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हर घंटे उम्मीदवार बदल रही सपा? अखिलेश यादव खुद दे रहे PM मोदी को तंज कसने के मौके?

समाजवादी पार्टी ने अब तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगभग 17 उम्मीदवार बदले हैं. कुछ सीटों पर तो सपा का तीसरा उम्मीदवार मैदान में है. प्रधानमंत्री मोदी समेत भाजपा के कई नेता सपा को घेरे हुए हैं.

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अखिलेश यादव की राह आसान नहीं. (फ़ोटो - PTI)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार, 6 अप्रैल को सहारनपुर में एक चुनावी रैली के दौरान समाजवादी पार्टी पर निशाना साधा, कि वो 'हर घंटे' उम्मीदवार बदलते हैं. उन्होंने प्रदेश में अपने गढ़ - अमेठी और रायबरेली - से उम्मीदवारों की घोषणा न कर पाने के लिए कांग्रेस को भी घेरा. राजनीतिक व्याकरण के लिहाज़ से देखें, तो प्रधानमंत्री ने विपक्ष पर कटाक्ष किया. मगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा की हालिया गतिविधियों को देखते हुए इस तंज़ में केवल बयान का लच्छा नहीं दिखता, कुछ-कुछ तथ्य भी मिलता है.

सपा ने अब तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगभग 17 उम्मीदवार बदले हैं. कुछ सीटों पर तो सपा का तीसरा उम्मीदवार मैदान में है. BJP नेताओं का कहना है कि इससे अखिलेश यादव की पार्टी में अनिर्णय और भ्रम की स्थिति ज़ाहिर होती है.

  • गौतमबुद्ध नगर सीट पर सपा ने पहले डॉ महेंद्र नागर को उम्मीदवार घोषित किया था. फिर उन्हें बदलकर राहुल अवाना को मैदान में उतारा. आख़िरकार महेंद्र नागर उम्मीदवार बनाए गए.
  • मेरठ में BJP के उम्मीदवार 'रामायण' फे़म अरुण गोविल के ख़िलाफ़ सपा ने सबसे पहले भानु प्रताप सिंह को टिकट दिया था. फिर अतुल प्रधान को दिया, और अंत में सुनीता वर्मा उम्मीदवार बनाई गई हैं.
  • मिसरिख में सबसे पहले रामपाल राजवंशी को, फिर उनकी जगह उनके बेटे मनोज कुमार राजवंशी को, और अंततः उनकी बहू संगीता राजवंशी को टिकट दिया गया.
  • मुरादाबाद में भी ऐसा ही कुछ दिखा. मौजूदा सांसद एसटी हसन को पहले उम्मीदवार घोषित किया था, लेकिन ऐन वक़्त में उन्हें हटा कर रुचि वीरा को टिकट दिया गया.
  • इसी तरह, बागपत में आख़िरी मोमेंट पर मनोज चौधरी का नाम हटाकर अमरपाल शर्मा को मैदान में उतार दिया.
  • बिजनौर: पहले यशवीर सिंह, फिर दीपक सैनी.
  • बदायूं में उन्होंने अपने वरिष्ठ नेता शिवपाल यादव को उम्मीदवार घोषित किया था, लेकिन शिवपाल ने पब्लिकली कह दिया कि उनके बेटे आदित्य यादव को टिकट दिया जाना चाहिए.

सपा के मुख्य प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने पार्टी के इन 'मूड स्विंग्स' के पीछे का तर्क बताया. कहा कि सपा ने राजनीतिक पारदर्शिता को महत्व दिया. BJP पर एकाधिकारवादी संस्कृति हावी होने के आरोप भी लगा दिए.

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सपा को कवर करने वाले पत्रकारों से पूछने पर पता पड़ता है कि कुछ जगहों पर तो जीतने की संभावना, अनुभव और स्वीकार्यता जैसे फ़ैक्टर्स के आधार पर निर्णय लिए गए हैं. जैसे - बागपत, बिजनौर और गौतमबुद्ध नगर. वहीं, मुरादाबाद और मेरठ जैसी सीटों का खेल अलग हैं. यहां आंतरिक राजनीति के छींटे और स्थानीय कार्यकर्ताओं की नाराज़गी ने फ़ैसला बदला है.

