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वो Words, जो आजकल कहीं भी 'फेंक' दिए जाते हैं

मसलन कम्युनिस्ट. आप या आपका दोस्त कम्युनिस्ट हैं या नहीं. इसकी यहां तसल्लीबख्श जांच की जाएगी. आएं राजन.

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कुछ चीज़ें मज़ाक बिलकुल भी नहीं होती हैं. लेकिन लोग उनका मज़ाक बना के रख देते हैं. कुछ शब्दों को ऐसे धड़ल्ले से कहीं भी 'फ़ेंक' या 'बक' दिया जाता है कि एक वक्त के बाद उनके मतलब बेमानी हो जाते हैं. शब्दों का काम होता है उन चीज़ों को एक नाम देना, जिन्हें किसी और तरीके से एक्सप्रेस कर पाना मुश्किल होता है. लेकिन शब्द बनाते भी तो हम खुद ही हैं. और इसी चक्कर में किसी चीज़ को नाम दे देने के बाद उसे डिफाइन करने और फिर रीडिफाइन करने का सिलसिला कभी ख़तम नहीं होता. लेकिन आजकल कुछ शब्द ऐसे इस्तेमाल किये जा रहे हैं, जिससे चिढ़ मच जाए. देखिए कौन-कौन से ऐसे शब्द हैं. शायद आपने भी ध्यान दिया हो. 1.  इंट्रोवर्ट:  आजकल इंट्रोवर्ट होना गज़ब का फैशन है. ये बात तो बिलकुल सही है कि इंट्रोवर्ट लोगों को अक्सर ख़ुद को एक्सप्रेस करने में मुश्किलें आती हैं. चार लोगों के बीच में ये उनकी प्रॉब्लम बन जाती है. पर ये तो बात थी सचमुच के इंट्रोवर्ट लोगों की. अभी हर दूसरा बंदा या बंदी इंट्रोवर्ट ही बने फिरते है. 2. डिप्रेस्ड: 'डिप्रेशन' एक बड़ा भारी शब्द है. ये सही बात है कि कब कोई डिप्रेशन में जा चुका है, और उसे कैसे सपोर्ट किया जाए, इसकी जागरुकता होना बहुत ज़रूरी है. लेकिन कुछ लोग चार कदम आगे ही रहते हैं. जागरुकता फैलाने के लिए वो खुद को ही 'डिप्रेस्ड' बोलने और समझने लगते हैं.
सिल्विया प्लाथ एक बड़ी सही चीज़ कहती थीं- "सबको ये सोचना पसंद होता है कि वो इतने ज़रूरी हैं कि उन्हें एक साइकेट्रिस्ट की ज़रूरत पड़े." इसमें कुछ हाथ उन वेबसाइट और उनके क्विज का भी है जो आपको बताते हैं- "दस चीज़ें जिससे पता चलता है कि आप डिप्रेस्ड हैं." या "दस चीज़ें जिससे पता चलता है कि आप इंट्रोवर्ट हैं"
3. सेपिओसेक्सुअल:  ये तो गजब फैशनेबल शब्द है. नया-नया बना हुआ शब्द है. इसका मतलब होता है वो इंसान जो दूसरों में इंटेलिजेंस देखकर उनकी तरफ आकर्षित होते हैं. और अब हर दूसरा इंसान सेपिओसेक्सुअल बना फिरता है. कुछ दिन बाद कोई नया शब्द चला आएगा- दूसरों में बेवकूफी देखकर आकर्षित होने वाले लोगों के लिए- हम वही बन जाएंगे. हां नहीं तो. 4. सोशली ऑकवर्ड होना:  इसका मतलब उस लोगों से है, जो चाह कर भी सोशल नहीं हो पाते. समाज में, लोगों की भीड़ में वो थोड़े असहज हो जाते हैं. पर भाईसाहब! अब तो पूरी दुनिया सोशली ऑकवर्ड हो चुकी है. हमारी समझ में नहीं आता, फिर आखिर सोसाइटी में सारी पंचायत, सारी गॉसिप, बातें फैलाने का ज़िम्मा किसने उठा रखा है!
