#1. ये मज़दूर का हाथ है कात्या, लोहा पिघलाकर उसका आकार बदल देता है! ये ताकत ख़ून-पसीने से कमाई हुई रोटी की है. मुझे किसी के टुकड़ों पर पलने की जरूरत नहीं.
- काशी, घातक (1996)
- काशी, घातक (1996)
#2. चड्ढा, समझाओ.. इसे समझाओ. ऐसे ख़िलौने बाज़ार में बहुत बिकते हैं, मगर इसे खेलने के लिए जो जिगर चाहिए न, वो दुनिया के किसी बाज़ार में नहीं बिकता, मर्द उसे लेकर पैदा होता है. और जब ये ढाई किलो का हाथ किसी पर पड़ता है न तो आदमी उठता नहीं, उठ जाता है. - गोविंद, दामिनी (1993)
- तारा सिंह, गदर: एक प्रेम कथा (2001)
#4. झक मारती है पुलिस. उतारकर फेंक दो ये वर्दी और पहन लो बलवंतराय का पट्टा अपने गले में यू बा**र्ड.
ऑन माई फुट, माई फुट!
अंधेर नगरी है ये. बस. ऐसे गरीब, कमज़ोर लोगों पर दिखाओ अपनी मर्दानगी. वर्दी का रौब. इन्हीं हाथों को बांध सकती हैं तुम्हारी हथकड़ियां. बलवंतराय के नहीं. जाकर दुम हिलाना उसके सामने. तलवे चाटना. बोटियां फेंकेंगे बोटियां. अच्छा कर रहे हो इंस्पेक्टर, बहुत अच्छा कर रहे हो तुम. बहुत तरक्की मिलेगी तुम्हे, मेडल्स मिलेंगे. अरे भागकर कहां जा रहे हो बात सुनो मेरी! आई विल ड्रैग यू टू द कोर्ट यू बा**र्ड, यू आर गोना पे फॉर दिस.
- अजय मेहरा, घायल (1990)
- देवा, ज़िद्दी (1997)
- काशी, घातक (1996)
#7. मथुरादास जी, आप ख़ुश हैं कि आप घर जा रहे हैं. मगर ख़ुशी का जो ये बेहूदा नाच आप अपने भाइयों के सामने कर रहे हैं.. अच्छा नहीं लगता. आपकी छुट्टी मंज़ूर हुई है क्योंकि आपके घर में प्रॉब्लम है. दुनिया में किसे प्रॉब्लम नहीं? ज़िंदगी का दूसरा नाम ही प्रॉब्लम है. बताओ! अपने भाइयों में कोई ऐसा भी है जिसकी विधवा मां आंखों से देख नहीं सकती और उसका इकलौता बेटा रेगिस्तान की धूल में खो गया है. कोई ऐसा भी है जिसकी मां की अस्थियां इंतजार कर रही हैं कि उसका बेटा जंग जीतकर आएगा और उन्हें गंगा में बहा देगा. किसी का बूढ़ा बाप अपनी ज़िंदगी की आखिरी घड़ियां गिन रहा है और हर रोज़ मौत को ये कहकर टाल देता है कि मेरी चिता को आग देने वाला, दूर बॉर्डर पर बैठा है. अगर इन सब ने अपनी प्रॉब्लम्स का बहाना देकर छुट्टी ले ली तो ये जंग कैसे जीती जाएगी? बताओ! मथुरादास.. इससे पहले कि मैं तुझे गद्दार क़रार देकर गोली मार दूं.. भाग जा यहां से. - मेजर कुलदीप सिंह, बॉर्डर (1997)
- करण, जीत (1996)
- देवा, ज़िद्दी (1997)
- गोविंद, दामिनी (1993)
- ज़िद्दी (1997), देवा
- काशी, घातक (1996)
- अजय मेहरा, घायल (1990)
#14. समझाओ, समझाओ मुझे. आखिर ये राजनीति होती क्या है? ये कुर्सी का नशा होता कैसा है? जिसे पाने के लिए इंसानियत से इतना नीचे गिर जाते हो तुम लोग. कि दोस्त के हाथों दोस्त का घर जला देते हो. भाई के हाथों, भाई का ख़ून करवा देते हो. कभी हड़ताल, कभी दंगा-फसाद, कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर लाशें बिछा देते हो तुम लोग. बोलो ऐसा क्यों करते हो? - अजय, अंगरक्षक (1995)
