन में सारा अली ख़ान वरुण को फनी कहकर चली जाती है. वरुण धवन बार-बार दोहराते हैं, 'आई एम फनी, आई एम फनी'. जैसे खुद को ही विश्वास न हो रहा हो. उनके इस इमोशन से तमाम दर्शक सहमत हो जाते हैं. उन्हें भी विश्वास नहीं होता कि ही इज़ फनी.
# गानों की दुर्गति
गानों पर आते हैं. जो नए हैं वो याद रखे जाने लायक नहीं है और जो पुरानी फिल्म से उठाए हैं, उनके साथ भयानक ट्रीटमेंट किया गया है. 'हुस्न है सुहाना' और 'मिर्ची लगी तो' दोनों ही गाने बर्बाद करने की हद तक बिगाड़ दिए गए हैं. 'मिर्ची लगी तो' गाने में ऑटो ट्यून के बाद कुमार शानू और अलका याग्निक की आवाज़ जैसी लग रही है, उसे सुनने के बाद उन दोनों को केस ठोक देना चाहिए.
डेविड धवन का डायरेक्शन एक ज़माने में कॉमेडी फिल्मों की सफलता की गारंटी हुआ करता था. अब उसका चार्म हवा हो गया है. वो अपनी ही बनाई खीर में गरम मसाले डालकर परोस रहे हैं. ज़ाहिर है ज़ायके का बेड़ा गर्क होना ही था. फिल्म को चमकीली बनाने के चक्कर में वो बेसिक्स के साथ बहुत बड़ा कम्प्रोमाइज़ करते नज़र आते हैं और नतीजा एक अधकचरे प्रॉडक्ट के रूप में सामने आता है. ये कुछ-कुछ ऐसा ही है कि अपग्रेड होने के बाद आपका गैज़ेट बेकार हो जाए.

फिल्म के सहायक किरदार भी फिल्म की कोई मदद नहीं करते. (फोटो - 'कुली नंबर 1' ट्रेलर)
फिल्म के कुछ सीन आपत्तिजनक भी हैं. जो भोंडी कॉमेडी के नाम पर खपा दिए गए हैं. 2020 की किसी फिल्म में ट्रांसजेंडर्स का मज़ाक उड़ाया जाए, किसी के हकलाने को टार्गेट किया जाए तो ये दर्शकों का दुर्भाग्य ही है. ये रीमेक न होकर कोई ओरिजिनल फ़िल्म होती, तब भी इतना ही निराश करती.
2020 आपदाओं और निराशाओं का साल रहा है. 'कुली नंबर 1' का नाम भी उसी लिस्ट में जोड़ लीजिए.