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देश को दो PM देने वाली वाराणसी लोकसभा सीट की कहानी, जहां दिग्गज इतिहास बनाते और मिटाते रहे
बनारस के अस्सी घाट के पास की मशहूर पप्पू की अड़ी के बारे में कहा जाता है कि दिल्ली में मौजूद संसद भवन के अलावा अगर कहीं लोकतंत्र है तो वो पप्पू की अड़ी पर है.
वाराणसी यानी बनारस. नाम सुनते ही ज़ेहन में सबसे पहले क्या आता है ? बनारस के घाट, वहां की गलियां, वहां की दुकानों पर उबलती चाय. अस्सी घाट के पास की मशहूर पप्पू की अड़ी के बारे में कहा जाता है कि दिल्ली में मौजूद संसद भवन के अलावा अगर कहीं लोकतंत्र है तो वो पप्पू की अड़ी पर है. खैर, ये तो एक कहावत है जो काशी की अल्हड़ और मदमस्त मिजाज को दर्शाती है. इस सीट का इतिहास भी बड़ा लाजवाब है. वाराणसी लोकसभा सीट पर जीत दर्ज करने वाले दो ऐसे लोग हैं जो पीएम की कुर्सी पर भी बैठे. एक तो यहां से वर्तमान सांसद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. दूसरे, बलिया के बाबू साहब के नाम से मशहूर चंद्र शेखर.
वाराणसी, बनारस, काशी. कोई भी नाम ले लीजिये, मतलब एक ही है. घाटों का शहर. लेकिन 2014 के बाद से बनारस न सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि राजनीतिक रूप से भी बहुत अहम हो गया है. वजह यहां से सांसद हैं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. हालांकि ये पहली बार नहीं है जब वाराणसी लोकसभा सीट पर भाजपा का परचम लहराया हो. इससे पहले भी भाजपा यहां से चुनाव जीत चुकी है. लेकिन 2014 से ये एक वीआईपी सीट बनी हुई है.
वाराणसी लोकसभा सीट पर 1 जून को आखिरी चरण में वोटिंग भी होनी है. ऐसे में सभी पार्टियों के दिग्गजों ने बनारस में अपना डेरा डाल दिया है. भाजपा के एस जयशंकर, जेपी नड्डा से लेकर विपक्षी नेता अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी भी बनारस के प्रवास पर हैं. इस बार वाराणसी की लोकसभा से भाजपा के कैंडिडेट नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस ने अपने प्रदेश अध्यक्ष अजय राय को उतारा है. गौर करने वाली बात ये है कि यही अजय राय कभी समाजवादी पार्टी के टिकट पर यहां से लोकसभा चुनाव लड़े थे. इस लोकसभा सीट का इतिहास काफी रोचक रहा है. सब विस्तार से जानते हैं.
1945 में दूसरा विश्वयुद्ध ख़त्म होने के दो साल बाद 1947 में भारत आज़ाद हुआ. फिर 1950 में संविधान भी लागू हो गया और फिर अगले बरस 1951 में भारत ने देखा अपना पहला आम चुनाव. कई साल अंग्रेज़ों के अधीन रहने के बाद आखिरकार भारत में पहला चुनाव होने जा रहा था. बनारस लोकसभा में भी चुनाव की रणभेरी बज उठी. तब देश में कुल 489 सीटें थीं. और वोटर्स की संख्या 17 करोड़.
यहां से सबसे पहले जीतने वाले नेता थे त्रिभुवन नारायण सिंह. कांग्रेस के दिग्गज नेता थे. 1950 से 52 तक जो प्रोविज़नल पार्लियामेंट बनी थी, उसके सदस्य भी रहे. आज जो चंदौली डिस्ट्रिक्ट के नाम से जाना जाता है, तब वो भी बनारस का ही हिस्सा था. इस सीट को तब बनारस ईस्ट नाम से जाना जाता था. 1952 और 1957 दोनों आम चुनावों में त्रिभुवन नारायण सिंह ने जीत दर्ज की. त्रिभुवन नारायण सिंह का कद इतना बड़ा था कि उन्होंने 1957 में दिग्गज समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया को चुनाव हराया था.