बागपत, बिजनोर, बदायूं और ‘भाई-भतीजावाद’

द प्रिंट से जुड़ी शिखा सलारिया लिखती हैं कि अनुभव और स्वीकार्यता की वजह से सपा को बागपत और गौतमबुद्ध नगर में उम्मीदवार बदलने पड़े थे. बागपत में लगभग 4 लाख जाट, 3.75 लाख मुस्लिम, 1.5 लाख दलित, 40,000 यादव, 1.25 लाख गुज्जर, 60,000 राजपूत और 1.5 लाख ब्राह्मण हैं. पहले जाट चेहरे मनोज चौधरी को बागपत सीट से टिकट दिया गया था. मगर चौधरी 2012 का विधानसभा चुनाव हारे थे. जाटों के बीच भी उनकी (चौधरी की) उम्मीदवारी को लेकर बहुत उत्साह नहीं था और पार्टी को लगा कि पूर्व-विधायक अमरपाल की तुलना में उनकी दावेदारी कमज़ोर हैं. इसीलिए सपा ने अमरपाल शर्मा को टिकट थमा दिया.

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बिजनौर में स्थानीय यूनिट्स में मतांतर के चलते उम्मीदवारी बदलनी पड़ी. सपा ने पहले यशवीर सिंह धोबी को मैदान में उतारा था, जिन्हें टिकट मिला तो वो ख़ुद हैरान रह गए. बताया जा रहा है कि यशवीर सिंह नगीना से टिकट मांग रहे थे, पर पार्टी ने उन्हें बिजनौर से टिकट दे दिया. इस क़दम से कुछ स्थानीय नेता असंतुष्ट हो गए, क्योंकि वे नूरपुर के सपा विधायक रामअवतार सैनी के बेटे दीपक सैनी के लिए टिकट मांग रहे थे. अंततः 24 मार्च को पार्टी नेतृत्व ने दीपक सैनी को इस सीट से टिकट दे दिया.

बदायूं में पार्टी ने सबसे पहले अखिलेश के चचेरे भाई धर्मेन्द्र यादव को मैदान में उतारा था. हालांकि, बाद में उनके चाचा शिवपाल यादव को टिकट दिया गया और धर्मेन्द्र को आज़मगढ़ भेज दिया गया. मगर शिवपाल के अपने ‘प्लैन्स’ थे. एक पंचायत बैठक में मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कह दिया कि उनकी जगह उनके बेटे आदित्य को प्रत्याशी होना चाहिए. इसके लिए वो आलाकमान से बात करेंगे.

तस्वीर में शिवपाल यादव और आदित्य यादव.

राजनीतिक गलियारों में बात चली कि बहुत समय से शिवपाल अपने बेटे का ऐडमिशन राज्य की राजनीति में करवाना चाह रहे हैं. मगर भतीजे अखिलेश के साथ उनकी अनबन की वजह से अब तक ऐसा हो न पाया. पार्टी के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि शिवपाल ने 2022 विधानसभा चुनावों में आदित्य के लिए विधानसभा टिकट मांगा था. नहीं दिया गया. अब इस बार शिवपाल के पास पर्याप्त मौक़ा है. गठबंधन के सहयोगी छिटक रहे हैं, स्थानीय यूनिट्स बहुत उत्साहित नहीं हैं. चुनांचे अखिलेश अभी बहुत दबाव में हैं. 

मेरठ, मुरादाबाद और ‘मुस्लिम लीडरशिप’

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी अच्छी-ख़ासी है. मुख्यतः जाट और मुस्लिम समुदाय ने ही यहां चुनाव जितवाए-हरवाए हैं. मेरठ इस इलाक़े का एक प्रमुख शहर है. BJP ने यहां से रामायण में राम का किरदार निभाने वाले अरुण गोविल को टिकट दिया. इस आकलन के साथ कि हिंदुत्व और राम मंदिर आंदोलन की ‘सफलता’ से जो लहर उठी है, उसका बेनिफ़िट लिया जा सकता है. माने यहां पर सपा के लिए कैंडिडिट चुनना चुनौती होना ही था. मगर इतनी?

