Auron Mein Kahan Dum Tha
Director: Neeraj Pandey
Cast: Ajay Devgn, Tabu, Shantanu Maheshwari, Saiee Manjrekar
Rating: 2 Stars (**)
रिव्यू - औरों में कहां दम था
Ajay Devgn और Tabu की फिल्म Auron Mein Kahan Dum Tha में कितना दम है?

साल 1994 में आई Vijaypath के बाद से Ajay Devgn और Tabu ने कई फिल्मों में साथ काम किया. हाल ही में दोनों की जोड़ी Neeraj Pandey की Auron Mein Kahan Dum Tha के लिए फिर लौटी. फिल्म का बहुत सीमित प्रमोशन हुआ था. नीरज ने इसकी वजह बताते हुए कहा कि उनके पास कहने को ज़्यादा कुछ नहीं है, इसलिए वो लोग फिल्म को प्रमोट नहीं कर रहे. दो घंटे 20 मिनट की फिल्म देखते हुए आपके कानों में नीरज की यही बात बार-बार गूंजती है. फिल्म के पास वाकई कहने को ज़्यादा कुछ नहीं था. जब आपका मैनेजर बेवजह किसी बात पर मीटिंग करना चाहे, तो मीम की भाषा में आप कहते हैं कि, This could have been an E-mail. ठीक उसी तरह ‘औरों में कहां दम था’ भी एक फिल्म होने की जगह शॉर्ट स्टोरी हो सकती थी. ऐसा क्यों कह रहे हैं, अब वो बताते हैं.
फिल्म के शुरुआत में एक डिस्क्लेमर आता है कि इस कहानी के कुछ हिस्से सच हैं, खासतौर पर जो असंभव लगते हैं. कहानी के केंद्र में दो प्रेमी हैं, कृष्णा और वसुधा. साल 2001 में इनकी कहानी शुरू होती है. मुंबई के एक ही चौल में रहते हैं. दोनों ने साथ में बहुत से सुनहरे सपने बुने हैं. लेकिन एक दिन सब बदल जाता है. कृष्णा के हाथों दो मर्डर हो जाते हैं और वो 25 साल के लिए जेल चला जाता है. अब वो रिहा होने वाला है. बाहर आने पर उसकी और वसुधा की ज़िंदगी कैसे बदलेगी, यही फिल्म की कहानी है.

नीरज फिल्म के राइटर और डायरेक्टर दोनों हैं. वो दो टाइमलाइन को साथ लेकर चल रहे थे. बीते दौर वाली और आज के समय में क्या घट रहा है. कहानी कहने का ढंग नॉन-लीनियर था. यानी कहानी एक सीधी रेखा पर नहीं दौड़ती. नॉन-लीनियर स्टोरी के केस में आप जनता की उत्सुकता जगा भी सकते हैं, और अगर आपके दिमाग में स्ट्रक्चर साफ नहीं है तो कहानी कई दिशाओं में जा सकती है. ये फिल्म दूसरे मसले का ही शिकार होती है. पुराने समय का एक सीन दिखाया गया. वहां दो किरदारों के बीच किसी चीज़ को लेकर चर्चा हो रही है. इसके बाद अगला सीन आता है जो आज के समय में घटता दिखता है. जिस चीज़ पर पहले बात हो रही थी, उसे आज के समय में दिखाया जा रहा है. अच्छी बात है कि आपने उसका कनेक्शन बना दिया, लेकिन स्टोरी बोलेगी कि भाई, इसमें मेरा क्या फायदा है, मुझे क्या मिल रहा है. कायदे से वो चीज़ अगर आज के समय में दिख रही है, तो उसे कहानी को एक्स्टेंशन देना चाहिए. यानी कहानी को आगे बढ़ाना चाहिए. अगर दो किरदार बस उस पर बात कर रहे हैं और उससे कहानी किसी भी तरह आगे नहीं बढ़ रही, तो उसका पॉइंट क्या था.
दूसरा मसला ये है कि फिल्म कहना क्या चाहती है, उसमें भी पूरी क्लेरिटी नहीं दिखती. पहले लगता है कि नीरज सिर्फ एक सिम्पल लव स्टोरी बताना चाहते हैं. लेकिन आधी फिल्म बीत जाने के बाद कहानी सस्पेंस की तरफ बढ़ने लगती है. ऑडियंस में ये रुचि जगाने की कोशिश की जाती है कि आखिर मर्डर वाली रात हुआ क्या था. रोमांस और सस्पेंस के बीच फंसकर फिल्म किसी की भी सगी नहीं बन पाती. फिल्म के एकदम अंत में आकर आपको किरदारों के लिए कुछ महसूस होने लगता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो जाती है. फिल्म की राइटिंग यहां सबसे बड़ी दोषी है.

शांतनु माहेश्वरी और सई मांजरेकर ने जवान कृष्णा और वसुधा के रोल किए. शांतनु ने हर भाव को अपने चेहरे और आवाज़ में ठीक से जगह दी है. उनकी आवाज़ में की मॉड्यूलेशन आप तक पहुंचती है. बस सई के साथ ऐसा केस नहीं था. उनके अधिकांश डायलॉग एक ही टोन में आकर निकल जाते हैं. ऐसा लगता है कि बस एक्टर ने डायलॉग पढ़ दिए. आप तक कुछ नहीं पहुंचा. अजय और तबु ने आज के समय वाले कृष्णा और वसुधा बने. यहां कई मौकों पर अजय के लिए फैन सर्विस की गई. फिर चाहे वो उनका एंट्री शॉट हो या फिर गाड़ी में ‘जीता था जिसके लिए’ गाने का बजना. लेकिन यहां उनके एक्टिंग साइड के लिए भी जगह थी. अजय और तबु को अपने किरदारों का मैच्योर पक्ष दिखाना था. कैसे समय के साथ उनका प्रेम भी मैच्योर हुआ है. दोनों एक्टर्स ने इसे समझा और उसी हिसाब से काम भी किया. टोन के हल्के बदलाव से लेकर चेहरे के भाव तक, सब कुछ सटल रखा. बिना कहे बता दें कि मन में क्या तूफान उमड़ रहा है, ऐसा काम किया है दोनों एक्टर्स ने.
‘औरों में कहां दम था’ एक लव स्टोरी की तरह शुरू हुई थी. आगे जाकर अगर ये अपना रास्ता ना भटकती तो इस रिव्यू की पूरी भाषा बिल्कुल विपरीत होती.
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