त्रिभुवन नारायण सिंह (फोटो- विकीपीडिया)
इनके अलावा जो मेन बनारस सीट थी उसे बनारस सेंट्रल कहा जाता था, वहां से रघुनाथ सिंह ने जीत दर्ज की. रघुनाथ सिंह बनारस के ही रहने वाले थे. इसके बाद वो लगातार 1957 और 1962 में भी बनारस से जीत दर्ज करने में सफल रहे. फिर साल आया 1967. देश चीन और पाकिस्तान से जंग लड़ चुका था. अब देश में वो दौर शुरू हो गया था जहां लोग एक गैर-कांग्रेसी विकल्प को भी आज़मा रहे थे. 1967 के चुनाव में बनारस लोकसभा से कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया-मार्क्सवादी के सत्य नारायण सिंह ने 1 लाख 5 हज़ार, 784 वोट हासिल किए और विनर रहे. कांग्रेस दूसरे और भारतीय जन संघ तीसरे नंबर पर रही.
रघुनाथ सिंह (फोटो- विकीपीडिया)
इसके बाद आये 1971 के चुनाव. देश में जंग के बादल मंडरा रहे थे. ऐसा लगने लगा था कि कभी भी पाकिस्तान से जंग छिड़ सकती है. 71 के चुनाव बड़े ख़ास थे. इंदिरा गांधी देश में लोकप्रिय हो चुकी थीं. इस बार कांग्रेस के राजाराम शास्त्री बनारस से कांग्रेस का परचम फहराने में सफल रहे. उन्होंने 85 हज़ार 848 के अंतर से चुनाव जीता.
राजाराम शास्त्री (फोटो- विकीपीडिया)
इसके बाद देश के सियासी हालात तेज़ी से बदले. 1975 में इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया. बहुत सारे विपक्षी नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया. लेकिन अंदर ही अंदर देश में अब गैर-कांग्रेसी विकल्प उभरने लगे थे. इमरजेंसी के दौरान की गई ज़्यादतियों ने जनता के मन में गुस्सा भर दिया था. इमरजेंसी का दौर ख़त्म हुआ और 1977 में देश में चुनाव हुए. इस बार जनता पार्टी के चंद्र शेखर ने बनारस में जीत दर्ज की और देश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. चंद्र शेखर, जो बलिया के बाबू साहब के नाम से मशहूर थे. युवा तुर्क और जोशीले अंदाज़ वाले नेता. लेकिन जनता पार्टी की सरकार एक जल्दबाज़ी में बनाया हुआ गठजोड़ था, जिसमें सबके हित आपस में टकरा रहे था.
पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर (फोटो-विकीपीडिया)
उधर इंदिरा गांधी की राजनैतिक यात्रा हिचकोले खा रही थी. ऐसा लग रहा था कि इमरजेंसी की वजह से उनकी राजनीति ख़त्म हो गई है. लेकिन इसी बीच एक ऐसी घटना घटी जिसने इंदिरा गांधी को फिर से लोकप्रिय बना दिया. ये घटना हुई थी बिहार में. पटना से करीब 70 किलोमीटर दूर एक गांव था, बेलछी. वहां दलित और कुर्मी समुदाय के बीच हुए संघर्ष में दलितों की सामूहिक हत्या कर दी गई थी. इंदिरा ने बेलछी जाने का फैसला किया. जविएर मोरो की किताब ‘दी रेड साड़ी’ में इस घटना का जिक्र विस्तार से किया गया है. वो लिखते हैं,
