साल 1952 का प्रकरण है. बिहार की आरक्षित सीट पूर्णिया से एक शख्स लोकसभा का चुनाव जीतता है. इनको राममनोहर लोहिया ने सोशलिस्ट पार्टी से टिकट दिया था. सांसदी जीतने के बाद उन्हें दिल्ली जाना था. लेकिन पैसे नहीं थे. सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ताओं ने चंदा जुटा कर पैसे दिए तो ट्रेन टिकट खरीदा. लेकिन ट्रेन में डर के मारे सीट पर नहीं बैठे. फर्श पर बैठकर ही पूरी यात्रा की. इस सांसद का नाम था किराय मुसहर. अपने समुदाय के पहले सांसद थे. उनके सांसद बनने के 72 साल बाद मुसहर समुदाय से पहली बार कोई केंद्र में मंत्री बना है. नाम है जीतनराम मांझी. बिहार की गया सीट से चुनाव जीते हैं. जीतनराम मांझी बिहार के मुख्यमंत्री भी रहे हैं. वो सीएम की कुर्सी तक पहुंचने वाले मुसहर समुदाय के पहले व्यक्ति हैं. और दलित समुदाय से आनेवाले तीसरे.
जीतनराम मांझी: मुसहर समुदाय के पहले केंद्रीय मंत्री, कभी नीतीश कुमार की JDU में खलबली मचा दी थी
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी को केंद्र में मंत्री बनाया गया है. मांझी मुसहर समुदाय से आने वाले पहले केंद्रीय मंत्री बने हैं. इससे पहले मांझी बिहार के अलग-अलग सरकारों में मंत्री रह चुके हैं. और एक बार राज्य की कमान भी संभाल चुके हैं.
चाय पर बुलाकर सीएम बना दिया
19 मई 2014. मांझी गया जिले में किसी एक शादी में जाने वाले थे. तभी नीतीश कुमार का फोन आया. पूछा, “क्या जाने से पहले साथ में एक कप चाय पीना चाहेंगे?” मांझी को कोई अंदाजा नहीं था क्या चल रहा है. जब वे 1अणे मार्ग पहुंचे तो वहां शरद यादव भी मौजूद थे. आते ही मांझी कोने की कुर्सी पर बैठ गए. तब नीतीश कुमार ने उनसे कहा, "चाय पीजिये, और यहां मेरी कुर्सी पर बैठिए. ये घर अब आपका ही है. आप मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं." अगले दिन यानी 20 मई को मांझी बिहार के 23वें मुख्यमंत्री बन गए.
जीतनराम मांझी 1980 में कांग्रेस में शामिल हुए. और इसी साल टिकट भी मिल गया. गया की फतेहपुर सुरक्षित सीट से. पहली बार में ही विधायकी जीत गए. 1983 में चंद्रशेखर सिंह की सरकार में मंत्री बने. फिर 1985 में इसी सीट से दोबारा विधायक बने. चंद्रशेखर सिंह के बाद कांग्रेस ने कई मुख्यमंत्री बदले. बिंदेश्वरी दुबे, सत्येंद्र नारायण सिन्हा और जगन्नाथ मिश्रा, इन सब पूर्व मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में भी मांझी मंत्री बने रहे.
कांग्रेस से जनता दल, फिर RJD और फिर JDUमांझी 1990 में फतेहपुर सीट से चुनाव हार गए. इसके बाद जनता दल में शामिल हो गए. कांग्रेस छोड़ने को लेकर एक इंटरव्यू में मांझी ने बताया था कि कांग्रेस की विचारधारा आज भी उनके खून में है. लेकिन तब कुछ लोगों ने जानबूझकर उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश की थी. इसलिए पार्टी छोड़ दी.
1995 में फतेहपुर से मांझी को फिर हार मिली. इसके दो साल बाद जनता दल का विभाजन हुआ. लालू यादव ने राष्ट्रीय जनता दल बनाई तो मांझी उनके साथ हो लिए. 1998 में बाराचट्टी विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुआ. राजद ने उनको टिकट दिया. जीत गए. फिर साल 2000 में भी इसी सीट से लड़े और जीते. 1998 से 2005 के दौरान लालू यादव और फिर राबड़ी देवी की सरकार में मंत्री बने रहे.
