बंगाल की खाड़ी से दिल्ली की तरफ उड़ने वाले जहाजों के फेरे बढ़ने लगे हैं. अचानक लोग दिल्ली बुला लिए जा रहे हैं. या दूत के तौर पर दिल्ली भेज दिए जा रहे हैं. 7 मार्च की शाम भुवनेश्वर से दिल्ली के लिए एक विशेष विमान ने उड़ान भरी. विमान में बैठे दो खास लोग एक पुरानी दोस्ती को दुरुस्त करने पहुंचे, जो 15 साल पहले टूट गई थी. अब चर्चा है कि इस दुरुस्ती पर सिर्फ आखिरी मुहर बाकी है. बात ओडिशा की हो रही है. क्योंकि लोग पूछ रहे हैं कि क्या भाजपा और बीजू जनता दल फिर साथ आ रहे हैं.
बीजेडी और बीजेपी के बीच ये रिश्ता क्या कहलाता है?
पिछले कुछ सालों में ओडिशा के भीतर बीजेडी और बीजेपी एक-दूसरे की विरोधी बनकर उभरी हैं. लेकिन केंद्र के स्तर पर नवीन पटनायक ने एक 'दोस्ताना' संबंध भी बनाकर रखा.
पिछले एक महीने से ऐसी अटकलें लग रही हैं कि दोनों दल साथ आ सकते हैं. इस बात को तब और बल मिला, जब रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव को राज्यसभा भेजने के लिए बीजेडी ने एक बार फिर दरियादिली दिखाई. मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के पास तीन लोगों को राज्यसभा भेजने लायक विधायक थे. लेकिन 2019 की ही तरह उन्होंने सिर्फ दो सीटों पर उम्मीदवार उतारे. नॉमिनेशन की आखिरी तारीख से एक दिन पहले 14 फरवरी को भाजपा ने तीसरी सीट के लिए अश्विनी वैष्णव के नाम का एलान किया. इस एलान के मिनटों के भीतर बीजू जनता दल ने एलान कर दिया कि पार्टी अश्विनी की उम्मीदवारी का समर्थन करती है. क्योंकि ऐसा करने से, ‘ओडिशा में रेल और टेलिकॉम सेक्टर में विकास होगा.’
इसके बाद 5 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ओडिशा गए. ये दिन राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक की जयंती का भी है. मोदी ने कई परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया. साथ में नवीन पटनायक की तारीफ भी. उन्हें सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री बताया. ये भी कहा कि लोकसभा चुनाव में एनडीए को 400 प्लस सीट दिलाने में ओडिशा की महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी. बदले में नवीन पटनायक ने भी कह दिया कि प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को एक नई दिशा दी है.
अब कहा जा रहा है कि दोनों दलों के बीच गठबंधन की बातें अंतिम स्टेज में चल रही हैं. 6 मार्च को दोनों दलों ने लोकसभा चुनाव को लेकर अलग-अलग बैठकें की. दिल्ली में बैठक के बाद भाजपा सांसद जुएल ओरांव ने गठबंधन को लेकर कोई टिप्पणी नहीं की. इतना ही कहा कि इसके बारे में केंद्रीय नेतृत्व फैसला करेगा.
7 मार्च की रात पटनायक के खासमखास वीके पांडियन विशेष विमान से दिल्ली के लिए निकल गए. साथ में पार्टी के एक और नेता प्रणब प्रकाश भी थे. दिल्ली में केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, ओडिशा बीजेपी के अध्यक्ष मनमोहन समाल, मानस मोहंती समेत कई नेता पहले से जमे हुए हैं. ओडिशा के पत्रकारों का कहना कि अब सीट शेयरिंग पर अंतिम मुहर लग सकती है. 12 मार्च को गृह मंत्री अमित शाह ओडिशा के दौरे पर जाने वाले हैं. संभावना है कि वहीं इसकी औपचारिक घोषणा हो.