“13 अगस्त के दिन पटना में भारी बारिश हो रही थी. इंदिरा गांधी विमान से पटना पहुंचीं और फिर बेलछी की ओर रवाना हो गईं. हालांकि, वह कार से बेलछी नहीं पहुंच सकती थीं. बारिश और कीचड़ ने उनका रास्ता रोक दिया. इसके बाद वह कुछ दूर ट्रैक्टर से चलीं. इंदिरा के साथ के लोगों ने उन्हें आगे ना जाने की सलाह दी लेकिन उन्होंने बेलछी पहुंचने की ठान ली थी. बीच में एक नदी भी थी जो बारिश की वजह से उफान पर थी. अब दिक्कत थी कि इंदिरा गांधी को नदी कैसे पार कराई जाए. तभी वहां एक हाथी का इंतजाम किया गया. हाथी पर बैठने के लिए हौदा भी नहीं था लेकिन इंदिरा गांधी हाथी पर बैठने को तैयार हो गईं. इंदिरा गांधी के पीछे प्रतिभा देवी सिंह पाटिल बैठी थीं. वह इतना डरी थीं कि इंदिरा गांधी की साड़ी का पल्लू पकड़ रखा था. कमर तक पानी में चलकर आखिरकार वह बेलछी गांव पहुंच गईं. अपनी पूर्व प्रधानमंत्री को गांव में देखकर लोग खुशी से झूम उठे. यहां लोगों ने उनका जमकर स्वागत किया और इंदिरा गांदी ने भी उनके आंसू पोछे. इंदिरा गांधी की हाथी पर बैठने वाली तस्वीर देश ही नहीं विदेश तक चर्चा का विषय बन गई. बिहार के दलित स्वीकार करने लगे कि उन्होंने इंदिरा गांधी का समर्थन ना करके गलत किया. यहीं से इंदिरा गांधी का राजनीतिक करियर एक बार फिर चमकने लगा. इस घटना के बाद इंदिरा गांधी की एक दिन की गिरफ्तारी ने उनकी लोकप्रियता को और बढ़ा दिया.”
बेलछी में इंदिरा गांधी (फोटो- इंडिया टुडे)
अब वापस आते हैं बनारस लोकसभा की सीट पर. इंदिरा गांधी की लोकप्रियता वापस से आसमान पर थी. 1980 में जनता पार्टी में टूट पड़ने के बाद लोकसभा चुनाव हुए और कांग्रेस (आई) ने बनारस से टिकट दिया कमलापति त्रिपाठी को. कमलापति त्रिपाठी स्वतंत्रता सेनानी थे, काफी समय तक पत्रकार भी रहे. असहयोग आंदोलन से लेकर सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी भागीदारी की. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जेल भी गए थे. कमलापति त्रिपाठी को बनारस में जीत मिली. उन्होंने जनता पार्टी के कैंडिडेट राज नारायण को 24, 375 वोटों से हराया.
कमलापति त्रिपाठी(फोटो- विकीपीडिया)
1980 के बाद देश में अगला चुनाव समय से पहले ही हो गया. वजह, इंदिरा गांधी की असमय मृत्यु. उनके बॉडीगार्ड बेअंत सिंह और सतवंत सिंह ने ही उनकी हत्या कर दी थी. इस वजह से देश में समय से पहले चुनाव हुए. 514 सीटों में से कांग्रेस ने 404 सीटों पर जीत दर्ज की. इस चुनाव में बनारस से कांग्रेस ने श्याम लाल यादव को मैदान में उतारा. पेशे से वकील श्याम लाल यादव ने कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी उदल से 94,430 वोटों के अंतर से चुनाव जीता. 1980 में भारतीय जनता पार्टी बन चुकी थी. बीजेपी ने बनारस से ओम प्रकाश सिंह को मैदान में उतारा था. लेकिन ओम प्रकाश सिंह 46,094 वोटों के साथ चौथे नंबर पर रहे.