2005 में राजद ने मांझी को टिकट नहीं दिया. जिसके बाद उन्होंने जेडीयू ज्वाइन kr. नीतीश कुमार ने उनको बुला कर टिकट दिया. फरवरी 2005 में चुनाव हुए. इसमें मांझी फतेहपुर सीट से हार गए. लेकिन इस चुनाव में किसी गठबंधन को बहुमत नहीं मिला. इसलिए राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया. नीतीश ने फिर से भरोसा जताया. इस बार वे बाराचट्टी से लड़े और जीत गए.
मंत्री बनने के तुरंत बाद इस्तीफा देना पड़ा
नवंबर 2005 में मांझी नीतीश कैबिनेट में मंत्री बने. लेकिन शपथ लेने के कुछ घंटे बाद ही रिश्वत के आरोप में इस्तीफा देना पड़ा. मामला राजद सरकार के दौरान फर्जी बीएड डिग्री रैकेट से जुड़ा था. तब राबड़ी सरकार में शिक्षा राज्य मंत्री थे. मंत्रिमंडल से हटाने पर नीतीश कुमार ने कहा था कि उन्हें जैसे ही पता चला कि मांझी के खिलाफ विजिलेंस डिपार्टमेंट का केस पेंडिंग है तो तुरंत उन्हें इस्तीफा देने को कहा. हालांकि आरोपों से मुक्त होने के बाद 2008 में उन्हें दोबारा मंत्रिमंडल में जगह मिली.
साल 2010 में मांझी जहानाबाद की मकदुमपुर सीट से चुनाव जीते. 2014 में मांझी को गया से लोकसभा का टिकट मिला. लेकिन बीजेपी प्रत्याशी से करीब 2 लाख वोटों से हार गए.
फिर आया आपदा में अवसर
2013 में नीतीश ने बीजेपी के साथ गठबंधन खत्म कर दिया था. 2014 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू बुरी तरह हारी. 38 सीट पर लड़े और सिर्फ 2 सीटें जीते. इससे पहले 20 सीटें थीं. इस हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश कुमार ने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया. अधिकतर विधायकों की राय थी कि नीतीश इस्तीफा वापस लें. क्योंकि पार्टी में किसी और के नाम पर सहमति नहीं बन रही थी. जब नीतीश नहीं माने तो विधायकों ने नया नेता चुनने की जिम्मेदारी उन्हीं को सौंप दी. नीतीश कुमार ने 18 मई 2014 को मांझी का नाम सिर्फ शरद यादव से शेयर किया. जिस पर शरद यादव ने सहमति दे दी.
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मांझी को सीएम बनाकर नीतीश ये मानकर चल रहे थे कि रिमोट उनके हाथ में होगा. लेकिन लंबे समय तक ऐसा हुआ नहीं. शुरुआती 2-3 महीने तो मांझी शांत रहे. कहा जाता है कि बड़े फैसलों से लेकर ट्रांसफर-पोस्टिंग के आदेश ऊपर से आते थे. कुछ समय बाद मीडिया और विपक्ष ने उन्हें रबड़ स्टांप बुलाना शुरू कर दिया. इसके बाद मांझी ने बयानबाजी शुरू कर दी. स्कूलों की हलात से लेकर भ्रष्टाचार तक पर बोलने लगे. सितंबर 2014 के एक बयान में शराब पीने वालों को सलाह दे दी कि थोड़ी-थोड़ी लिया कीजिए, दिक्कत नहीं होगी.
‘कितना राज कितना काज’ किताब में संतोष सिंह ने लिखा है कि मांझी धीरे-धीरे नीतेश पर ही तंज कसने लगे. 24 अक्टूबर 2014 को अपने गांव में एक बयान दिया कि अगला सीएम दलित और महादलित मिलकर ही चुनेंगे. फिर दो दिन बाद कहा, वो सीएम तो हैं लेकिन फैसले नहीं ले सकते. इसके बाद जदयू में खलबली मच गई. दूसरे सीएम के नाम पर चर्चा होने लगी. 15 नवंबर को मांझी ने कह दिया अगर नीतीश कहेंगे तो वो इस्तीफा दे देंगे.
किताब में संतोष सिंह लिखते हैं कि मांझी पर इस्तीफा देने का दबाव बनाया जाने लगा. लेकिन 23 नवंबर 2014 को मांझी ने कह दिया कि वह सीएम हैं और उन्हें कोई हटा नहीं सकता. जेडीयू का आरोप था कि मांझी बीजेपी के कहने पर ऐसा कर रहे थे.