सोचिए सोशली ऑकवर्ड होना कुछ समय पहले तक कितने प्रॉब्लम की बात थी. ऐसे लोगों का दूसरों से जल्दी घुल-मिल पाना मुश्किल लगता था और अक्सर उन्हें 'जज' किया जाता था. जो की सरासर गलत किया जाता था. लेकिन इस कोशिश में कि सोसाइटी में ऐसे लोगों को समझ कर उन्हें सपोर्ट किया जाए, ऐसी चीज़ों को 'कूल' बना दिया जाता है.
5. वॉनडरलस्ट होना: व्हाट्सएप्प से लेकर फेसबुक, ट्विटर और टिंडर तक हर कोई जैसे एक बीमारी से पीड़ित है. उस बीमारी का नाम है 'वॉनडरलस्ट'. जिसका मतलब होता है जगह-जगह घूमने की गहरी चाहत होना. ये शब्द महामारी की तरह फैल रहा है. इसके लक्षण बड़े आम हैं. आपको अक्सर ही दिख जाते होंगे. पहाड़ों, समुद्रों की फोटो के साथ लंबी-चौड़ी पोस्ट डाली जाती है. उससे पूरी दुनिया को बताया जाता है वॉनडरलस्ट के बारे में. DSLR उठाकर कैसे फलाना भाईसाहब या बहनजी निकल गए थे. कैसे वो आज़ाद पंछी हैं, जिन्हें कोई नहीं रोक सकता. इस शब्द से पहले भी लोग आज़ाद पंछी हुआ करते थे. घूमने जाते थे. लेकिन जा कर चुपचाप घूम आते थे. अब ऐसा करना पाप माना जाता है. 6. कम्युनिस्ट: कम्युनिस्ट होने का मतलब क्रांतिकारी होने से जोड़ दिया जाता है. कम्युनिस्ट होना भी एक फैशन बन चुका है. एक दोस्त ने एक महाशय के बारे में बताया. वो पार्टी में लोगों से घिरे हुए थे. वजह थी कि वो बड़ी 'स्मार्ट' और 'अम्यूज़िंग' बातें कर रहे थे. हाथ में महंगी वाइन पकड़े, बोल रहे थे कि वो एक कम्युनिस्ट हैं. वजह बताते हैं कि उन्हें बड़ी कारों से ज़्यादा छोटी कारें पसंद हैं. वाह जनाब!
सच में कम्युनिस्ट होना लोगों के बीच में 'स्मार्ट' बनने का जरिया बन गया है. इस शब्द के कुछ मायने हैं. लेकिन लोग इसे कहीं भी चेप देते हैं. हम तो मार्क्सिस्ट जोक और मीम शेयर करने वाले लोग से तंग आ चुके हैं. हमें तो लगता है कई बार इन्हें खुद जोक समझ नहीं आता. लेकिन जोक 'स्मार्ट' तो होगा ही, ये सोचकर वो हंस लेते हैं. आते-जाते "लाल सलाम" बोल जाना भी आजकल ट्रेंड में है.  :p 
7. सोशल मीडिया पर नहीं हैं:  "मैं तो फेसबुक-ट्विटर नहीं चलाता. अकाउंट ही नहीं हैं मेरे इन सब सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर. मैं ब्लॉग लिखता हूं." ऐसे लोग आपको भी मिले होंगे. है न? सब फैशन की मोह-माया है. और फैशन की दौड़ में गारंटी की इच्छा न रखें. जब फेसबुक नया-नया आया था तो उसे इस्तेमाल करना फैशन था. अब उसे न इस्तेमाल करना फैशन है.
ये बात सही है कि सोशल नेटवर्किंग साइट्स से हम सब जब न तब ऊब जाते हैं. और उस ज़माने को वापस जीना चाहते हैं जिसमें उकड़ू बैठ कर पूरा दिन स्क्रीन के सामने बिताने की कोई जगह नहीं होती थी. लेकिन कुछ लोग ऐसा शौकिया तौर पर करते हैं. असल में अब फेसबुक, ट्विटर ये सब पुराना हो चुका है. अब तो ब्लॉग लिखा जाता है ब्लॉग!
 
(ये स्टोरी पारुल ने लिखी है.)