पिछले कुछ सालों में ओडिशा के भीतर बीजेडी और बीजेपी एक-दूसरे की विरोधी बनकर उभरी हैं. लेकिन केंद्र के स्तर पर नवीन पटनायक ने एक 'दोस्ताना' संबंध भी बनाकर रखा. 'ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर' वाले सिद्धांत पर चलते रहे. लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले जब दोनों दलों के साथ आने की चर्चा हो रही है, तो इसके पीछे की वजहों को टटोलना जरूरी है. इससे किसे ज्यादा फायदा होगा? जवाब का एक हिस्सा इतिहास में छिपा है.
साल था 1997. तब नवीन पटनायक दिल्ली में ही रहा करते थे. उड़िया बोल नहीं पाते थे. दिल्ली के ओबेराय होटल में उनका एक बुटीक था- साईकेडेल्ही. इसके अलावा वो क्या करते थे, ज्यादा जानकारी सार्वजनिक नहीं है. लेकिन राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था.
17 अप्रैल 1997 को उनके पिता और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक का निधन हो गया. तब वे सांसद थे. पिता की मौत के बाद नवीन को परमानेंट ओडिशा आना पड़ा. उस राजनीतिक विरासत को संभालने, जो बीजू पटनायक ने चार दशकों में तैयार की थी. सीनियर पटनायक अस्का से सांसद थे. तो नवीन ने यहीं से उपचुनाव में पर्चा भरा, और 1997 में सांसद बन गए.
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ये वो दौर भी था, जब लोग कांग्रेस और बीजेपी से इतर नए राजनीतिक विकल्प ढूंढ रहे थे. जनता दल के बिखराव ने कई नई क्षेत्रीय पार्टियों को जन्म दिया. ओडिशा में जनता दल के बड़े नेताओं में भी असमंजस की स्थिति थी. दिसंबर आते-आते नवीन पटनायक ने जनता दल का ओडिशा संस्करण लॉन्च कर दिया. दिल्ली से हाल ही में लौटे नवीन के पास राजनीति में पिता की विरासत से ज़्यादा कुछ नहीं था. तो उन्होंने उसी को आगे किया. पार्टी को नाम दिया - बीजू जनता दल. उड़िया नहीं बोलने के बावजूद लोगों ने उन्हें स्वीकार किया. क्योंकि वे 'बीजू बाबू' के बेटे थे.
इसी दौर में भारतीय जनता पार्टी भी पूर्व और दक्षिण के राज्यों में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश में लगी थी. कहते हैं कि बीजेडी के गठन में बीजेपी का ही बड़ा रोल रहा है. कई नेताओं ने फंडिंग तक की. नवीन पटनायक पर किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार रूबेन बनर्जी ने लल्लनटॉप के नेतानगरी कार्यक्रम में बताया था,
भाजपा के ‘दोस्त’ नवीन बाबू"जब जनता दल बिखर रहा था तो एक सेक्शन ने कहा कि ओडिशा में एक रीजनल पार्टी का स्पेस हमेशा रहा है. इसलिए नई पार्टी का गठन किया. पार्टी के पास ज्यादा पैसे नहीं थे. तब बीजेपी भी राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रही थी. लेकिन ओडिशा में उसकी पकड़ नहीं थी. इसलिए बीजेडी के गठन में उसने मदद की. जब बीजेडी की स्थापना को लेकर पहली बैठक हुई तो उसमें शत्रुघ्न सिन्हा, साहिब सिंह वर्मा समेत बीजेपी के कई नेता थे. बीजेपी ने खूब फंडिंग की."
दोस्ती शुरू हो चुकी थी. एक ऐसी पार्टी के साथ, जिसे उनके पिता बीजू पटनायक ने कभी आसपास नहीं आने दिया. आखिरी दम तक बीजू बीजेपी के विरोधी रहे. लेकिन अब नवीन की बारी थी. उन्होंने खुद को पिता की छांव से कुछ बाहर निकालते हुए भाजपा से हाथ मिला लिया.
अगले ही साल, 1998 के लोकसभा चुनाव में बीजेडी और बीजेपी का गठबंधन हो गया. बीजेडी 12 सीटों पर लड़कर 9 जीत ले गई. और बीजेपी 9 पर लड़कर 7 जीती. दोनों दलों का कुल वोट शेयर था 48.7 फीसदी. जनता दल का राज्य से सफाया हो गया. नवीन पटनायक को भी दोस्ती का रिवार्ड मिला. वाजपेयी सरकार में केंद्रीय इस्पात और खनन मंत्री बनाया गया.
