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'ट्रॉन' की पूरी कहानी: वो कल्ट साइंस फिक्शन फिल्म जिसे ऑस्कर वालों ने रिजेक्ट कर दिया था!

Tron: Ares का ट्रेलर रिलीज़ हुआ है. ये उस फ्रैंचाइज़ का हिस्सा है जिसने साइंस फिक्शन फिल्मों को हमेशा के लिए बदल दिया.

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ऑस्कर अवॉर्ड विनर जैरेड लेटो Tron: Ares को लीड कर रहे हैं.

हाल ही में Disney की फिल्म Tron: Ares का ट्रेलर आया. इंटरनेट पर हल्ला कट गया. डेढ़ मिनट के इस ट्रेलर ने अपनी आइकॉनिक नियॉन लाइट्स और साइंस फिक्शन दुनिया से जो विजुअल ट्रीटमेंट दिया है, फैन्स उसकी तारीफ़ करते नहीं थक रहे हैं. फिल्म को योकिम रॉनिंग ने डायरेक्ट किया है, जबकि लीड रोल में ऑस्कर अवॉर्ड विनर Jared Leto और Greta Lee हैं. ट्रेलर का हाइलाइट ये था कि इस फिल्म के साथ दिग्गज अभिनेता Jeff Bridges की भी 'ट्रॉन' यूनिवर्स में वापसी हो रही है. हालांकि वो स्क्रीन पर दिखे तो नहीं, मगर ट्रेलर के अंत में उनकी आवाज़ ज़रूर सुनाई देती है. बता दें कि जेफ ही 1982 में आई लैजेंड्री फिल्म 'ट्रॉन' के लीड एक्टर थे, जिससे इस फ्रैंचाइज़ की शुरुआत हुई थी. इस सीरीज़ की दूसरी फिल्म 2010 में रिलीज़ हुई 'ट्रॉन: लैगेसी' थी. अब 15 साल बाद अगली फिल्म आ रही है. 

# क्या कुछ है ट्रेलर में?

ट्रेलर की शुरुआत एक फिज़िकल वर्ल्ड से होती है. फिज़िकल वर्ल्ड इसलिए क्योंकि इससे पहले की फिल्मों में सारा मामला डिजिटल दुनिया का था. इस बार जैरेड लेटो का कैरेक्टर एरेस उस गेमिंग वर्ल्ड से बाहर आ चुका है. रात के अंधेरे में वो अपनी 'लाइट साइकिल' यानी नियॉन लाइट वाली सुपरबाइक पर बैठकर पुलिस से दूर भागता दिख रहा है. इसी सीक्वेंस में वो अपनी लाइट साइकल से एक लाइट ट्रेल (रोशनी की लंबी लाइन) छोड़ता है, जो कि पुलिस की कार को दो बराबर हिस्सों में काट देती है.

आगे के सीन में एक बहुत बड़ा एयरशिप दिखता है. ये रात के अंधेरे में शहर के ऊपर उड़ रहा है. अंधेरे में केवल उसकी लाल लाइट्स दिख रही हैं, जिन्हें देखकर जनता सकपकाई हुई है. अगले सीन में इंसानी एयरक्राफ्टों और ट्रॉन के डिजिटल वर्ल्ड से आए फाइटर प्लेन्स के बीच का एक फाइटिंग सीक्वेंस है. ट्रेलर का अंत जैफ ब्रिजेस के एक दमदार वॉइस ओवर और जैरेड लेटो के विजुअल्स के साथ होता है. यहां ये डिजिटल बॉडी से फिज़िकल बॉडी में तब्दील हो रहे हैं.

अगर आप 'ट्रॉन' की दुनिया से अब तक अपरिचित रहे हैं तो इसके विज़ुअल देखकर दंग रह जाएंगे. फिल्म में एक अनोखी दुनिया रची गई है. दूसरी ओर यदि आपने इस सीरीज़ की पिछली फिल्में देखी हैं, तब तो आपका नोस्टालजिया अल्ट्रा प्रो मैक्स होना तय है. 'ट्रॉन: एरेस' के ट्रेलर में मेकर्स ने पूरी कहानी नहीं खुलने दी. आपको सिर्फ उस दुनिया में लेकर गए, उसकी एक झलक दी. नतीजतन फिल्म के प्रति उत्सुक पैदा हुई.     