श्याम लाल यादव(फोटो- विकीपीडिया)
अगले चुनाव यानी 1989 के चुनाव बड़े दिलचस्प थे. इस बार विश्वनाथ प्रताप सिंह की लीडरशिप में कई पार्टियां मसलन तेलुगु देशम पार्टी, डी एम के, लोक दल, इंडियन नेशनल कांग्रेस- जगजीवन, असम गण परिषद, भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी, सब एक साथ आए और संयुक्त मोर्चा बनाया. इस बार जनता दल ने बनारस से पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के बेटे अनिल शास्त्री को मैदान में उतारा. इस बार कांग्रेस को बनारस से हार का मुंह देखना पड़ा. कांग्रेस प्रत्याशी श्याम लाल यादव को 21.8 फीसदी वोटों के साथ 96,593 वोट मिले. फाइनल टैली कुछ इस प्रकार थी. •जनता दल के अनिल शास्त्री को 2,68,196 वोट मिले. •कांग्रेस प्रत्याशी श्याम लाल यादव को मिले 96,593 वोट. और बहुजन समाज पार्टी के कैंडिडेट गंगा राम ग्वाल को मिले 32,574 वोट.
अनिल शास्त्री(फोटो- विकीपीडिया))
इसके बाद आया 90 का दशक. वीपी सिंह के मंडल के जवाब में भाजपा ने कमंडल की राजनीति शुरू कर दी थी. इन्हीं चुनावों में प्रचार के दौरान राजीव गांधी की हत्या हो गई. वीपी सिंह के बाद चंद्र शेखर कुछ ही समय तक पीएम रहे और उनकी भी सरकार गिर गई. इधर भाजपा लगातार मज़बूत होती जा रही थी. राम मंदिर आंदोलन ने भाजपा को फायदा पहुंचाया और 1991 में हुए चुनावों में उसे 35 सीटों का फायदा हुआ. इन चुनावों में भाजपा ने कुल 85 सीटें जीतीं. और इन्हीं चुनावों में भाजपा ने पहली बार बनारस में अपना परचम लहराया.
भाजपा ने इस चुनाव में बनारस से श्रीश चंद्र दीक्षित को मैदान में उतारा. श्रीश चंद्र दीक्षित पूर्व IPS अफसर थे. 1982 से 1984 तक उत्तर प्रदेश के डीजीपी भी रहे. साथ ही प्रेजिडेंट मेडल से भी सम्मानित हो चुके थे. श्रीश चंद्र दीक्षित से जुड़ा एक किस्सा है जो आपको ज़रूर जानना चाहिए. बात है 30 अक्टूबर 1990 की. इस दिन एक ऐसी घटना घटी जब अयोध्या के हनुमान गढ़ी जा रहे कारसेवकों पर गोलियां चलाई गईं और पांच कारसेवकों की जान गई. दरअसल, कारसेवक अयोध्या कूच कर रहे थे. भारी भीड़ अयोध्या पहुंचने लगी थी. प्रशासन ने अयोध्या में कर्फ्यू लगा रखा था. पुलिस ने विवादित स्थल के 1 .5 किलोमीटर के दायरे में बैरिकेडिंग कर रखी थी. 30 अक्टबूर, 1990 को कारसेवकों की भीड़ बेकाबू हो गई. इसके बाद पुलिस ने कारसेवकों पर गोली चला दी तो कारसेवकों के ढाल बनकर श्रीश चंद्र दीक्षित सामने खड़े हो गए. पूर्व डीजीपी को सामने देख पुलिस वालों ने गोलियां चलाना बंद कर दिया.
अशोक सिंहल के साथ श्रीश चंद्र दीक्षित (फोटो- एक्स)
इन चुनावों में बनारस लोकसभा का गणित कुछ इस तरह रहा- • भाजपा प्रत्याशी श्रीश चंद्र दीक्षित को मिले 1,86,333 वोट. •कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी के कैंडिडेट राज किशोर को मिले 1,45,894 वोट और कांग्रेस प्रत्याशी लोक पति त्रिपाठी को मिले 57,415 वोट मिले.