फिर आया साल 2000. राज्य में विधानसभा चुनाव होने थे. कांग्रेस की सरकार के खिलाफ एंटी-इन्कंबेंसी का माहौल था. अक्टूबर 1999 के सुपर साइक्लोन में करीब 10 हजार लोग मारे गए थे. कांग्रेस पर मिसमैनेजमेंट का आरोप लगा. एनडीए की पहली परीक्षा होनी थी. नवीन पटनायक राज्य के लोगों के लिए तब चार्मिंग फिगर की तरह थे. राज्य की 147 सीटों में बीजेडी-बीजेपी गठबंधन को कुल 106 सीटें मिल गईं. बीजेडी को 68 सीट और बीजेपी को 38. सिर्फ तीन साल पहले ओडिशा की राजनीति में एंट्री करने वाले नवीन पटनायक मुख्यमंत्री बन गए. और ये सिलसिला आज तक टूटा नहीं है. चुनाव दर चुनाव जीत दर्ज करने वाले नवीन अब अपने पिता की ही तरह, ‘नवीन बाबू’ कहलाने लगे हैं.
पटनायक अगर 2024 के विधानसभा चुनाव के बाद फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालते हैं तो सबसे लंबे समय तक सीएम बनने का रिकॉर्ड उनके नाम हो जाएगा. अभी ये रिकॉर्ड सिक्किम के पूर्व सीएम पवन कुमार चामलिंग के नाम है.
बात खराब कहां हुई?साल 2004 में तय समय से पहले लोकसभा चुनाव का एलान हो गया. नवीन पटनायक ने भी राज्य में समय से पहले चुनाव करवाने का फैसला किया. बीजेडी और बीजेपी साथ लड़ी. पुराने फॉर्मूले पर ही. बीजेपी केंद्र की सत्ता से बाहर हो गई. लेकिन नवीन पटनायक चुनाव जीतने में सफल रहे. बीजेडी को 61 और बीजेपी 32 सीटें मिलीं. दोनों दलों का साझा वोट शेयर 44.5 फीसदी था. राज्य में कांग्रेस को तब 38 सीट मिली थी.
राज्य में दोबारा एनडीए की गाड़ी चल पड़ी. नवीन पटनायक की लोकप्रियता 'कामकाजी मुख्यमंत्री' के रूप बढ़ी. लेकिन साल 2008 आते-आते दोनों दलों के बीच रिश्ते बिगड़ने लगे. अगस्त 2008 में कंधमाल में विश्व हिंदू परिषद (VHP) के नेता लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या हो गई. इसके बाद राज्य में ईसाइयों के खिलाफ हमले शुरू हो गए. धर्मांतरण का आरोप लगाकर एक अभियान चलाया गया. ईसाई समुदाय के लोगों के घरों को जला दिया गया. इन सांप्रदायिक दंगों में 38 लोग मारे गए. हजारों लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा. कई दिनों तक कैंप में रहे.
हिंदुत्ववादी संगठन यहीं नहीं रुके. वीएचपी ने उस साल क्रिसमस के मौके पर राज्यव्यापी बंद का आह्वान कर दिया. बीजेपी ने इसका समर्थन किया. हालत ऐसी हो गई कि पटनायक को बीजेपी के केंद्रीय नेताओं से बात तक करनी पड़ी. लेकिन इस घटनाक्रम के चलते नवीन पटनायक की धर्मनिरपेक्ष छवि पर बट्टा लगने लगा.
हालांकि ये पहला मौका नहीं था जब बीजेपी के कारण नवीन पटनायक को विरोध झेलना पड़ा. राज्य बीजेपी के नेता लगातार नवीन पटनायक के खिलाफ बोलते रहे. जनवरी 2006 में कलिंगा नगर में पुलिस फायरिंग में 12 आदिवासी मारे गए थे. तब बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जुएल ओरांव ने मांग कर दी कि पार्टी को सरकार से समर्थन वापस ले लेना चाहिए. इसके अलावा उत्तरी ओडिशा के खंडाधार में साउथ कोरियन कंपनी को आयरन माइनिंग अलॉट करने के खिलाफ भी ओरांव ने सरकार के खिलाफ खूब कैंपेन चलाया.