- काशी, घातक (1996)
#16. ओए तू ग़ुलाम दस्तग़ीर है ना? लहौर दा मशहूर गुंडा! गंदे नाले दी पैदाइश! ऐ तां वक्त इ दस्सेगा कि मेरी अंतिम अरदास हूंदी ए या तेरा इना इलाही पढ़ेया जांदा ए. हुण तू इन्ना चेत्ते रख कि तू इक कदम वी बाहर निकलेया तां मैं तैन्नू ओही गंदे नाले दे विच्च मार सुट्टांगा जिस्सों तूं आया सी. ओए चोप्प क्यों हो गया! - मेजर कुलदीप सिंह, बॉर्डर (1997)
- काशी, घातक (1996)
- अजय मेहरा, घायल (1990)
#19. किन हिंदुस्तानियों को गोली से उड़ाएंगे आप लोग, हम हिंदुस्तानियों की वजह से आप लोगों का वजूद है. दुनिया जानती है कि बंटवारे के वक्त हम लोगों ने आप लोगों को 65 करोड़ रुपये दिए थे तब जाकर आपके छत पर तरपाल आई थी. बरसात से बचने की हैसियत नहीं और गोलीबारी की बात कर रहे हैं आप लोग! - तारा सिंह, गदर: एक प्रेम कथा (2001)
- गोविंद, दामिनी (1993)
#21. तुम्हारी ऊंची शख्सियत और शरीफाना लिबास के पीछे छुपे शैतान को मैं पहचान चुका हूं. ये गीदड़भभकियां किसी और को देना बलवंतराय. अगर मेरे भाई को कुछ हुआ तो मैं तेरा वो हश्र करूंगा कि तुझे अपने पैदा होने पर अफसोस होगा. और तेरे ये पालतू कुत्ते जिन्हें देखकर तूने भौंकना शुरू किया है, ये उस वक्त तेरे आस पास भी नजर नहीं आएंगे. - अजय मेहरा, घायल (1990)
- काशी, घातक (1996)
- तारा सिंह, गदर: एक प्रेम कथा (2001)
#24. मीलॉर्ड, तारीख़ देने से पहले मैं कुछ अर्ज़ करना चाहूंगा. पहली तारीख़ में ये कहा गया कि दामिनी पाग़ल है, उसे पाग़लखाने भेज दिया गया जहां उसे पाग़ल बनाने की पूरी कोशिश की गई. दूसरी तारीख़ से पहले अस्पताल में पड़ी उर्मी का ख़ून कर दिया गया और केस बना ख़ुदकुशी का. जबकि इस अदालत में मैंने साबित कर दिया कि उर्मी ने ख़ुदकुशी नहीं की, उसका ख़ून हुआ है. और शेखर भी उस दिन सारे सच कहने ही वाला था कि चड्ढा साब ने फिर से अपनी चाल चल दी. बीमारी का नाटक करके तारीख़ ले ली. नहीं तो उसी दिन मीलॉर्ड इस केस का फैसला हो जाता. और आज आप फिर से तारीख़ दे रहे हैं. उस तारीख़ से पहले सड़क पर कोई ट्रक मुझे मारकर चला जाएगा और केस बनेगा रोड एक्सीडेंट का. और फिर से तारीख़ दे देंगे. और उस तारीख़ से पहले दामिनी को पाग़ल बनाकर पाग़लखाने में फेंक दिया जाएगा. और इस तरह न तो कोई सच्चाई के लिए लड़ने वाला रहेगा, न ही इंसाफ मांगने वाला. रह जाएगी तो सिर्फ तारीख़. और यही होता रहा है मीलॉर्ड तारीख़ पर तारीख़, तारीख़ पर तारीख़, तारीख़ पर तारीख़ मिलती रही है मीलॉर्ड लेकिन इंसाफ नहीं मिला मीलॉर्ड, इंसाफ नहीं मिला. मिली है तो सिर्फ ये तारीख़. कानून के दलालों ने तारीख़ को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है मीलॉर्ड. दो तारीख़ों के बीच