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कैसे बने ये 11 कल्ट डायलॉग्स, कुछ तो स्क्रिप्ट में भी नहीं थे

बीते 50 सालों में ऐसे Hindi film dialogues आए हैं जिन्होंने न सिर्फ अपनी फ़िल्म को भारी सुपर-डूपर हिट बनाने में मदद की, बल्कि इंटरनेट और पॉप कल्चर पर आज भी छाए हैं. लेकिन ये Bollywood dialogues आए कहां से? कैसे लिखे गए? कुछ तो लिखे भी नहीं गए, फिर फ़िल्म में कहां से आए? जानेंगे यही सब.

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क्या आप जानते हैं, शोले के जिस हिट डायलॉग का क़िस्सा हम बता रहे हैं, वो सलीम जावेद ने नहीं लिखा था? ऐसे ही डायलॉग्स वाली फ़िल्मों की प्रतिनिधि तस्वीरें.

#1
"पुष्पा, आई हेट टियर्स"
- आनंद (राजेश खन्ना)
अमर प्रेम (1972)

ये 70 का दशक था. राजेश खन्ना (Rajesh Khanna) बैक टू बैक सुपर हिट फ़िल्में दे रहे थे. कोई सिल्वर जुबली पूरी करती, तो कोई गोल्डन जुबली. वे जो डायलॉग बोलते, वही लोगों की ज़ुबान पर चढ़ जाता था. इसी कड़ी में आया "पुष्पा, आई हेट टियर्स." फ़िल्म "अमर प्रेम" (Amar Prem) में राजेश खन्ना का पात्र आनंद, ये बात पुष्पा से कहता है, जो कोठे में रहती हैं. ये संवाद भारतीय सिनेमा के सबसे यादगार, सर्वकालिक संवादों में से एक साबित हुआ. इसके पीछे की कहानी ये है कि डायरेक्टर शक्ति सामंत (Shakti Samanta) को 1970 में रिलीज हुई अरबिंद मुखोपाध्याय की बंगाली फ़िल्म "निशि पद्म" (Nishi Padma) भा गई. इसमें उत्तम कुमार (Uttam Kumar) और साबित्री चैटर्जी (Sabitri Chatterjee) ने आनंद और पुष्पा के रोल किए थे. शक्ति सामंत ने इसके हिंदी रीमेक का मन बनाया. स्क्रीनप्ले लिखने का काम अरविंद मुखर्जी (Arvind Mukherjee) को थमाया गया. अरविंद ठहरे बंगाली मूल के. उनकी हिंदी थोड़ी कमज़ोर थी. उन्होंने पूरा का पूरा स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स बंगाली से अंग्रेज़ी में लिख दिए. फिर इन्हें हिंदी में अनुवाद करवाया जाना था. इसके लिए रमेश पंत (Ramesh Pant) को बुलाया गया. रमेश गीतकार और स्क्रीनप्ले राइटर थे. उन्होंने शक्ति सामंत की ही "कश्मीर की कली" (1964) और "ऐन ईवनिंग इन पैरिस" (1969) के स्क्रीनप्ले लिखे थे. रमेश ने अरविंद मुखर्जी के अंग्रेजी में लिखे स्क्रीनप्ले-डायलॉग्स को हिंदी में ट्रांसलेट किया. लेकिन एक डायलॉग ऐसा था जिसका एक हिस्सा उन्होंने अंग्रेजी में ही रहने दिया. उसके बाद ये कुछ यूं बन पड़ा - "मैंने तुम्हे कितनी बार कहा है पुष्पा, मुझसे ये आंसू नहीं देखे जाते - I hate tears." शायद रमेश पंत को लगा था कि इस एक्सप्रेशन को अंग्रेजी में ही रहने दिया जाए. क्योंकि आनंद बाबू अंग्रेजी में पढ़ा लिखा पात्र था. ऐसे में उसकी बातचीत में इंग्लिश के जुमलों का जाना नेचुरल ही था. ये डायलॉग आज भी हिट है. पॉप कल्चर का हिस्सा है. आज भी कोई अपने किसी प्रेमी या दोस्त को रोता या नाराज़ देखें, तो कूल साउंड होते हुए कह ही देता/देती है - “पुष्पा, आई हेट टियर्स.”