और टूट गई दोस्ती…कंधमाल हिंसा के बाद अगले ही साल लोकसभा और विधानसभा चुनाव होने थे. बीजेडी और बीजेपी के बीच सीट शेयरिंग को लेकर भी दिक्कतें होने लगीं. और आखिरकार चुनावों से पहले मार्च 2009 में 11 साल पुराना गठबंधन टूट गया. मई 2009 में इंडिया टुडे से नवीन पटनायक ने कहा था कि बीजेपी से जुड़े संगठनों ने कंधमाल में हिंसा की. और इसी कारण उन्होंने बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ा. हालांकि जानकार इस पर अलग राय रखते हैं.
बीबीसी के लिए लंबे समय तक काम करने वाले ओडिशा के वरिष्ठ पत्रकार संदीप साहू कहते हैं कि कंधमाल की घटना से इसका कोई लेना-देना नहीं है. सीट शेयरिंग पर बात नहीं बनने के कारण बीजेडी ने इसे भुनाया. दंगे अगस्त 2008 में हुए थे लेकिन अगले 6-7 महीने तक तो बीजेडी ने बीजेपी के खिलाफ कुछ नहीं कहा था.
संदीप कहते हैं,
"तब नवीन पटनायक के राजनीतिक सलाहकार प्यारी मोहन मोहापात्र ने कहा कि बीजेडी अपने दम पर 100 से ज्यादा सीटें जीत सकती हैं. बीजेपी हमारे भरोसे जीत रही है, उनकी कोई पकड़ नहीं है. नवीन सहमत हो गए. इसलिए बीजेडी ने बीजेपी से कह दिया कि पुराने फॉर्मूले पर सीट नहीं दे पाएगी. बीजेपी को ये मंजूर नहीं था. इसलिए गठबंधन टूट गया."
तब जुएल ओरांव ने दावा किया था कि बीजेडी ने लोकसभा की सिर्फ 5 और विधानसभा की 25 सीटें ऑफर की थी, जो कि किसी भी तरीके से स्वीकार्य नहीं था.
बीजेडी ने अलग राह पकड़ीगठबंधन टूटा तो राज्य में बीजेपी की हालत खराब हो गई. 2009 के लोकसभा चुनाव में ओडिशा में बीजेपी का खाता भी नहीं खुला. विधानसभा में सीटें घटकर 6 हो गई. इधर, चुनाव से पहले पटनायक वाम मोर्चे के नेतृत्व वाले थर्ड फ्रंट के साथ हो लिए थे. इस गठबंधन में तब बीजेडी के अलावा बसपा, टीडीपी, जेडीएस जैसी पार्टियां थीं. हालांकि इस मोर्चे को लोकसभा में कुछ खास फायदा नहीं हुआ था. लेकिन बीजेडी राज्य में अपने राजनीतिक प्रदर्शन के उरूज पर थी. विधानसभा में पार्टी को 103 सीटों पर जीत मिली. लोकसभा में भी 14 सांसद चुनकर आए.
वरिष्ठ पत्रकार प्रियरंजन साहू कहते हैं,
"बीजेडी ने अपना एक यूनीक वोट बैंक तैयार किया. जिस तरीके से बिहार में नीतीश कुमार या मध्य प्रदेश में शिवराज ने महिलाओं का वोट बैंक बनाया, उसी तरीके से नवीन पटनायक ने भी काम किया. महिलाओं के लिए किए गए कामों की वजह से बीजेडी वोट मिलते रहे."
आने वाले सालों में बीजेडी की लोकप्रियता और बढ़ी. 2014 के लोकसभा चुनाव में पूरे देश में 'मोदी लहर' थी. लेकिन ओडिशा में ये लहर नहीं दिखी. बीजेडी 21 लोकसभा सीटों में से 20 जीत गई. बीजेपी को सिर्फ एक सीट मिली. विधानसभा में भी बीजेडी के विधायकों की संख्या 117 पहुंच गई. राजनीतिक जानकारों ने कहा कि यहां बीजेपी का संगठन मजबूत नहीं था, ना ही पार्टी के पास कोई बड़ा चेहरा था.