# क्या है 'ट्रॉन' यूनिवर्स?

'ट्रॉन' नाम के पीछे विज्ञान का कोई बड़ा सिद्धांत नहीं है. उल्टे ये सीधे-सरल रूप में 'इलेक्ट्रॉनिक' शब्द से निकला एक शॉर्ट फॉर्म है- 'ट्रॉन'. ये नाम इसलिए पड़ा क्योंकि इस फ्रैंचाइज़ को कूल बनाने में इलेक्ट्रॉनिक मशीनों और नियॉन लाइट्स का बड़ा हाथ है. अब सवाल उठता है कि आखिर 'ट्रॉन: एरेस' की इतनी हाइप क्यों है? इसका जवाब जानने के लिए आपको साल 1976 में जाना होगा. ये वो ­समय था जब स्टीवन लिसबर्गर नाम के एक एनिमेटर ने पहली बार कंप्यूटर गेम Pong को देखा. उस समय के जानकार याद करते होंगे कि 'पोंग' दुनिया का पहला कमर्शियली सक्सेसफुल वीडियो गेम था. जिस समय लिसबर्गर ने इस गेम को देखा, उस वक्त वो अपने एनिमेशन स्टूडियो में कार्टून बनाया करते थे. मगर 'पोंग' को देखते ही उनके दिमाग की बत्ती जल उठी. एक आइडिया सूझा. क्या होगा अगर हम वीडियो गेम्स और कंप्यूटर विज़ुअल्स को एक साथ बड़े परदे पर ले आएं? बस इतना सोचना भर था कि उनके दिमाग में इस डिज़िटल वर्ल्ड का पूरा कॉन्सेप्ट घूमने लगा. कहते हैं कि लिसबर्गर को इन दो दुनिया को मिलाने का आइडिया लुई कैरल के नॉवल 'एलिस इन वंडरलैंड' से मिला था. इस नॉवल की नायिका वास्तविक दुनिया से जादुई दुनिया में चली जाती है.   

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‘पोंग’ को देखकर ‘ट्रॉन’ फिल्म बनी और फिर ‘ट्रॉन’ को देखकर कई वीडियो गेम्स बनाए गए.

अब आपको लगे कि इसमें कौनसी बड़ी बात है. ये तो मल्टीवर्स के नाम पर आज हर कोई करने लगा है. मगर हमें भूलना नहीं चाहिए कि जो आज हो रहा है, वो ये लोग 70-80 के दशक में कर चुके थे. तब न तो कंप्यूटर इतने एडवांस थे, और न ही टेक्नोलॉजी. इसी कॉन्सेप्ट को मन में बिठाए लिसबर्गर ने अपने दोस्त और प्रोड्यूसर डोनाल्ड कुशनर के साथ मिलकर एक एनिमेशन स्टूडियो शुरू किया. शुरुआत में वो 'ट्रॉन' को पूरी तरह से एनिमेटिड फिल्म के रूप में ही बनाना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने एक 30 सेकेंड का एनिमेशन रील भी बनाया. मगर उस रील के बाद ही लिसबर्गर को एहसास हो गया कि शायद उन्हें इस फिल्म में वास्तविक लोगों को शामिल कर लाइव-एक्शन फिल्म का रूप देना चाहिए. कहने का अर्थ ये है कि 'ट्रॉन' ने 43 साल पहले उस डिजिटल रियलिटी की नींव रखी थी, जिसका इस्तेमाल कहीं-न-कहीं आज मेटावर्स भी कर रहा है.

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स्टीवन लिसबर्गर ‘ट्रॉन: एरेस’ को भी कर रहे को-प्रोड्यूस

ये तो फिर भी शुरुआती पड़ाव था. असली दिक्कत तब शुरू हुई जब लिसबर्गर इस आइडिया और अपने 30 सेकेंड के एनिमेशन रील को लेकर स्टूडियो-दर-स्टूडियो भटकने लगे. बड़े-बड़े प्रोड्यूसर्स उनका आइडिया सुनते ज़रूर, मगर उसे रिजेक्ट भी तुरंत ही कर देते. ऐसे ही एक शख्स ‘मार्वल’ के को-क्रिएटर स्टेन ली भी थे, जिन्हें उनका कॉन्सेप्ट जमा नहीं. एक के बाद एक कई स्टूडियोज़ ने उनके इस यूनिक आइडिया को ना कर दिया. हर तरफ़ से निराशा ही हाथ लग रही थी. तभी कहानी में ट्विस्ट आया और डिज्नी स्टूडियो ने इस प्रोजेक्ट में अपनी रुचि दिखाई. दरअसल, वॉल्ट डिज्नी की मृत्यु के बाद से डिज्नी स्टूडियो काफी सुस्त पड़ गया था. फिल्में बन तो रही थीं मगर वो दमदार साबित नहीं हो रही थीं. ऐसे वक्त में डिज्नी को उन प्रोजेक्ट्स की तलाश थी जो उन्हें दोबारा पटरी पर ला सकें. इन्हीं प्रोजेक्ट्स में से एक था ‘ट्रॉन’. यहां रिस्क तो बहुत था लेकिन उसके साथ आने वाली संभावनाएं भी उतनी ही थीं.