#2 
"अरे ओ सांभा"
- गब्बर (अमजद ख़ान)
शोले (1975)

70 के दशक में आई एक और कल्ट फ़िल्म. इसका नाम पहले "अंगारे" था, पर बाद में बना "शोले" (Sholay). भारत में इमरजेंसी लगी हुई थी. लेकिन फ़िल्म जबरदस्त हिट हुई. कुछ फ़िल्म क्रिटिक्स ये भी कह देते हैं कि इसके बाद भारतीय सिनेमा को "शोले" से पहले और बाद के कालखंड के तौर पर देखा गया. इस फ़िल्म में जय और वीरू की जोड़ी के बाद एक दूसरी जोड़ी भी थी, जो महज 10 सेकेंड के अपने डायलॉग की वजह से अमर हो गई. गब्बर और सांभा की जोड़ी. डायलॉग कौन सा? जब गब्बर पूछता है - "अरे ओ सांभा, कितना इनाम रखी है सरकार हम पर?" तो भरी दुपहरी में, चिलचिलाती धूप में, गर्म चट्टान पर बैठा सांभा बोलता है - "पूरे 50 हज़ार." मज़े की बात ये है कि सलीम ख़ान (Salim Khan) और जावेद अख़्तर (Javed Akhtar) ने फ़िल्म का पूरा स्क्रीनप्ले लिख लिया था लेकिन उसमें सांभा का किरदार था ही नहीं. तो फिर "शोले" में सांभा आया कहां से? जवाब है कि फ़िल्म के डायलॉग्स में से. सलीम-जावेद को लगा कि अगर गब्बर जैसा विलेन ख़ुद बोलेगा कि सरकार ने उस पर 50 हज़ार का इनाम रखा है, तो बहुत खराब लगेगा. ये उसके किरदार को शोभा नहीं देगा. ऐसे में गब्बर को विलेन मुकम्मल करने के लिए फ़िल्म में सांभा की एंट्री हुई. और इस डायलॉग की भी. "पूरे 50 हज़ार" इन तीन शब्दों के लिए सांभा फ़िल्म में आया. जावेद अख़्तर को भी उम्मीद नहीं थी कि दुनिया उन्हें "कितने आदमी थे" और "पूरे 50 हज़ार" जैसे डायलॉग्स के लिए याद रखेगी.  

#3 
"मोगैंबो ख़ुश हुआ"
- मोगैंबो (अमरीश पुरी)
मिस्टर इंडिया (1987)