इसलिए 2014 के चुनाव के बाद बीजेपी ने जमीन पर मेहनत शुरू की. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह कई बार ओडिशा के दौरे पर गए. अप्रैल 2017 में पार्टी की नेशनल काउंसिल की मीटिंग भी भुवनेश्वर हुई. इसका नतीजा भी नजर आया. 2012 के पंचायत चुनाव में बीजेपी के खाते में 854 में से सिर्फ 36 सीट आई थीं. लेकिन यह आंकड़ा 2017 में बढ़कर 299 पर पहुंच गया. पार्टी को 33 फीसदी वोट मिला जो कि बीजेडी के मुकाबले 8 फीसदी कम था. जानकारों ने लिखा कि बीजेपी ने इस चुनाव में बीजेडी के वोट बैंक में सेंध लगा दी है. खासकर पश्चिमी ओडिशा में. इसलिए राज्य में बीजेपी को एक मजबूत विपक्ष के तौर पर देखा जाने लगा. कांग्रेस की जमीन खिसकती चली गई.
बीजेपी के सत्ता में आने के बाद नरमी2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भी बीजेडी और बीजेपी के गठबंधन की चर्चा चली. लेकिन पटनायक ने इससे परहेज किया. विपक्ष के तरफ से भी प्रस्ताव आया लेकिन नवीन पटनायक ने दूरी बनाई. दोनों पार्टियां अकेले चुनाव में उतरी. बीजेपी ने इस बार वापसी की. लोकसभा में सीटों की संख्या एक से बढ़कर आठ हो गई. विधानसभा में 10 से बढ़कर 23. वोट परसेंटेज भी 18 से बढ़कर 32.49 फीसदी पर पहुंच गया. लोकसभा में जो आठ सीटें आईं, उनमें से पांच पश्चिमी ओडिशा के इलाके की थी.
वरिष्ठ पत्रकार रूबेन बनर्जी कहते हैं,
"निश्चित तौर पर BJP वहां मजबूत हुई है. मोदी लहर इस बार वहां देखने को मिल सकती है. गठबंधन की चर्चा से पहले कुछ ओपिनियन पोल्स में अनुमान लगाया गया कि लोकसभा में बीजेडी से ज्यादा सीटें बीजेपी जीत सकती हैं. लोगों को भी लग रहा है कि बीजेडी वैसे भी बीजेपी के साथ है तो उसे ही क्यों न वोट दे दिया जाए."
लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद दोनों दलों के बीच पुरानी दोस्ती का एक अनोखा नजारा दिखा. ओडिशा की तीन राज्यसभा सीटें खाली हुई थीं. इसलिए जुलाई में वहां भी उपचुनाव होने थे. 21 जून 2019 को नवीन पटनायक ने तीन लोगों के नाम की घोषणा की. इसमें अश्विनी वैष्णव का भी नाम था. लेकिन थोड़ी देर बाद ही पता चला कि वैष्णव बीजेपी के उम्मीदवार हैं. कहा जाता है कि नवीन पटनायक को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फोन आया. इसके तुरंत बाद बीजेडी ने वैष्णव के समर्थन का एलान कर दिया. जबकि बीजेडी के पास खुद तीनों सीट के लिए पर्याप्त संख्या बल थे. यही सीन हालिया राज्यसभा चुनाव में भी दिखा, जब वैष्णव को दोबारा ओडिशा से संसद भेजा गया.
इसके बाद पटनायक कई मौकों पर बीजेपी का साथ देते आए. साल 2019 में ही कई महत्वपूर्ण बिलों पर बीजेडी ने समर्थन दिया. चाहे वह आर्टिकल 370 को खत्म करने के लिए बिल, तीन तलाक के खिलाफ लाया गया विधेयक हो या नागरिकता संशोधन विधेयक हो. बीजेडी ने हर बार सरकार के समर्थन में वोट किया. पिछले साल दिल्ली सर्विसेस बिल और मोदी सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर भी बीजेडी ने बीजेपी का समर्थन किया था. इसके अलावा नोटबंदी, जीएसटी लागू होने के दौरान भी बीजेडी साथ नजर आई.