अखिलेश यादव ने पहले भानू प्रताप सिंह का नाम घोषित किया था. भानू पेशे से वकील हैं, ऐक्टिविस्ट हैं और चुनाव सुधार को लेकर कई प्रदर्शन कर चुके हैं. दलित समुदाय से हैं. तो एक पढ़े-लिखे चेहरे के साथ वोट बैंक भी सधता है. मगर लोकल यूनिट उनके नाम पर राज़ी नहीं हुई. भानु को ‘बाहरी’ क़रार दिया. फिर अखिलेश यादव ने वहां से एक दूसरा कैंडिडेट खड़ा किया, सरधना विधायक अतुल प्रधान. उनका पोर्टफ़ोलियो मज़बूत है. युवा हैं, डायनैमिक हैं, क्षेत्र में पकड़ रखते हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में BJP के बड़े नेता संगीत सोम को हराया भी था. लेकिन इतनी मज़बूत दावेदारी और अंदरी होने के बावजूद उनके नाम पर भी कार्यकर्ता माने नहीं.

समाजवादी पार्टी को नियमित तौर पर कवर करने वाले पत्रकार अमन श्रीवास्तव ने दी लल्लनटॉप को बताया कि अतुल प्रधान की ‘प्रधानता’ ही उनकी दावेदारी के आड़े आ गई. स्थानीय नेताओं - ख़ासकर मुस्लिम नेताओं - का विरोध था कि ग्राम प्रधानी से लेकर नगर निगम तक, हर जगह अतुल प्रधान के ही लोग बैठे हैं. इसलिए उनके नाम पर फिर से चर्चा छिड़ी. आख़िरश अपने क़रीबी सलाहकारों से चर्चा के बाद पूर्व-विधायक योगेश वर्मा की पत्नी सुनीता वर्मा का नाम तय किया गया. 

सुनीता का नाम तय करने के पीछे क्या मंशा है, ठीक-ठीक मालूम नहीं हुआ. चर्चा है कि ये समाजवादी पार्टी की नई टैक्टिक्स का हिस्सा हो सकता है, जिसके तहत वो ग़ैर-यादव OBC वोट को अपने पाले में करने की कोशिश कर रहे हैं. 

मेरठ से सपा ने पहले भानु प्रताप सिंह, फिर अतुल प्रधान और अब जा कर सुनीता प्रधान को टिकट दिया है.

24 मार्च को समाजवादी पार्टी ने बतौर लोकसभा उम्मीदवार एसटी हसन के नाम का एलान किया. 2019 लोकसभा चुनाव में हसन को 50 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट मिले थे. उन्होंने बीजेपी के कुंवर सर्वेश कुमार को हराया था. इतने अच्छे रिकॉर्ड के बाद भी पार्टी दो ख़ेमों में बंट गई. आज़म ख़ान बनाम अखिलेश यादव. इस घोषणा से ठीक दो दिन पहले - 22 मार्च - को अखिलेश यादव सीतापुर जेल में आज़म ख़ान से मिलने गए थे. लेकिन नाम बाहर आते ही आज़म ख़ान के समर्थकों ने ये कहते हुए विरोध करना शुरू कर दिया था कि आज़म इस नाम से ख़ुश नहीं थे. बाद में जब एसटी हसन का टिकट काटा गया, तो उन्होंने बार-बार किसी 'बाहरी व्यक्ति' के शामिल होने का संकेत दिया.

एसटी हसन कभी आज़म ख़ान के ख़ास हुआ करते थे. कहा जाता है कि मुरादाबाद के मेयर रहते हुए उन्हें आज़म ने ही लोकसभा का टिकट दिलवाया था. लेकिन आज़म के जेल जाने के बाद हसन अखिलेश यादव के क़रीब आ गए. अखिलेश ने उन्हें लोकसभा में पार्टी के संसदीय दल का नेता बना दिया था. अलबत्ता वो पार्टी का मुस्लिम चेहरा भी बन गए. ये बाद आज़म ख़ान को नागवार गुज़री. हालांकि, अंत में उन्हें ही ओबलाइज किया गया. उनकी क़रीबी रुचि बीरा ने ही नामांकन भरा और हसन ने भी हथियार डाल दिए. 