80 के दशक की एक बेहद आइकोनिक फ़िल्म. नाम "मिस्टर इंडिया" (Mr. India). इसमें अनिल कपूर (Anil Kapoor) और श्रीदेवी (Sridevi) लीड रोल्स में थे. ये भारत की गिनी-चुनी सुपरहीरो फ़िल्मों में से एक है. हर सुपरहीरो को एक बढ़िया विलेन की ज़रूरत होती है. इस फ़िल्म ने भारतीय फ़िल्म इतिहास को उसके टॉप विलेन्स में से एक दिया था - मोगैंबो. इसे अमरीश पुरी (Amrish Puri) ने निभाया था. वो एक ऐसा खूंखार विलेन था जो चुटकियां बजाता था. अपनी कुर्सी के हत्थे पर रखे ग्लोब पर हाथ फिराता था. भारत को बम से उड़ाने की धमकी भी देता था. लेकिन इन सब चीज़ों से ज्यादा जिस चीज़ ने उसके लिए वर्क किया, जिसने उसे एक डरावना विलेन बनाया, वो था सिर्फ एक डायलॉग, जिसे वो क्रूर हंसी हंसकर, घृणित तरीके से बोलता था - "मोगैंबो खु़श हुआ." इस डायलॉग के साथ एक मज़ेदार किस्सा जुड़ा है. पहले फ़िल्म के डायलॉग्स लिखे गए. फिर एक्टर्स को चुना गया. जावेद अख़्तर इससे पहले भी अपने लिखे हुए डायलॉग्स की बदौलत गब्बर जैसे विलेन कायम कर चुके थे, अमर कर चुके थे. अब बारी थी मोगैंबो की. अख़्तर फ़िल्म की कॉमिकल टोन को समझ गए थे. उन्होंने डायलॉग्स लिख डाले. जब डायरेक्टर शेखर कपूर (Shekhar Kapur) ने ये डायलॉग पढ़ा तो उन्हें कुछ जमा नहीं. वो चाहते थे कि ये डायलॉग बदल दिया जाए. पर जावेद ने उन्हें ये कहकर भरोसा दिलाया दिया, "शेखर साहब, जब जब कपिल देव छक्का मारेगा, तब तब लोग कहेंगे - मोगैंबो खुश हुआ. जब जब लोग तीन पत्ती खेलेंगे और उन्हें हुकूम के तीन इक्के मिलेंगे तब तब उनके मुह से निकलेगा - मोगैंबो खुश हुआ. आप हम पर भरोसा रखिए बस." फिर क्या था, किरदार निभाने के लिए अमरीश पुरी को बुलाया गया. उनकी अदाकारी से डायलॉग में चार चांद लग गए. फिर कुछ समय बाद डायरेक्टर शेखर, कपिल देव का एक मैच देख रहे थे. इधर कपिल देव ने छक्का मारा. उधर स्टेडियम में बैठे भारतीय फैन्स ने "मोगैंबो ख़ुश हुआ" का बैनर ऊपर कर दिया. और, यूं जावेद अख़्तर का कहा सच हो गया.

#4 
"इतना सन्नाटा क्यों है भाई"
- रहीम चाचा (ए. के. हंगल) 
शोले (1975)

ये डायलॉग "शोले" के सबसे मार्मिक पलों में आता है. रामगढ़ में शोक की लहर है. गब्बर गांव के बेहद प्यारे से लड़के अहमद को मार देता है. सब गांव वाले उसकी लाश के पास खड़े हैं. लेकिन उसके पिता, रहीम चाचा को पता नहीं. वे देख नहीं सकते. वे आते हैं और इस चुप्पी पर बोलते हैं - "इतना सन्नाटा क्यों है भाई." रहीम चाचा का रोल वयोवृद्ध एक्टर ए. के. हंगल ने निभाया था. जब इंटरनेट आया तो ये डायलॉग खूब हिट हुआ. लोगों ने इसके मीम और स्टिकर बना डाले. हंसी मज़ाक में भी इस डायलॉग का इस्तेमाल होने लगा. इस फ़िल्म के डायलॉग्स सलीम और जावेद ने लिखे थे. लेकिन ये डायलॉग इन दोनों ने नहीं लिखा था. तो फिर ये कहां से आया?

तब इंडस्ट्री में एक नया लिखाड़ आया था, जिसकी कलम से पटाखों जैसे डायलॉग निकलते थे. उसने मनमोहन देसाई की "रोटी" (Roti, 1974) के अतिरिक्त संवाद लिखे थे, जो थियेटर में लोगों को हक्का बक्का कर रहे थे. जैसे कि उनका ये डायलॉग कि - “आदमी के सीने में ख़ंजर भोकने से वो सिर्फ एक बार मरता है... लेकिन जब किसी का दिल टूटता है ना, तो उसे बार-बार मरना पड़ता है, हर रोज़ मरना पड़ता है.” इस राइटर का नाम था - कादर ख़ान.  जावेद सलीम भी उनके काम से इम्प्रेस थे. सलीम-जावेद और रमेश सिप्पी “शोले” को यादगार बनाना चाहते थे. इसलिए उन्होंने फ्रैश और करारी अप्रोच वाले कादर की मदद नए किस्म के डायलॉग्स लिखने में ली. बताया जाता है कि कादर की बदौलत ही "इतना सन्नाटा क्यों है भाई" और "हम अंग्रेजों के ज़माने के जेलर हैं" जैसे डायलॉग्स आए. “शोले” सुपरहिट हुई. डायलॉग्स और भी हिट हुए. 

