रामप्रकाश गुप्ता के किस्से जो राजनीति में मजाक बनकर रह गए जब नवंबर 1999 में रामप्रकाश गुप्ता मुख्यमंत्री बने, तब से लेकर तीन महीनों तक 350 अफसरों के ट्रांसफर हुए. गुप्ता खुद तो किसी का नहीं करना चाहते थे. उन्होंने ये तरीका अपनाया था अपनी ही पार्टी के नेताओं को खुश करने के लिए. उन्नाव जिले में तो 40 दिन में पांच कलेक्टर आए. श्रावस्ती के डीएम बिहारी लाल को एक महीने में छह बार ट्रांसफर किया गया. कहा जाता था कि गुप्ता किसी को नाराज नहीं कर सकते थे. विधायक, मंत्री सबको अफसर चाहिए थे सिक्योरिटी में. गुप्ता के मुख्यमंत्री बनने से ठीक पहले यूपी के पहले भाजपा सीएम कल्याण सिंह को पार्टी से ही निकाला गया था. 1998 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को यूपी में 57 सीटें मिली थीं. पर 1999 में हुए चुनाव में मात्र 29 मिलीं. तो मु्ख्यमंत्री कल्याण सिंह का जाना तय था. कल्याण सिंह ने अपना बचाव करते हुए कहा था, "पार्टी राम मंदिर को भुला गई है इसीलिए ये सब हुआ. मैं मरने से पहले भव्य राम मंदिर देखना चाहता हूं." पर ये सब काम नहीं आया. बाकी कलराज मिश्रा, कल्पनाथ राय, राजनाथ सिंह, लालजी टंडन कांटे की लड़ाई लड़ रहे थे. मुख्यमंत्री बनने से पहले 15 साल तक गुप्ता राजनीति से बाहर रहे थे. घर पर रहते थे. नये-नवेले नेता आशीर्वाद लेने जाते, पुराने किस्से सुनने जाते. गुप्ता का कोई जनाधार नहीं था. बहुत अच्छे वक्ता नहीं थे. किसी सदन के सदस्य नहीं थे. मुख्यमंत्री पर उम्र का भी असर था. उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. और भाजपा की इमेज सुधार रहे थे. पर गुप्ता के कुछ स्टेटमेंट यूं थेः-
- राम मंदिर सरकार के एजेंडे में ना हो, पर भाजपा के एजेंडें में जरूर है. - अगर शांतिपूर्वक हो तो मैं राम मंदिर का निर्माण नहीं रोकूंगा. - हमें जाति व्यवस्था चलानी चाहिए. इससे समाज और देश मजबूत होते हैं. - हां, मैं एक कमजोर मुख्यमंत्री हूं. एक कमजोर इंसान सबको स्वीकार होता है. - मुझे काम दिया गया था कि मैं भाजपा की कलह को शांत कर दूं. मैंने कर दिया है. - मेरी सरकार भगवान की मर्जी पर चल रही है.सेक्रेटरी बार-बार उनको स्पीच याद कराते. पर गुप्ता वही बोलते जो मुंह से निकल जाता. कहीं भी कुछ भी बोल देते.
राम मंदिर वाले इनके बयान पर मायावती ने कहा था - बेचारे गुप्ता जी. वो हमेशा भूल जाते हैं कि क्या कहना है. उनको अयोध्या पर भाजपा के विचारों को न बोलने के लिए कहा गया होगा. पर इन्होंने साफ-साफ बोल दिया.इनके मंत्रिमंडल में सौ से ऊपर मंत्री थे. हिंदुस्तान टाइम्स ने रिपोर्ट किया था कि मुख्यमंत्री को मंत्रियों के नाम भी याद नहीं रहते. इनके मंत्री प्रेम प्रकाश सिंह ने इनके मुख्यमंत्री बनने के एक महीने के अंदर ही कह दिया था - अगर इतना भुलक्कड़ इंसान मुख्यमंत्री बनेगा तो राज्य में कुछ भी हो सकता है. ये अजीब नहीं है कि मुख्यमंत्री मंत्रियों को ही नहीं पहचानते. ये पॉयनियर और सहारा में रिपोर्ट किया गया था. ये वो दौर था जब मंत्री खुद ही मुख्यमंत्री के खिलाफ बोलते थे. मुख्यमंत्री बनने के एक महीने के अंदर ही सरकार के काम-काज की जनता में समीक्षा की जाने लगी थी. रोज अखबारों में मुख्यमंत्री पर रोचक किस्से निकाले जाते. ज्यादातर में मुख्यमंत्री के भूलने की बातों का जिक्र रहता. संयोग से ये वो दौर भी था जब मीडिया बदल रहा था. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हावी हो रहा था. और प्रिंट मीडिया भी गंभीरता की जगह रोचकता में हाथ आजमा रहा था. कलराज मिश्रा, लालजी टंडन, राजनाथ सिंह और कल्याण सिंह. स्कूलों में वंदे मातरम और सरस्वती वंदना को अनिवार्य बनाने को लेकर कल्याण सिंह ने पूर्व मंत्री रविंद्र शुक्ला को ड्रॉप कर दिया था. फिर देवेंद्र सिंह भोले को मुख्यमंत्री की आलोचना करने के लिए बाहर किया गया था.
टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा थाः - रामप्रकाश गुप्ता पहले हमेशा अपने उप-मुख्यमंत्री काल के बारे में बात करते रहते थे. तो मुख्यमंत्री बनने के बाद केंद्र के मंत्री कुमारमंगलम से बात हो रही थी. गुप्ता ने कहा - "जब आप केंद्रीय मंत्री थे तब मैं डिप्टी सीएम था". तो कुमारमंगलम हक्के-बक्के रह गये, बोले "सर आप मुख्यमंत्री हैं". कुछ देर बाद उनको महसूस हुआ कि गुप्ता उनके पापा के बारे में बात कर रहे थे.ये भी कहा जाने लगा था कि विधायक गुप्ता की भूलने वाली आदत का फायदा उठाने लगे थे. कुछ भी काम करवा लेते. एक जोक चल रहा था भाजपा में. कि मुख्यमंत्री इसलिए चुनाव नहीं लड़ रहे कि चुनाव के दिन भूल जाएंगे कि कहां से खड़े हुए हैं.
एक इंटरव्यू में रामप्रकाश गुप्ता से कहा गया कि आप पर भूलने वाले मुख्यमंत्री का ठप्पा लग रहा है. तो गुप्ता ने कहा - I take that as a compliment.
जनसंघ से शुरू किया करियर, मुख्यमंत्री बने तो मीडिया में प्रोफाइल तक नहीं थी
26 अक्टूबर 1924 को झांसी जिले के सुकवां-ढुकवां में रामप्रकाश गुप्ता पैदा हुए थे. बाद में बुलंदशहर के सिकंदराबाद में रहने लगे थे. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से मैथ से एमएससी किया. गोल्ड मेडलिस्ट बने. कॉलेज के वक्त ही राजनीति से जुड़ गए थे. बलिया के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था. 1946 में आरएसएस के प्रचारक बन गए. 1948 में संघ पर से प्रतिबंध हटाने के लिए सत्याग्रह किया था. जनसंघ के बनने के बाद गुप्ता इसमें आ गए. 1956 में जनसंघ के संगठन मंत्री बनाए गए. इनको यूपी के लखनऊ समेत 10 जिलों का काम इनको दिया गया. 1960 में लखनऊ नगरपालिका में जनसंघ के नेता के रूप में पहुंचे. 1964 में इसी में डिप्टी मेयर बने. 1964 में ही यूपी विधान परिषद में चुन लिए गए. इसी बीच 1967 में चौधरी चरण सिंह की सरकार में मंत्री रहे. फिर उप-मुख्यमंत्री बनाए गए. शिक्षा के क्षेत्र में गुप्ता ने बढ़िया काम किया था. टीचरों को बैंक से पेमेंट कराने का डिसीजन लिया. फिर 1973-73 में भारतीय जनसंघ के प्रदेश अध्यक्ष बने. 1975 में इमरजेंसी के खिलाफ यूपी में सत्याग्रह हुआ. गुप्ता जेल जाने वाले पहले सत्याग्रही बने.इमरजेंसी के दौरान रामप्रकाश गुप्ता और उस वक्त के जिला स्तर के कार्यकर्ता राजनाथ सिंह एक ही जेल में बंद थे. रामप्रकाश गुप्ता को ज्योतिष का शौक था. उन्होंने राजनाथ का हाथ देखा और भविष्यवाणी की कि एक दिन तुम मुख्यमंत्री बनोगे. फिर 20 अक्टूबर 2000 को गुप्ता के इस्तीफे के बाद राजनाथ सिंह ही सीएम बने.https://youtu.be/JKrQISdx68M इमरजेंसी के बाद जून 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर रामप्रकाश गुप्ता पहली बार विधान सभा पहुंचे. इसी साल वो रामनरेश यादव की सरकार में भी मंत्री बने. पर बाद में राज्य के नेताओं में इनका कद घटने लगा. राजनीति एकदम खत्म ही हो गई थी. पर 1993 में दोबारा विधानसभा पहुंच लखनऊ कैंट से. फिर 12 नवंबर 1999 को इनका वक्त भी आया. भाजपा अपनी ही राजनीति से परेशान थी. सब लोग एक साथ मुख्यमंत्री बनना चाहते थे. तो झल्लाकर पार्टी ने रामप्रकाश गुप्ता को वानप्रस्थ आश्रम से उठाकर सीधा तख्त पर बैठा दिया. उस वक्त ये किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे. कहते हैं कि सीधा अटल बिहारी वाजपेयी का रिकमेंडेशन था इनके नाम पर. इनसे जब पूछा गया कि आपने अपने लिए लॉबी बनाई थी या नहीं. तो बोले कि 'मैंने किसी को नहीं मनाया. सीधा मुझे बताया गया'. इनकी बात सच ही होगी, क्योंकि नेताओं की भसड़ के चलते ही इनको मौका मिला. अगर लॉबीइंग करते तो इनको भी नहीं बनाया गया होता. क्योंकि यही तो मूल समस्या थी. पर मीडिया के पास इनके बारे में बताने के लिए कुछ नहीं था. क्योंकि वो पत्रकारों की चर्चा से कब का बाहर हो चुके थे. वे 7 मई 2003 से 1 मई 2004 तक मध्य प्रदेश के राज्यपाल रहे. 1 मई 2004 को इनकी मौत हो गई.
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