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यहां से एक और ज़रूरी बात निकल कर आती है - पार्टी का मुस्लिम चेहरा और प्रतिनिधित्व. आगामी चुनाव में INDIA ब्लॉक के अभियान में पिछड़ी जातियों, दलितों और मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने का वादा भी है. लेकिन विपक्षी गठबंधन के टिकट बंटवारे से ऐसा लगता नहीं.

पत्रकार उमर राशिद ने द वायर के लिए पश्चिमी यूपी की 24 लोकसभा सीटों का विश्लेषण किया है. उन्होंने पाया कि 2019 में विपक्ष के महागठबंधन के आंकड़ों की तुलना में इस बार कांग्रेस और सपा ने मुस्लिम और OBC उम्मीदवारों का हिस्सा घटा दिया है. उनकी जगह पर सवर्णों और दलितों को ज़्यादा टिकट बांटे हैं. पिछले चुनाव की तुलना में दो मुस्लिम उम्मीदवार कम हैं, एक OBC उम्मीदवार कम है. गुर्जरों और जाटों के टिकट कम किए. टिकट देते हुए दो सवर्ण बढ़ा दिए और ग़ैर-आरक्षित सीटों पर भी दलित चेहरों को मैदान में उतारा है.

अखिलेश के इस किए में कौन-कौन?

अखिलेश यादव के इन ‘रैडिकल’ क़दमों की कुछ वजहें गिनवाई जा सकती हैं. लखनऊ के पत्रकारों के बीच जो चर्चा चलती है, उसकी कहें तो अखिलेश यादव का एक क्लोज़ सर्किट है. सलाहकारों का एक ‘सिंडिकेट’. इसमें पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल, समाजवादी पार्टी के महासचिव और राज्यसभा सांसद रामगोपाल यादव, विधान परिषद के सदस्य राजेंद्र चौधरी और अन्य लोग हैं. वो अखिलेश को इन मामलों में सलाह देते हैं. उनकी सलाह सुनी भी जाती है. 

इसके अलावा, कहा ये भी जाता है कि अखिलेश का ‘पढ़े-लिखे चेहरों’ के प्रति विशेष आग्रह रहता है. राज्यसभा के लिए आलोक रंजन का नाम देना हो या मेरठ के लिए पहली पसंद भानु प्रताप सिंह, अखिलेश का ही हाथ है. हालांकि, उनके ये दोनों ही तुर्रे चले नहीं. 

कुछ मीडिया रपटों के हवाले से एक ख़बर ये भी आई कि पार्टी प्रमुख ने इस बार टिकट बांटने के लिए एक नया तरीक़ा चुना है. और ज़्यादा लोकतांत्रिक तरीक़ा. अपनी स्थापना के बाद ये पहली बार है कि पार्टी ने लोकसभा चुनाव के लिए इच्छुक उम्मीदवारों से आवेदन नहीं लिए. इसके बजाय पार्टी नेतृत्व ने संसदीय क्षेत्र के प्रभारियों और ज़िला पदाधिकारियों से रिपोर्ट मांगी. खुली बैठक आयोजित की गई और नाम फ़ाइनल किए गए. उम्मीदवारों को बदलने के लिए भी यही प्रक्रिया अपनाई गई. 

प्रक्रिया जो अपनाई गई हो, वोटर को चाहिए होती है क्लैरिटी. कौन लड़ रहा है? हमारे लिए क्या कर सकता है? यहीं का है या कहीं और का? किस जाति-समुदाय का है? वोटर को इन सवालों के साफ़ जवाब चाहिए होते हैं. देखना होगा सपा के 'मूड स्विंग' वोटर के मूड को कितना स्विंग कर पाएंगे.