बाद में जाकर कादर ने "अग्निपथ" (Agneepath), "मुकद्दर का सिकंदर" (Muqaddar Ka Sikandar) और "अमर अकबर एंथनी" (Amar Akbar Anthony) जैसी ढेरों फ़िल्मों के हिट डायलॉग्स लिखे.

पढ़ें - शोले के 'रहीम चाचा' जो बुढ़ापे में फिल्मों में आए और 50 साल काम करते रहे  

#5 
"तारीख़ पे तारीख़"
- गोविंद (सनी देओल)
दामिनी (1993)

"तारीख़ पे तारीख़, तारीख़ पे तारीख़ मिलती गई मीलॉर्ड पर इंसाफ नहीं मिला, इंसाफ नहीं मिला" - ये डायलॉग आज भी रोंगटे खड़े कर देता है. भले ही ये फ़िल्म "दामिनी" (Damini) की कहानी थी. न्याय व्यवस्था की कहानी थी. लेकिन सनी देओल (Sunny Deol) अपने छोटे से रोल में भी मेन लीड्स में से एक हो गए. इसकी एक बड़ी वजह थी - "तारीख़ पे तारीख़" का ढाई मिनट लंबा डायलॉग. जो जब ख़त्म हुआ तो सीन में मौजूद लोगों ने भी तालियां बजाईं और थियेटरों में दर्शकों ने भी. राजकुमार संतोषी (Rajkumar Santoshi) "दामिनी" को डायरेक्ट कर रहे थे. उन्होंने ही डायलॉग्स भी लिखे थे. उन्होंने भारतीय अदालतें देखी थीं. उनका मानना था कि अदालतें काफी शांत होती हैं. उन्होंने वहां लोगों को अपनी सारी अमानत लुटाते हुए देखा था. केस अगली तारीख़ पर डाल दिया जाता था और इंसाफ नहीं मिलता था. इसलिए उन्होंने अपनी फ़िल्म में ड्रामा डाला और ये मोनोलॉग नुमा डायलॉग लिखा. ये असल में संतोषी की तरफ से भारत की न्यायपालिका पर एक कटाक्ष था. हालांकि उन्हें भी नहीं पता था कि सनी इस तेज़ाबी अंदाज़, इस भयंकर गुस्से में डिलीवरी करेंगे. पर जब फाइनल टेक हुआ तो वे बेहद ख़ुश थे.

पढ़ें - सनी देओल के 40 चीर देने और उठा-उठा के पटकने वाले डायलॉग!

#6 
"आई लव यू ककक किरन"
- राहुल मेहरा (शाहरुख़़ ख़ान)
डर (1993)


"डर" (Darr) शाहरुख़ ख़ान (Shahrukh Khan) के करियर की एक ज़रूरी फ़िल्म है. ये वो वक्त था जब उनकी राज वाली रोमैंटिक हीरो की इमेज आनी बाकी थी. तब शाहरुख़ का यही मानना था कि नेगेटिव रोल में ही वो जच रहे हैं. उनकी ये धारणा "बाज़ीगर" (Baazigar) में विलेन के रोल को मिली सक्सेस से और बलवान हो गई. इसी तर्ज पर उन्होंने "डर" चुनी. इसमें उन्होंने एक जानलेवा आशिक का किरदार निभाया. फ़िल्म के एक डायलॉग ने राहुल मेहरा के किरदार को और भी कन्विंसिंग बना दिया. जिसे बहुत मिमिक किया जाता है. जो पॉप कल्चर में इस्तेमाल होता रहता है. वो था - "आई लव यू ककक किरन." अगर ये डायलॉग सिर्फ "आई लव यू किरन" होता", तो क्या इतना फेमस हो पाता? जब उसमें तीन "क" जुड़े तब डायलॉग कुछ हटके हुआ. इन तीन "क" के पीछे भी एक कहानी है. ये इम्प्रोवाइजेशन भी शाहरुख़ का ही था. उन्होंने अपने स्कूल के दिनों से प्रेरणा ली. स्कूल में उनका एक मित्र अकसर हकलाता था. शाहरुख़ ने इस चीज को लेकर कुछ डॉक्युमेंट्रीज़ देखी. उन्होंने समझा कि कुछ लोगों का दिमाग एक तरह की ध्वनि के प्रति जागरूक हो जाता है. उस ध्वनि या उससे शुरू होने वाले शब्दों पर वे लोग हकलाने लगते हैं. शाहरुख़ ने सोचा कि उन्हें फ़िल्म में किरण शब्द पर हकलाना चाहिए. इससे उनका किरदार अलहदा, सनकी और जुनूनी सा दिखेगा. शाहरुख़ ने ये आइडिया अपने दोस्त आदित्य चोपड़ा (Aditya Chopra) को दिया, जो "डर" के डायरेक्टर यश चोपड़ा (Yash Chopra) के बेटे और फ़िल्म के असिस्टेंट डायरेक्टर थे. आदित्य ने ये बात अपने पिता को बताई. उन्हें आइडिया पसंद आया. इसी तरह "आई लव यू किरन", “आई लव यू 'ककक' किरन बन गया.”