अदालत के बाहर ये कानून का धंधा करते हैं, धंधा. जहां गवाह तोड़े जाते हैं, ख़रीदे जाते हैं, मारे जाते हैं. और रह जाती है सिर्फ तारीख़. लोग इंसाफ के लिए अपनी ज़मीन जायदाद बेचकर केस लड़ते हैं और ले जाते हैं तो सिर्फ तारीख़. औरतों ने अपने गहने-ज़ेवर, यहां तक कि मंगलसूत्र तक बेचे हैं इंसाफ के लिए और उन्हें भी मिली है तो सिर्फ तारीख़. महीनों, सालों चक्कर काटते काटते इस अदालत के कई फरियादी ख़ुद बन जाते हैं तारीख़ और उन्हें भी मिलती है तो सिर्फ तारीख़. ये केस पूरे हिंदुस्तान के कमज़ोर और सताए हुए लोगों का है. आज उन सबकी नजरें आप पर गड़ी हैं, आप पर. कि आप उन्हें क्या देते हैं. इंसाफ या तारीख़? अगर आप उन्हें इंसाफ नहीं दे सकते तो बंद कीजिए ये तमाशा. उखाड़ फेंकिए इन कटघरों को. फाड़ दीजिए, जला दीजिए कानून की इन किताबों को ताकि इंसाफ के ऐसे चक्कर में और तबाह न हों, बर्बाद न हों. - गोविंद, दामिनी (1993)
- अजय मेहरा, घायल (1990)
#26. लाल सिंह तुमने अपनी गुंडागर्दी की बदौलत ज़मीनों पर नाज़ायज क़ब्जे करके बहुत बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी कर दी हैं. तेरी भूख़ इतनी बढ़ गई है कि अब तू स्कूल और शमशान जैसी जगहों को भी हड़प लेना चाहता है. ये कलीना वाले प्लॉट के पेपर्स हैं लाल सिंह. आज के बाद इस ज़मीन पर तेरी कोई दख़लअंदाज़ी नहीं होगी. इन पेपर्स पर साइन कर, तेरी ज़िंदगी के पांच साल मैं बख़्श देता हूं. - देवा, ज़िद्दी (1997)
#27. क्यों? अंहिसा से अपना हक मांगने वाला सचदेव सरे-बाज़ार काट कर फेंक दिया गया.. क्यों? उसकी बीवी मालती तुम्हारे ही पुलिस स्टेशन में सर पटक-पटक कर पागल हो गई और उसे इंसाफ नहीं मिला.. क्यों? एक बुज़ुर्ग को चौराहे पर कुत्ता बनाया जाता है, उसका तमाशा बनाया जाता है. पुलिस मुंह फेरकर चली जाती है.. क्यों? 150 परिवार अपनी ज़मीन के लिए, अपनी रोज़ी-रोटी के लिए कभी किसी मिनिस्टर के सामने गिड़गिड़ाते हैं, तो कभी कात्या के दरवाज़े पर अपना माथा टेकते हैं तो कभी तुम्हारी जेबें गरम करते हैं, फिर भी उनके घर में चूल्हे ठंडे पड़े हैं. जानते हो क्यों? क्योंकि कानून और इंसान ताकतवर के घर ग़ुलाम बनकर बैठे हैं. और जब तक ऐसा रहेगा ख़ून यूं ही बहेगा. इस ख़ून के जिम्मेदार तुम हो. तुम जैसे ग़ैर-जिम्मेदार पुलिसवाले एक आम आदमी को घातक बनने पर मजबूर करते हैं. तुम्हारे पापों की कीमत चुकाई है तुम्हारी बेटी ने. - काशी, घातक (1996)
- मेजर कुलदीप सिंह, बॉर्डर (1997)
#29. नहीं! तुम सिर्फ मेरी हो, और किसी की नहीं हो सकती. हम दोनों के बीच अगर कोई आया तो समझो वो मर गया. काजल! इन हाथों ने सिर्फ हथियार छोड़े हैं, चलाना नहीं भूले. अगर इस चौखट पर बारात आई तो डोली की जगह उनकी अर्थियां उठेंगी और सबसे पहले अर्थी उसकी उठेगी जिसके सिर पर सेहरा होगा. लाशें बिछा दूंगा, लाशें! - करण, जीत (1996)