इन शुरुआती उधेड़बुनों से उबरकर इस फिल्म पर काम शुरू हुआ. सब ठीक-ठाक चल ही रहा था कि अचानक बड़ी दिक्कत सामने आई. दरअसल, डिज्नी स्टूडियो में पहले से एनिमेटर्स काम कर रहे थे. ये लोग अपने हाथों से कार्टून बनाते थे. यही एनिमेटर्स हो-हल्ला करने लगे. उनका कहना था कि अगर कंप्यूटर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर के फिल्म बनती है और वो सफल हो जाती है तो हैंड एनिमेटर्स की नौकरी चली जाएगी. इस वजह से लिसबर्गर का रास्ता मुश्किल होता चला गया. उन्हें फिल्म बनाने के लिए कलाकारों का पूरा साथ नहीं मिल रहा था. उल्टे इस फिल्म को पूरा करने के लिए उन्हें बाहरी कंप्यूटर कंपनियों तक से मदद लेनी पड़ गई.

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‘ट्रॉन’ की शूटिंग के वक्त स्टीवन लिसबर्गर और जैफ ब्रिजेस.

खैर, सभी तरह के अड़ंगों से पार होकर 1982 में ‘ट्रॉन’ रिलीज़ हुई. फिल्म के लीड में थे अभिनेता जैफ ब्रिजेस. जैफ फिल्म में केविन फ्लिन नाम के एक ऐसे कंप्यूटर प्रोग्रामर और हैकर का रोल निभा रहे थे, जो कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की दुनिया में चला जाता है. इसके बाद क्या कुछ होता है, उसे किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, ये फिल्म उस पर ही आधारित है. फिल्म की रिलीज़ से पहले तक लोग इसे लेकर बहुत ज्यादा आश्वस्त नहीं थे. मगर जैसे-जैसे लोगों ने फिल्म देखी, उन्हें समझ आने लगा कि लिसबर्गर ने क्या मास्टरपीस बनाई है.

दरअसल 1982 में जब 'ट्रॉन' फ्रैंचाइज़ की ये पहली फिल्म रिलीज़ हुई थी, उस दौर में तकनीक का ऐसा इस्तेमाल नहीं होता था. तब टेक फ़िल्में बन तो रही थीं, सीजीआई का भी इस्तेमाल होना भी शुरू हो गया था. मगर 'ट्रॉन' ने अपने आते ही एक नया बेंचमार्क स्थापित कर दिया. मगर फिल्म को इसी बात का खामियाज़ा भी भुगतना पड़ा था. फिल्म को उस साल विजुअल इफ़ेक्ट्स कैटेगरी के ऑस्कर से भी रिजेक्ट कर दिया गया था. ऐसा इसलिए क्योंकि उस दौर में इस फिल्म ने जिस एडवांस कंप्यूटर टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया था, अकैडमी अवॉर्ड्स की नज़र में वो एक 'चीटिंग' थी. मतलब आज जिस कंप्यूटर ग्राफिक्स का इस्तेमाल किए बिना फ़िल्में पूरी नहीं होती, किसी समय उसे चीटिंग माना जाता था. अब आप इसी से अनुमान लगा लीजिए कि 'ट्रॉन' अपने समय से कितना आगे चल रही थी.

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‘ट्रॉन’ के विजुअल इफ़ेक्ट्स, बैकलिट और 2D एनिमेशन की मदद से तैयार किए गए थे. 

‘ट्रॉन’ आर्थिक रूप से तो बहुत सफ़ल नहीं हुई, मगर समय के साथ एक कल्ट क्लासिक बनती चली गई. इसने अपने म्यूजिक, ग्राफिक्स और एक्शन से फिल्म मेकिंग की दुनिया में एक नया अध्याय लिख दिया. 'ट्रॉन' में ही पहली बार लॉन्ग सीजीआई शॉट्स इस्तेमाल किए गए. आगे चलकर जेम्स कैमरन, जॉर्ज लुकास, पीटर जैक्सन और टिम बर्टन जैसे फिल्ममेकर्स ने भी अपनी फिल्मों में इसका इस्तेमाल किया. दो बार के ऑस्कर विजेता जॉन लेस्टियर ने तो ये तक कहा कि 'ट्रॉन' ने ही उन्हें 1995 की 'टॉय स्टोरी' बनाने के लिए प्रेरित किया था. 'टॉय स्टोरी' दुनिया की ऐसी पहली फीचर-लेंथ फिल्म थी, जिसे पूरी तरह सीजीआई की मदद से बनाया गया था.