किसको फायदा मिलेगा?पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को अपने दम पर 8 सीटें मिल गई थी. जाहिर है, इस बार राज्य में बीजेपी अपनी पकड़ और मजबूत करना चाहती है. रूबेन बनर्जी कहते हैं कि बीजेपी 400 के आंकड़े को देख रही है. अगर बीजेडी के साथ रहती है तो राज्य की अधिकतर सीटें एनडीए के पास आ सकती है. क्योंकि दोनों दलों को मिला दें तो 75 फीसदी वोट उनके पास हैं.
रूबेन के मुताबिक, इसका मार्जिनल फायदा कांग्रेस को भी मिल सकता है क्योंकि विपक्ष की जगह खाली हो जाएगी. इसलिए जिसे ओडिशा सरकार के खिलाफ वोट करना है वो कांग्रेस को ही करेगा. लेकिन वे ये भी कहते हैं कि कांग्रेस की स्थिति राज्य में बहुत खराब है. राज्य में कुछ सीटें जरूर बढ़ जाएगी लेकिन इससे बीजेडी को कोई खतरा नहीं होगा.
वहीं संदीप साहू कहते हैं कि साथ आने से दोनों ही (बीजेपी-बीजेडी) पार्टियों को कुछ फायदा और कुछ नुकसान होने वाला है. संदीप के मुताबिक,
"बीजेपी को ज्यादा फायदा नहीं मिलेगा. क्योंकि अभी बीजेपी विकल्प के रूप में उभर रही थी. लेकिन अलायंस होने के बाद उन्हें कम सीटों पर लड़ना पड़ेगा. इसी तरह गठबंधन में जाने पर बीजेडी कई सीटों पर समझौता करेगी. कई सीटें बीजेपी को देनी पड़ेगी जहां पहले से उसके विधायक और सांसद हैं तो पार्टी में नाराजगी देखी जा सकती है. इससे वोटों का नुकसान भी हो सकता है."
संदीप कहते हैं कि बीजेपी राज्य की सत्ता में आने को लेकर जल्दबाजी में नहीं है, वो संसद में मजबूती चाहती है. दूसरी तरफ, नवीन पटनायक की राष्ट्रीय राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रही. वे हमेशा ओडिशा पर फोकस करते रहे. इंडिया अलायंस को भी उन्होंने कोई भाव नहीं दिया.
BJD की क्या मजबूरी?जानकार कहते हैं कि बीजेडी की लोकप्रियता धीरे-धीरे घट रही है. इसलिए बीजेडी राज्य में कम से कम सरकार बचाकर रखना चाहती है. संदीप साहू कहते हैं,
साथ नहीं दिया तो…"जहां तक मुझे जानकारी है, बीजेडी ने एक इंटरनल सर्वे करवाया. इसमें पता चला कि बीजेडी की हालत अच्छी नहीं है. बहुमत तक मिलने में दिक्कत नजर आ रही थी. इस वजह से उनकी मजबूरी हो गई कि बीजेपी से हाथ मिलाने पर सोचा जाए.''
संदीप एक और महत्वपूर्ण मुद्दे की तरफ इशारा करते हैं. उनका मानना है कि बीजेडी सिर्फ चुनावी हार जीत के बारे में नहीं सोच रही. मामला सर्वाइवल का भी है. दूसरे विपक्षी दलों ने देखा है कि केंद्रीय एजेंसियां जब माइक्रोस्कोप लेकर उनकी कुंडली टटोलने लगती हैं तो कैसी दिक्कतें आती हैं.
ओडिशा में भी चिट फंड घोटाला हुआ. हजारों करोड़ के माइनिंग घोटाले के आरोप लगे. सीबीआई ने इन मामलों की जांच अभी ठंडे बस्ते में डाल दिया है. लेकिन एक डर तो है कि अगर जांच एजेंसियां काम पर लगती है तो पार्टी और मुख्यमंत्री की छवि बहुत खराब होगी.
बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व ने चुनाव प्रचार या किसी दूसरे मंच पर इस मुद्दे को नहीं उठाया है. राज्य बीजेपी के नेता अलग-अलग मुद्दों पर पटनायक सरकार को जरूर घेरते रहते हैं लेकिन चिटफंड और माइनिंग घोटाले का कोई नाम नहीं लेता. रूबेन बनर्जी भी इससे सहमत नजर आते हैं. वे कहते हैं कि नवीन 'केंद्रीय संरक्षण' चाहते हैं.
नवीन पटनायक के बाद कौन?वहीं, दूसरी ओर स्टेट पॉलिटिक्स में अपने भविष्य को लेकर बीजेपी अभी वेट एंड वॉच के मूड में है. क्योंकि नवीन पटनायक की उम्र 77 साल हो चुकी है. उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता. उनकी सक्रियता लगातार घट रही है.
प्रियरंजन साहू कहते हैं कि अब नवीन पटनायक उस स्थिति में नहीं हैं कि सक्रिय रूप से चुनाव प्रचार करें. नवीन पटनायक के बाद पार्टी में कोई है नहीं, एक से 10 नंबर तक वही हैं. सीनियर नेताओं को पहले ही किनारे कर दिया गया. फिलहाल पटनायक ने वीके पांडियन को पूरा अधिकार दे रखा है कि वे निर्णय लें.
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पांडियन 2011 में नवीन पटनायक के निजी सचिव बने थे. तब से ही वो मुख्यमंत्री की आंख, नाक और कान माने जाते रहे हैं. पिछले साल जब उन्होंने VRS (स्वैच्छिक सेवानिवृति) लिया था, तभी अंदेशा हो गया था कि अब बीजेडी को हांकने के लिए अब किसी विश्वसनीय नेता की जरूरत है. एक महीने बाद ही पांडियन बीजेडी में शामिल हो गए.
जानकारों के मुताबिक, बीजेपी की तरफ से अश्विनी वैष्णव और बीजेडी की ओर से पांडियन ही ब्रिज का काम करते रहे हैं. संदीप साहू कहते है,
"पूरी कमान अभी वीके पांडियन के पास है. कई लोग उन्हें नवीन का उत्तराधिकारी बताते हैं. तमिलनाडु के अखबारों में उन्हें अगले मुख्यमंत्री के रूप में लिखा जा रहा है. लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच इसका अच्छा मैसेज नहीं जा रहा है. लोग एक बाहरी (वीके पांडियन तमिल हैं) को सीएम के रूप में नहीं देखना चाहते हैं."
हालांकि एक पत्रकार नाम ना छापने की शर्त पर कहते हैं कि अश्विनी वैष्णव और पांडियन की ग्राउंड पर कोई पकड़ नहीं है. ये दोनों सिर्फ मैनेजमेंट कर सकते हैं. बीजेपी के पास अब भी स्टेट लीडरशिप में कोई बड़ा नेता नहीं है जिसके चेहरे पर पार्टी चुनाव लड़ सकती है. धर्मेंद्र प्रधान, जय पांडा या संबित पात्रा, किसी नेता की अभी वो अपील नहीं, कि नवीन बाबू की तरह भीड़ खड़ी कर ले.
दोनों पार्टियों के साथ आने के दावों को जरूर बल मिल रहा है. लेकिन ये साफ है कि नवीन पटनायक अब अपनी राजनीति के ढलान पर हैं. इसके बाद बीजेडी को जमीनी स्तर पर कोई मजबूत नेता चाहिए. ऐसा नहीं हुआ, तो भाजपा खाली जगह को भरने में ज़्यादा देर नहीं लगाएगी.
बातें तो अभी से चल रही हैं कि भाजपा ये चुनाव ही अकेले लड़ेगी, ताकि पार्टी को अपनी ताकत का सही अंदाज़ा मिले और इस प्रदर्शन के आधार पर भविष्य के लिए रणनीति बने. नवीन से उलट, भाजपा के पास अभी बहुत वक्त है.
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