महीना था मार्च का. साल 2018. कर्नाटक में विधानसभा चुनावों की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी थी. कांग्रेस की सरकार को कुछ ऐसा करना था कि चुनाव की राह आसान हो जाए. मुख्यमंत्री सिद्दारमैया की सरकार ने ऐलान किया कि लिंगायत समुदाय को एक अलग धर्म की तरह मान्यता दी जाती है. इसे मास्टर स्ट्रोक कहा गया. मगर ये मास्टर स्ट्रोक चुनाव में किसी काम का साबित न हुआ. कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई.
कहानी लिंगायत समाज की, जो BJP से दूर गया तो कर्नाटक हारने से कोई ना बचा पाएगा!
येदियुरप्पा लिंगायत समाज से आते हैं, BJP के पोस्टर बॉय थे मगर अब...
थोड़ा और आगे बढ़ते हैं. जुलाई 2019. कर्नाटक में जनता दल सेकुलर और कांग्रेस गठबंधन की सरकार गिर गई. बहुमत के आंकड़े से कुछ दूर ठहक गई बीजेपी ने हिचकोले खाते हुए सरकार बनाई. बीएस येदियुरप्पा सूबे के मुख्यमंत्री बने. लेकिन ठीक दो साल बाद बीजेपी आलाकमान ने येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने का आदेश दिया. येदियुरप्पा हटे तो नंबर आया बसवराज बोम्मई का. येदियुरप्पा और बोम्मई में एक समानता थी. दोनों लिंगायत पंथ को मानने वाले थे.
यानी सतही तौर पर देखेंगे तो पाएंगे कि कर्नाटक में राजनीति का पहिया लिंगायत की धुरी पर घूमता नज़र आएगा. वो समुदाय जिसकी जनसंख्या प्रदेश में सबसे ज्यादा है. करीब 17 प्रतिशत. यही वजह है कि कोई भी पार्टी लिंगायत समाज को नाराज़ नहीं होने देना चाहती. क्योंकि कर्नाटक का राजनीतिक इतिहास बताता है कि लिंगायत चुनाव में जिस निशान का बटन दबा देते हैं सरकार उसी की बनती है.
कर्नाटक विधानसभा का चुनाव 10 मई को होना है. 13 को नतीजे आएंगे. इसलिए लल्लनटॉप लेकर आया है कर्नाटक स्पेशल सीरीज़. जिसमें हम बताएंगे कर्नाटक की राजनीति का पूरा A to Z. आज बात करेंगे लिंगायत समाज की. क्या कहता है इतिहास? क्यों लिंगायत अलग धर्म की मांग करते हैं? लिंगायत और वीरशैव के बीच का विवाद क्या है? लिंगायत कर्नाटक की राजनीति पर कितना असर डालते हैं?
लिंगायतबात 11वीं सदी से शुरू करनी पड़ेगी. दक्कन में चालुक्यों का अधिपत्य था. दक्कन में एक राजवंश था कलिचुरी राजवंश. इस राजवंश का जिस भूभाग पर शासन था उसका कुछ हिस्सा आज कर्नाटक में है और कुछ महाराष्ट्र में. कलिचुरी राजवंश चालुक्यों के संरक्षण में शासन करता था. कलिचुरी राजवंश में एक राजा हुए बिज्जल द्वितीय. जिस दौरान बिज्जल का शासन था तब चालुक्य साम्राज्य का राजा था विक्रमादित्य षष्ठम या छठा विक्रमादित्य.
इतिहास में इन राजाओं के बीच के संबंधों को अलग-अलग तरीके से दर्ज किया गया है. कुछ इतिहासकार दावा करते हैं कि बिज्जल ने चालुक्य राजवंश को हराकर कुछ समय के लिए कर्नाटक पर अपना शासन स्थापित कर लिया था. हालांकि बिज्जल के बेटे अपने साम्राज्य को बचा नहीं पाए. कुछ कहते हैं कि विक्रमादित्य की मौत के बाद बिज्जल ने खुद के स्वतंत्र घोषित कर दिया. और कुछ का दावा है कि कलिचुरी राजवंश हमेशा चालुक्यों के अधीन ही रहा. तीसरा तर्क मानने वाले लिंगायत भी है.