#7 
"बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी छोटी बातें होती रहती है सेन्योरीटा"
- राज मल्होत्रा (शाहरुख़ ख़ान)
दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995)

90 के दशक के शुरू में भारत का आर्थिक उदारीकरण हुआ. इंडिया का मार्केट दुनिया के लिए खोला गया. इसी काल में यंग आदित्य चोपड़ा बतौर डायरेक्टर अपनी पहली फ़िल्म बना रहे थे. ये एक यंग, रोमैंटिक लव स्टोरी थी. फ़िल्म का नाम था "दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे." इस पृष्ठभूमि में फ्रेश डायलॉग्स होने बेहद ज़रूरी थे. ऐसे डायलॉग्स जो पहले कभी किसी ने न सुने हों. इन्हें लिखने का ज़िम्मा जावेद सिद्दीकी (Javed Siddiqui) को सौंपा गया. जावेद इससे पहले "डर" और "बाज़ीगर" जैसी फ़िल्मों के लिए डायलॉग्स लिख चुके थे. "DDLJ" उनकी 50वीं फ़िल्म थी. वो असाइनमेंट समझ गए. यहीं से कुछ यादगार डायलॉग्स का आविष्कार हुआ. "बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती रहती है सेन्योरीटा" भी इनमें से एक था. इस डायलॉग का असर दुनिया भर के सिने दर्शकों पर कितना ज़्यादा था, ये बताने की ज़रूरत नहीं. लेकिन इसमें ये सेन्योरीटा शब्द कहां से आया? इसके पीछे भी एक कहानी है. पहले सिद्दीकी ने लिखा था - "बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती रहती है." लेकिन यहां ये समझ नहीं आ रहा था कि शाहरुख़ का किरदार काजल के किरदार को क्या कहकर पुकारेगा. "डार्लिंग" और "लेडी" जैसे शब्दों पर भी विचार किया गया. लेकिन बात नहीं जमी. तभी सिद्दीकी को "बाज़ीगर" याद आई. सिद्दीकी काजल (Kajol) को "बाज़ीगर" की कहानी सुनाने गए थे. तब काजल ने एक स्पैनिश फ्रॉक पहनी थी. तब सिद्दीकी ने उनकी तारीफ करते हुए उन्हें सेन्योरीटा कह कर पुकारा. फिर DDLJ में राज ने भी सिमरन को सेन्योरीटा कह कर पुकारा. फ़िल्म की आधी कहानी यूरोप में सेट थी इसलिए सेन्योरीटा का संबोधन, डायलॉग में फिट बैठ गया. दर्शकों के बीच ये एक मुहावरा सा बन गया.