#30. अब पुलिस नहीं, पुलिस नहीं. अगर मदद करना चाहते हो तो बाहर रहो. इस लड़ाई से बाहर रहो. मार देंगे उसे (मुन्ना को), मर जाने दो. मार देंगे दुकान वालों को, उन्हें भी मर जाने दो. लेकिन अब पुलिस का सहारा नहीं चाहिए. अब जो जिएगा वो अपने पैरों पर चलेगा, पुलिस की बैसाखी लेकर नहीं. इस लड़ाई में हमारी पूरी जीत होगी, या पूरी हार. जो गुर्दा रखता है, उसे ही जीने का हक़ है. वही जिएगा. - काशी, घातक (1996)
- देवा, ज़िद्दी (1997)
- नरसिम्हा, नरसिम्हा (1991)
- काशी, घातक (1996)
#34. जवानो, दुश्मन सामने खड़ा है. हम 120 हैं, वो पूरे टैंक रेजीमेंट के साथ है. कमांड ने हमें पोस्ट छोड़कर पीछे हट जाने के लिए कहा है. मगर फिर भी आखिरी फैसला मुझ पर छोड़ा है. और मैंने फैसला ये किया है कि मैं मेजर कुलदीप सिंह, अपनी पोस्ट छोड़कर नहीं जाऊंगा. अब तुम लोगों का फैसला मैं तुम पर छोड़ता हूं. जो लोग ये पोस्ट छोड़कर जाना चाहते हैं, जा सकते हैं. - मेजर कुलदीप सिंह, बॉर्डर (1997)
#35. आप का काम मैं देख रहा हूं इंस्पेक्टर. आप शायद ये भूल रहे हैं कि ये वर्दी, ये कुर्सी, आपको हमारी सुनने के लिए मिली है. आप यहां बैठे हैं, हमारे लिए, और ये तरीका है आपका हमसे बात करने का. - अजय मेहरा, घायल (1990)
#36. कुलकर्णी तूने मेरे दो आदमी मारे, उनकी मौत तो मैं तुझे बख़्श भी सकता हूं मगर जिन तीन बेगुनाह लोगों को तूने मारा है उनका तो गुनाह की दुनिया से कोई वास्ता ही नहीं था. उन्हें मारकर तूने उनके परिवारों को भूख, गरीबी और तकलीफों में झोंक दिया. उनमें से एक अपने बूढ़े मां-बाप का इकलौता सहारा था. और जिस मज़दूर पर तूने गोलियां दाग़ी वो बारह लोगों का पेट भरता था. और अंसारी की विधवा की गोद में तीन महीने का बच्चा है. और ये सारे पाप तूने अपनी इस वर्दी पर एक और स्टार बढ़ाने के लिए किए हैं. - देवा, ज़िद्दी (1997)
#37. फिर मारूंगा, मैं फिर मारूंगा उन्हें, अगर मेरी आंखों के सामने होगा तो मैं फिर मारूंगा उन्हें. मैं नहीं देख सकता ये सब कुछ. नहीं देख सकता. कल अगर बाज़ार में भाभी का कोई हाथ पकड़ ले, तब भी आप मुझसे यही कहेंगे. - काशी, घातक (1996)
- अजय मेहरा, घायल (1990)
#39. देखो, ग़ौर से देखो, यही इस देश के हर बापजी का असली रूप है. ये एक ऐसा राक्षस है जो इस शहर के हर नौजवान को, आपके भाई को, आपके बेटे को, एक ऐसा ग़लीज़, गिरा हुआ इंसान बनाना चाहता है जो इसकी ड्योढ़ी पर दो रोटी और एक शराब की बोतल के लिए गिड़गिड़ाए, भीख मांगे. मेरी आप सबसे एक बिनती है. निकाल दीजिए इस बापजी का डर अपने दिलों से. आज से इसके हर फरमान को ठुकरा दीजिए. ताकि इसके दहशत के निजाम को ज़र्रा-ज़र्रा होते हर वो शख़्स देखे जो बापजी है या बापजी होने का मंसूबा रखता है. - नरसिम्हा, नरसिम्हा (1991)
- मेजर कुलदीप सिंह, बॉर्डर (1997)