लेकिन दक्कन में जिस समय साम्राज्य हथियाने और बचाने की ये लड़ाई चल रही थी उसी दौरान एक महान दार्शनिक और संत हुए. जिनका नाम था बसवा. जिन्हें बसवन्ना के नाम से भी जाना जाता है. बसवन्ना ने वेदों को नकार दिया, वैदिक संस्कृति और परंपराओं को नकार दिया. सनातन धर्म में पनप रही रूढ़ियों और मान्यताओं को खारिज किया. और माना जाता है कि उन्होंने ही लिंगायत पंथ की शुरू की. लिंगायत पंथ को मानने वालों के लिए सबसे श्रेष्ठ और पूजनीय बसवन्ना हैं. बसवन्ना की शिक्षाएं हैं.
हालांकि कुछ लोगों का ये भी दावा है कि लिंगायत पंथ तो पहले से चला आ रहा था, बसवन्ना ने सिर्फ उसे आगे बढ़ाया. और इस बात का दावा करने वालों में वीरशैव भी शामिल हैं. क्योंकि वीरशैव और लिंगायत के बीच का विवाद अंतहीन है.
तो पहले बात वीरशैव की करते हैं. क्योंकि लिंगायत को समझने से पहले जानना जारूरी है वीरशैव पंथ के बारे में.
वीरशैवहिंदू धर्म में जो लोग विष्णु को ईश्वर मानते हैं उन्हें वैष्णव कहा जाता है. जो शिव को ईश्वर मानते हैं उन्हें शैव कहा जाता है. इनके मतभेद चलते रहते हैं. लेकिन दोनों ही, मान्यताएं, परंपराएं और शिक्षा वैदिक संस्कृति की ही मानते हैं.
इन्हीं शैवपंथियों से एक पंथ और निकला. जिसे कहा गया वीरशैव. वीरशैव भी शिव की आराधना करते हैं. लेकिन वीरशैव पंचाचार्य का अनुसरण करते हैं. पंचाचार्य यानी पांच आचार्य. रेणुकाचार्य, दारुकाचार्य, एकोरमा, पंडितराध्याय और विश्वराध्य.
वीरशैव जिस ग्रंथ के मुताबिक चलते हैं उसका नाम है सिद्धांत शिखामणि. हालांकि वीरशैव और लिंगायतों में फ़र्क़ ये है कि वीरशैव हिंदू धर्म की परंपराओं को मानते हैं. वेद और वैदिक परंपराओं को मानते हैं. वर्ण व्यवस्था को भी मानते हैं. ऐसा माना जाता है कि सिद्धांत शिखामणि रेणुकाचार्य ने ऋषि अगस्त्य को सुनाया था. रेणुकाचार्य, ऋषि अगस्त्य के गुरू थे.
लेकिन ये बात लिंगायत नहीं मानते. लिंगायतों का कहना है सिद्धांत शिखामणि कोई ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं है. इस ग्रंथ को तो 16वीं शताब्दी में लिखा गया. इससे पहले कि वीरशैव और लिंगायतों के बीच विवाद में गहरे उतरें, आइए लिंगायत समुदाय और बसवन्ना के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर लेते हैं.
बसवन्नाबसवन्ना का जन्म कर्नाटक के विजयपुरा जिले के बागेवाड़ी गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. पूरा गांव ही ब्राह्मणों का था. पिता को राजा का संरक्षण मिला था. उन्हें बागेवड़ी अग्रहर का मुखिया माना जाता था. अग्रहर उन्हें कहा जाता था जिन्हें राजा का संरक्षण मिला हो, संपदा मिली हो और कर न देना पड़ता हो.
लेकिन बसवन्ना को न तो ब्राह्मण धर्म की पड़ी थी न ही संपदा की. पूत के पांव पालने में ही दिखने लगते हैं. बसवन्ना ने बचपन में ही बता दिया था कि वो साधारण व्यक्तिव तो नहीं हैं. 8 साल की उम्र में उन्होंने यज्ञोपवीत संस्कार को नकार दिया. बताया जाता है कि उन्होंने तर्क दिया कि वो जनेऊ तभी पहनेंगे जब उनकी बहन को भी इसकी इजाज़त दी जाएगी.