#8 
"जादू की झप्पी"
- मुन्ना (संजय दत्त)
मुन्नाभाई एमबीबीएस (2003)

डायरेक्टर राजकुमार हीरानी (Rajkumar Hirani) और प्रोड्यूसर विधु विनोद चोपड़ा (Vidhu Vinod Chopra) ने "3 इडियट्स" (3 Idiots), "लगे रहो मुन्नाभाई" (Lage Raho Munnabhai), "पीके" (PK) जैसी कमाल फ़िल्में बनाई. भारत में कॉमेडी फ़िल्मों का नया मुहावरा गढ़ा. लेकिन ये सब शुरू हुआ "मुन्नाभाई एमबीबीएस" (Munnabhai MBBS) से. "जादू की झप्पी" का कॉन्सेप्ट इसी फ़िल्म से आया. आज भी गले मिलने का "जादू की झप्पी देने" से बेस्ट कोई एक्सप्रेशन नहीं. "जादू की झप्पी" डायलॉग से ज़्यादा एक कॉन्सेप्ट है. एक इमोशन है. पर इसका इन्वेन्शन कहां से हुआ? तो जवाब है, "1942: ए लव स्टोरी" (1942: A Love Story) के सेट पर. यस!! तो हुआ कुछ यूं कि विधु विनोद चोपड़ा इसे डायरेक्ट कर रहे थे. ट्रेलर एडिट करने के लिए उन्होंने संजय लीला भंसाली (Sanjay Leela Bhansali) को बुलाया. मगर उनके ट्रेलर से विधु ख़ुश न थे. बल्कि उन्होंने गुस्से में संजय को डांटा भी. इस पर संजय ने राजकुमार हीरानी से मदद मांगी. राजू ने फाइनल ट्रेलर काटा. विधु को राजू का काम काफी पसंद आया. इतना पसंद आया कि ट्रेलर देखते ही विधु ने हीरानी को एक जादू की झप्पी दे दी. यानी गले लगा लिया. बाद में "मुन्नाभाई एमबीबीएस" की राइटिंग के दौरान इसी क़िस्से को याद करते हुए "जादू की झप्पी" का डायलॉग रचा गया.  

#9 
"बेटा तुमसे ना हो पाएगा"
- रामाधीर सिंह (तिग्मांशु धूलिया)
गैंग्स ऑफ वासेपुर-2 (2012)

"गैंग्स ऑफ वासेपुर" (Gangs of Wasseypur) का एक एक डायलॉग रिलेटेबल है. ख़ासकर एक डायलॉग, जब रामाधीर सिंह अपनी अक्षम औलाद से कहता है, "बेटा, तुमसे ना हो पाएगा." ये डायलॉग अपने आप में एक फिनोमिना है. मीम्स में ये डायलॉग आज भी हिट है. अगर कभी भारतीय मूल के मीम्स पर कोई किताब लिखी जाएगी तो ये उसमें ज़रूर होगा. लेकिन क्या हो अगर हम कहें कि ये डायलॉग इस फ़िल्म में होना ही नहीं था. अनुराग कश्यप की स्क्रिप्ट में पहले ऐसा कोई डायलॉग नहीं था. ये डायलॉग शूट के दौरान ही इम्प्रोवाइज़ किया था रामाधीर का रोल कर रहे तिग्मांशु धूलिया ने. बेटे जे.पी. (सत्यकाम आनंद) पर उनके किरदार का गुस्सा और फ्रस्ट्रेशन उनके मुंह से यूं निकल आया. चूंकि तिग्मांशु एनएसडी से पढ़े हैं और अच्छे एक्टर रहे हैं तो उन्होंने इम्प्रोवाइज़ अच्छे से किया. जब “गैंग्स…” रिलीज़ हुई तो इस डायलॉग और सीन में ख़ूब हंसी निकलवाई. तब रामाधीर ने अपनी चिढ़ इस संवाद के जरिए निकाली थी, आज हम अपने दोस्तों को "बेटा तुमसे ना हो पाएगा" का स्टीकर या जिफ भेजकर, खुश होते हैं.  