बगावत और फिर इस्तीफा
फरवरी 2015 तक मामला ऐसा हो गया कि पार्टी ने सीधे-सीधे इस्तीफा देने को कह दिया. लेकिन मांझी नहीं माने. 7 फरवरी को तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद पवार ने पार्टी विधानमंडल दल की बैठक बुलाई. लेकिन विधायक दल के नेता यानी मुख्यमंत्री मांझी ने इसे अवैध करार देते हुए शामिल होने से इंकार कर दिया. इस बीच वो प्रधानमंत्री से मिलने दिल्ली पहुंच गए. आखिर 9 फरवरी 2015 को जेडीयू ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया. उन पर पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया गया.
इसके बाद भी मांझी नहीं माने. क्योंकि बैकडोर से कथित तौर पर बीजेपी का सपोर्ट था. नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गुट ने राज्यपाल को 129 विधायकों के समर्थन की चिट्ठी सौंपी. राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी ने मांझी को बहुमत साबित करने के लिए 20 फरवरी तक का समय दिया. लेकिन बहुमत जुटाना मांझी के लिए मुश्किल था. उनके समर्थन में जेडीयू के सिर्फ 12 विधायक थे. और बीजेपी के 88. बहुमत के लिए 122 विधायक चाहिए थे. इसलिए 20 फरवरी को विश्वासमत से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया.
अक्टूबर 2015 में मांझी ने राज्यसभा टीवी को दिए एक इंटरव्यू में कहा था,
"बात वादाखिलाफी की है. ये एक आम धारणा है कि एससी लोग कमजोर होते हैं, दब्बू होते है. इनको जैसे चाहो यूज कर लो. इसी भावना से नीतीश कुमार ने मुझे मुख्यमंत्री बनाया था. परिस्थिति कुछ ऐसी थी कि वो लोकसभा चुनाव के बाद अपना चेहरा बचाना चाहते थे."
फिर बना हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (HAM)
मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद मांझी ने हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (HAM) पार्टी बनाने का ऐलान किया. मई 2015 में पार्टी को आधिकारिक रूप से लॉन्च किया गया. शकुनी चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. दो महीने बाद पार्टी एनडीए में शामिल हो गई. और 2015 के विधानसभा चुनाव में 21 सीटों पर लड़ी. लेकिन सिर्फ एक सीट पर जीत मिली, वो भी खुद जीतनराम मांझी को. वो भी दो सीटों से चुनाव लड़े थे, लेकिन एक सीट से जीत मिली. इमामगंज विधानसभा सीट से.
2017 में एनडीए में नीतीश कुमार की वापसी हुई. और फरवरी 2018 में मांझी ने एनडीए छोड़ दिया. उसके बाद महागठबंधन में शामिल हुए. लेकिन 2020 विधानसभा चुनावों के पहले एक बार फिर से एनडीए में वापसी हो गई. 2020 में सात विधानसभा सीटों पर लड़े जिनमें से 4 सीट जीते. बेटे संतोष सुमन को मंत्री बनाया गया. SC/ST कल्याण विभाग का जिम्मा मिला.
अगस्त 2022 में नीतीश फिर महागठबंधन के पाले में चले गए. HAM भी सरकार में बनी रही. लेकिन पिछले साल जून में संतोष सुमन ने इस्तीफा दे दिया. उन्होंने आरोप लगाया कि उनकी पार्टी का जदयू में विलय का दबाव बनाया जा रहा था. इसके कुछ दिन बाद मांझी फिर से एनडीए में शामिल हो गए. जनवरी 2024 में एक बार फिर से नीतीश कुमार की एनडीए में वापसी हो गई. और सीट बंटवारे में मांझी को गया की लोकसभा सीट मिली. मांझी यहां से जीते और अब मोदी मंत्रिमंडल में मंत्री हैं.
दल बदल की सियासत में उस्ताद मांझी
जीतन राम मांझी 7 मुख्यमंत्रियों के साथ काम कर चुके हैं. चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, जगन्नाथ मिश्रा, लालू यादव, राबड़ी देवी और नीतीश कुमार. जैसे-जैसे मांझी पार्टी बदलते हैं, उनके बयान भी बदलते जाते हैं. दी लल्लनटॉप को दिए एक इंटरव्यू के दौरान मांझी ने कहा था कि राजनीति एक ऐसी चीज है जहां लड़ाई करनी चाहिए लेकिन एक खिड़की खुली रहनी चाहिए. सैद्धांतिक विरोध होना चाहए, लेकिन बातचीत बंद नहीं होनी चाहिए ताकि जरूरत पड़ने पर साथ हो लिया जाए.
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