90 का दशक भारत की राजनीति के लिए बड़े उथल-पुथल का दौर रहा. किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिल रहा था. 1996 में चुनाव हुए, तब तक देश का माहौल काफी बदल चुका था. बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के कारण देश में सांप्रदायिक तनाव बढ़ चुका था. 1996 के चुनाव में भाजपा ने शंकर प्रसाद जायसवाल को मैदान में उतारा. शंकर प्रसाद जायसवाल बनारस के ही रहने वाले थे. विधायक रह चुके थे. साथ ही भाजपा संगठन में महत्वपूर्ण पदों पर भी रह चुके थे. इन चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. हालांकि, उनकी सरकार गिर गई और जनता दल के एच डी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने.
इसके 2 साल बाद 1998 में फिर चुनाव हुए और इंद्र कुमार गुजराल पीएम बने. इस बार भी शंकर प्रसाद जायसवाल बनारस से भाजपा का परचम लहराने में सफल रहे. लेकिन जैसा कि हमने पहले ही बताया, 90 का दशक देश में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर था. फिर से सरकार गिरी और चुनाव हुए. इस बार भी शंकर प्रसाद जायसवाल ने बनारस से जीत दर्ज की और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में NDA की सरकार बनी.
शंकर प्रसाद जायसवाल (फोटो-लोकसभा पोर्टल)
2004 तक एन डी ए की सरकार चली और फिर 2004 में चुनाव हुए. लेकिन इस बार शंकर प्रसाद जायसवाल अपनी सीट बचाने में नाकाम रहे. कांग्रेस के राजेश कुमार मिश्र ने उन्हें 57,436 वोटों के अंतर से हराया. अपना दल के अतहर जमाल 93,228 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहे.
डॉ. राजेश कुमार मिश्रा (फोटो-ऱाजेश मिश्रा, फेसबुक)
इसके बाद आया साल 2009. मनमोहन सिंह की सरकार ने सत्ता में फिर से वापसी की. लेकिन बनारस लोकसभा सीट पर बदलाव हुआ. 2004 में जीत दर्ज करने वाले राजेश मिश्र चौथे नंबर पर खिसक गए. तीसरे नंबर पर आए समाजवादी पार्टी के अजय राय. ये वही अजय राय हैं जो 2024 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस के प्रत्याशी हैं. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं. इन चुनावों में दूसरे नंबर पर आए बीते दिनों सुर्खियों में रहने वाले मुख़्तार अंसारी जिन्हें बसपा ने अपना कैंडिडेट बनाया था. और भाजपा से मैदान में थे दिग्गज नेता डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी. फिजिक्स पढ़ाते थे. एक समय हिंदी में फिजिक्स की थीसिस लिखकर चर्चा में आए मुरली मनोहर जोशी का कद बहुत ऊंचा था.
डॉ मुरली मनोहर जोशी साल 1992-96 तक राज्यसभा में रह चुके थे. इस दौरान वह कई समितियों जैसे विज्ञान एवं तकनीक पर स्टैंडिंग कमेटी, पर्यावरण एवं वन, सिलेक्ट कमिटी ओन पेटेंट लॉ, सिलेक्ट ट्रेडमार्क आन ट्रेड मार्क बिल, स्टैंडिंग कमेटी आन फाइनेंस, रक्षा सलाहकार समिति समेत कई अन्य समितियों के सदस्य थे. अटल- आडवाणी के बाद उन्हें भाजपा की तीसरी धरोहर कहा जाता था. एक नारा उस समय खूब प्रचलित हुआ, 'भाजपा की तीन धरोहर- आडवाणी, अटल और मुरली मनोहर'
डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी (फोटो- विकीपीडिया)
इसके बाद 2014 में नरेंद्र मोदी ने बनारस और वडोदरा, दोनों सीटों पर चुनाव लड़ा और दोनों पर ही जीत दर्ज की. 2019 में भी मोदी जीते और अब 2024 में वो फिर से यहां से प्रत्याशी हैं. कुछ ही दिन में यहां मतदान होना है. 4 जून को रिजल्ट आ जाएगा. पता चल जाएगा कि प्रधानमंत्री वाराणसी लोकसभा सीट से जीत की हैट्रिक लगा पाएंगे या फिर इस बार विपक्ष कोई बड़ा उलटफेर कर देगा.
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