#10 
“साला ये दुःख काहे खतम नहीं होता बे”
- दीपक कुमार (विकी कौशल)
मसान (2015)

ये डायलॉग भी इंडियन सिनेमा के टाइमलेस डायलॉग्स में शुमार हुआ. जिसे "मसान" (Masaan) में दीपक डोम का रोल प्ले कर रहे विकी कौशल (Vicky Kaushal) बोलते हैं, जब उसकी गर्लफ्रेंड अचानक मर जाती है और दोस्त उसे ढांढस बंधा रहे होते हैं. असल में डायरेक्टर नीरज घैवन और वरुण ग्रोवर की लिखी इस फ़िल्म में इस डायलॉग का एक लंबा वर्ज़न होने वाला था. लेकिन शूट के दौरान विकी ने इसे इम्प्रोवाइज़ किया. असल में विकी को शराब पीने की एक्टिंग करनी थी और ये लंबा डायलॉग बोलना था. लेकिन किरदार को रियल बनाने के लिए उन्होंने सच में शराब पी ली. फिर इस सीन के लिए विकी ने अपने जीवन की एक फिक्शनल बैक-स्टोरी बनाई. कि उनकी मां मर चुकी हैं और परिवार ने ये बात उनसे छुपा ली है. सारा क्रियाकर्म उनके बिना ही कर दिया गया है. अब जब पता चला तो उन्हें बेइंतहा दुःख है कि वो अपनी मां को आखिरी बार अलविदा नहीं कह पाए. अब उनके पास ये दुःख भोगने के अलावा कोई चारा नहीं बचा. विकी ने शराब पीकर जब ये बैक-स्टोरी सोची, लेकिन जब टेक चालू हुआ तो वो लंबा वाला डायलॉग भूल गए. उन्हें सिर्फ इतना याद रहा - "साला ये दुःख काहे नहीं खतम होता बे." इतना बोल वो फूट-फूट कर रोने लगे. और ये “मसान” के सबसे यादगार दृश्यों में से एक बन गया. बाद में जाकर इंडिया के पॉप कल्चर का हिस्सा बना. 

#11 
“पुष्पा नाम सुनके फ्लावर समझे क्या, फायर है मैं!”
- पुष्पाराज (अल्लू अर्जुन) 
पुष्पा: द राइज़ (2021)

"पुष्पा: द राइज़" (Pushpa: The Rise) के दो डायलॉग्स ने इंटरनेट, टीवी, कॉमेडी शोज़ और पॉप कल्चर में ख़ूब जगह बनाई. ये डायलॉग्स थे - "पुष्पा नाम सुनके फ्लावर समझे क्या, फायर है मैं!" और “पुष्पा… मैं झुकेगा नहीं साला.” लेकिन मज़े की बात है कि ये दोनों डायलॉग्स फ़िल्म के ओरिजनल वर्जन में हैं ही नहीं. तो फिर ये कहां से आए? इसका श्रेय जाता है श्रेयस तलपदे (Shreyas Talpade) को. उन्होंने "पुष्पाः द राइज़" में पुष्पाराज की हिंदी डबिंग की थी. फ़िल्म के तेलुगु वर्जन में ये दो डायलॉग्स थे. पहला था - "पुष्पा अंटे फ्लावर, अनुकुंतिवा फायर," मतलब - पुष्पा के दो मतलब होते हैं फूल और आग. दूसरा था - "पुष्पा, थैग्डहेला," यानी - पुष्पा, कहीं नहीं जाने वाला. जब साउंडप्रूफ स्टूडियो में खड़े होकर श्रेयस इन लाइन्स को प्रोसेस कर रहे थे तो उन्हें इनका हिंदी तर्जुमा जमा नहीं. उन्हें लगा कि इन डायलॉग्स का हिंदी अनुवाद पुष्पाराज की टपोरी स्टाइल पर फिट नहीं बैठ रहा. इसलिए श्रेयस ने इन्हें बदल दिया. पहले के बदले उन्होंने बोला - “पुष्पा नाम सुनके फ्लावर समझे क्या, फायर है मैं!” दूसरे डायलॉग में उन्होंने कहा - "पुष्पा… मैं झुकेगा नहीं साला." ये डायलॉग्स बदले और फ़िल्म को देखने का एक्सपीरियंस बदल गया, फ़िल्म की कमाई तक बदल गई. 

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