Manoj Bajpayee की 100वीं फिल्म Bhaiyya Ji रिलीज़ हो चुकी है. ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ बनाने वाले अपूर्व सिंह कार्की इस फिल्म के डायरेक्टर हैं. ये मनोज बाजपेयी के करियर की पहली फुल फ्लेज्ड एक्शन फिल्म है. यानी यहां वो सिर्फ लात-मुक्के नहीं चला रहे, बल्कि गुंडों के साथ हवा-हवाई खेल रहे हैं. जिस तरह का सिनेमा वो करते आए हैं, ये उससे पूरी तरह उलट है.
मूवी रिव्यू - भैया जी
Manoj Bajpayee की फिल्म मज़बूत नोट पर शुरू होती है. लेकिन एक पॉइंट के बाद कहानी इतनी फैल जाती है कि आपको फर्क पड़ना बंद हो जाता है.

फिल्म में मनोज बाजपेयी के किरदार का नाम राम चरण है. बिहार का रहने वाला है. एकदम दबंग किस्म का आदमी. सब उसे भैया जी के नाम से जानते हैं. किसी जमाने में भैया जी सत्ता बदल देते थे. अब भले ही उसने हाथ उठाना बंद कर दिया, मगर जिस गली से निकल जाए वहां लोगों की नज़रें नीची हो जाती हैं. भैया जी के मासूम, छोटे भाई की हत्या हो जाती है. मां कहती है कि खून को ठंडा नहीं पड़ने देना. प्रतिशोध लेना है. भैया जी गरजते हुए हवेली में पहुंचते हैं और कहते हैं, ‘अब निवेदन नहीं, नरसंहार होगा’. ये किससे कहते हैं? जवाब है चंद्रभान. रसूखदार आदमी है. उसका बेटा शराब और पावर के नशे में भैया जी के भाई की हत्या कर देता है. और भैया जी को अब अपना बदला चाहिए. बदले की लड़ाई कैसे पूरी होती है, यही आगे की कहानी है.

शुरुआती आधे घंटे में मैं अपनी सीट के कोने पर आकर फिल्म देख रहा था. पहले से पता था कि ये एक टेम्पलेट मसाला फिल्म है. फिर भी ये देखकर अच्छा लग रहा था कि एक मसाला फिल्म को ऐसा ही होना चाहिए. आपका हीरो बस जाकर मार-काट नहीं मचा रहा. उसके साथ कुछ बहुत बुरा घटता है. आपकी सहानुभूति उसके साथ है. उसकी लड़ाई में आप उसके साथ हैं. आगे वो कानून के दायरे से बाहर जाकर जितने भी मुक्के चलाएगा, उस पर आपकी स्वीकृति की मुहर लगी होगी. यहां तक सब चंगा सी. बस उसके बाद फिल्म की राइटिंग इतनी फैली कि उसे समेटना मुश्किल हो गया. जब आपके एक्शन सीक्वेंस भी उबाऊ लगने लगें, तो बहुत दिक्कत की बात है.
फिल्म के केंद्र में भैया जी के भाई का मर्डर है. उसके बाद ही आगे की कहानी घूमती है. बदले के मकसद को देखने के दो तरीके हैं. एक तो ये कि भैया जी का छोटे भाई से इतना लगाव था कि वो धरती-आसमान एक कर देगा. लेकिन उस पक्ष को फिल्म ठीक से जगह नहीं दे पाई. कुछ ऐसे सीन होने चाहिए थे जो दोनों भाइयों की बॉन्डिंग को दर्शाएं. बाकी दूसरा तरीका है मां के नज़रिए से देखने का. जब भी भैया जी का किरदार अपने घुटने पर आता है, तब मां उसे बदले वाली बात याद दिलाती है. फिल्म अपना केंद्र फिक्स नहीं कर पाती, कि ये बदला किसका मकसद है, मां का या भैया जी का. राइटर्स के लिए ये नियम होता है कि कोई भी अतिरिक्त सीन नहीं लिखना चाहिए. आपका हर सीन नैरेटिव को किसी-न-किसी तरीके से आगे बढ़ाए.

ऐसे में एक सीन है जहां मां को लगता है कि उनके बेटे की आत्मा को शांति नहीं मिली. तब कोई सलाह देता है कि बेटे से जुड़ी किसी चीज़ को पानी में बहा दो. इस पॉइंट पर एक फ्लैशबैक आता है, जहां मां अपने बेटे के साथ क्रिकेट खेल रही है. मां उसका बल्ला निकालती है और उसे बहा देती है. आप हॉल में बैठे हुए सोच रहे हैं कि इसका क्या पॉइंट था. ये सीन नहीं होता तो कहानी पर क्या फर्क पड़ता.
आमतौर पर एक्शन फिल्मों में एक्टिंग का ज़्यादा स्कोप नहीं होता. ऐसे में चंद्रभान बने सुविंदर विकी, और ज़ोया हुसैन का जितना रोल कागज़ पर लिखा था, उन्होंने उतना डिलीवर कर दिया. कुछ इमोशनल सीन्स में मनोज बाजपेयी का काम निखर कर आया है. एक सीन है जहां भैया जी अपने भाई के शव को जलते हुए देख रहा है. वो झपटकर उसे आग से निकालना चाहता है. मगर जानता है कि ऐसा मुमकिन नहीं. जब शरीर पूरी तरह राख हो जाता है, तो भैया जी उस राख को हाथ लगाता है. हाथ जल उठते हैं. वो उस राख को सीने से लगाकर रो रहा है. राख से जलने का दर्द और भाई की हंसी कभी ना सुन पाने का दर्द, दोनों चेहरे पर आकर मिल जाते हैं.
एक टिपिकल मसाला तेलुगु फिल्म को टेम्पलेट बनाकर ‘भैया जी’ को रचा गया. हीरो का इंट्रो देने पर हवा चलने लगती है. वही उसका मां की नज़र में सौतेला होना. महेश बाबू और रवि तेजा की ज़्यादातर फिल्मोग्राफी इन दो लाइनों में कवर हो गई. खैर इस पहलू के बावजूद ये एक एंटरटेनिंग फिल्म हो सकती थी. मगर ये अपना सेंस ऑफ स्पेस ही खो देती है. राम चरण बिहार में रहता है और चंद्रभान दिल्ली में. लेकिन एक पॉइंट के बाद दिल्ली-बिहार एक हो जाता है. ताज्जुब की बात ये है कि आपको इस बात से फर्क पड़ना भी बंद हो जाता है. किसी भी फिल्म के लिए ये गुड न्यूज़ नहीं.
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