# सीक्वल आने में 28 साल लग गए 

रिलीज़ के वक्त भले ही 'ट्रॉन' ने तगड़ी कमाई नहीं की, मगर इसे ऑडियंस से अच्छा वर्ड ऑफ माउथ मिला था. आमतौर पर ऐसा रिस्पॉन्स मिलने पर स्टूडियो तुरंत सीक्वल बनाने में जुट जाते हैं. लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ. फिल्म का सीक्वल आने में 28 साल लग गए. 2010 में इस सीरीज की दूसरी फिल्म ‘ट्रॉन: लैगेसी’ रिलीज़ हुई. फिल्म को जोसेफ कोसिंस्की ने डायरेक्ट किया था. फिल्म ने अपनी कहानी को वहीं से कन्टिन्यू किया, जहां उसे 1982 वाली फिल्म में छोड़ा गया था. बस इस बार कहानी के लीड में सैम फ्लिन नाम का व्यक्ति था, जो अपने पिता केविन फ्लिन को खोजने निकलता है. खोजबीन की इसी कोशिश में वो भी 'द ग्रिड' नाम की डिजिटल दुनिया में ट्रांसपोर्ट हो जाता है. इसके बाद क्या कुछ होता है, ये फिल्म उसके आसपास घूमती है.

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डिज्नी ‘ट्रॉन: लैगेसी’ को ‘मैट्रिक्स’ के स्तर का बनाना चाहती थी.

'ट्रॉन: लैगेसी' के लीड रोल में गैरेट हेडलंड और ओलिविया वाइल्ड थे. पहले पार्ट के लीड एक्टर जैफ ब्रिजेस ने भी अपने पुराने रोल के साथ इस फ्रैंचाइज़ में वापसी की थी. ‘ट्रॉन: लैगेसी’ की कहानी थोड़ी ढीली थी. मगर सीजीआई, म्यूजिक और सिनेमैटोग्राफी जैसे पहलू इतने दमदार थे कि रिलीज़ होते ही इसकी मिसालें दी जाने लगी. ऐसा क्यों हुआ? उसकी वजह है कि 10 कंपनियों ने दो साल तक लगातार मेहनत करके इसके 1565 विजुअल शॉट्स तैयार किए थे. फिल्म 'बेस्ट विजुअल इफ़ेक्ट्स' के अकैडमी अवॉर्ड के लिए भी शॉर्टलिस्ट हुई.

# तीसरी फिल्म में इतना समय क्यों लगा?

'ट्रॉन: लैगेसी' की रिलीज़ के बाद फ्रैंचाइज़ के क्रिएटर स्टीवन लिसबर्गर ने तीसरी फिल्म अनाउंस कर दी थी. 2011 में फिल्म डायरेक्टर जोसेफ कोसिंस्की ने कहा कि फिल्म की स्क्रिप्ट पर काम चल रहा है. मार्च 2012 तक ये खबर सुनने को मिली कि फिल्म पर 2014 से काम शुरू हो जाएगा. मार्च 2015 आते-आते पता चला कि डिज्नी ने इस तीसरी फिल्म को हरी झंडी दे दी है. फैन्स फिल्म का इंतज़ार करते रहे. इसी दौरान Tomorrowland नाम की एक साइंस-फिक्शन फिल्म रिलीज़ हुई. ये बॉक्स-ऑफिस पर बुरी तरह पिटी. इस फिल्म का हश्र देखकर डिज़्नी ने अपने हाथ पीछे खींच लिए. खबर आई कि 'ट्रॉन' के तीसरे पार्ट को कैंसल कर दिया गया है.  

‘ट्रॉन’ यूनिवर्स की खास बात ये रही है कि लोग इसे इसकी कहानी से ज्यादा टेक्नोलॉजी और विजुअल इफ़ेक्ट्स के लिए देखते हैं. मगर 'ट्रॉन: लैगेसी' और ‘ट्रॉन: एरेस’ के बीच 15 साल का गैप रहा. इतने समय में फिल्ममेकिंग की दुनिया बहुत आगे बढ़ चुकी है. आज हर दूसरी फिल्म में भारी-भरकम सीजीआई और एडवांस आर्टिफ़िशियल टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल हो रहा है. ऐसे में ‘ट्रॉन: एरेस’ क्या कुछ नया लेकर आती है और ऑडियंस को कितना इंप्रेस कर पाती है, ये देखना रोचक होगा. ‘ट्रॉन: एरेस’ 10 अक्टूबर 2025 को सिनेमाघरों में रिलीज़ होने वाली है.  

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