पढ़ाई के बाद बसवन्ना को राजवंश के अधीन हिसाब-किताब रखने की ज़िम्मेदारी मिली. अकाउंटेंट के काम से शुरू करके बसवन्ना मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक बने. लेकिन बचपन से रूढ़ियों को तोड़ने वाले बसवन्ना करना कुछ और ही चाह रहे थे.
8वीं सदी में आदि शंकराचार्य ने वैदिक और सनातन धर्म के पुनरुत्थान की कोशिश की. बौद्ध और जैन धर्म भारत में कमजोर हो रहे थे. वैदिक संस्कृति मजबूत हो रही थी. और वर्ण व्यवस्था भी पुरजोर फल-फूल रही थी. नतीजतन, समाज के वंचित वर्ग की स्थिति बेहद खराब थी. समाज से लेकर शासन तक ब्राह्मण हर जगह ऊंचाई पर दिखते थे. वर्ण व्यवस्था में कुप्रचिलित शूद्र कहे जाने वाले लोग न्याय के लिए कहीं जाने की स्थिति में नहीं थे.
और यही सब बसवन्ना से बर्दाश्त नहीं हो रहा था. उन्होंने नए पंथ की शुरुआत की. नाम दिया लिंगायत. बसवन्ना ने वेद, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था सबको खत्म करते हुए एक अलग पंथ का आह्वान किया.
लिंगायत पंथकल्पना कीजिए कि बसवन्ना आज से आठ सौ साल पहले 12वीं सदी में उन सामाजिक सुधारों की बात कर रहे थे, जो आज भी पूरी तरह से संभव नहीं हो पाए हैं. सही मायनों में जिसे प्रोग्रेसिव यानी प्रगतिशील कहा जाए वो बसवन्ना थे. बसवन्ना के मुताबिक लिंगायत समाज में स्त्री-पुरुष के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा. दोनों बराबर माने जाएंगे. वर्ण व्यवस्था नहीं होगी. वर्ण और जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा. कोई ऊंच-नीच नहीं होगी.
बसवन्ना हर तरीके से समानता के अधिकार को स्थापित करना चाहते थे. उन्होंने कहा कि लिंगायत में कोई शक्तिशाली और कोई कमजोर नहीं होगा. सब बराबर होंगे.
बसवन्ना की ये शिक्षाएं ब्राह्मणवाद और समाज में ब्राह्मणों के वर्चस्व के खिलाफ थीं. बसवन्ना ने हिंदू धर्म में मानी जाने वाली तमाम रीतियों रिवाजों को सिरे से खारिज कर दिया. उन्होंने पूजा, हवन, बलि जैसी चीज़ों को नकार दिया.
बसवन्ना ने मांसाहार का विरोध किया. शराब और नशे का विरोध किया. लिंगायत समाज में इन सारी आदतों को निषेध कर दिया गया. उन्होंने महिलाओं के अधिकार के लिए विशेष प्रावधान किए. बाल विवाह को खारिज किया, विधवाओं के विवाह को मान्यता दी. विधवाओं और अविवाहित महिलाओं को बच्चा गोद लेने की इजाजत दी. इसके साथ ही माहवारी के दौरान महिलाओं के लिए बनाई गईं रूढ़ियों को पूरी तरह से बंद करने की बात कही.
इस संत ने वैदिक मान्यताओं को पूरी तरह खारिज किया लेकिन शिव पूजा को नहीं. यानी लिंगायत भी शिव की पूजा करते हैं. और यहीं से लिंगायत और वीरशैवों के बीच विवाद को बल मिलता है. वीरशैव कहते हैं कि लिंगायत उन्हीं का हिस्सा हैं. लिंगायतों का कहना है कि वो पूरी तरह अलग हैं. उनका वीरशैव संप्रदाय से कोई लेना देना नहीं है.
इष्टलिंगफिर बात आई कि लिंगायत दूसरों से अलग कैसे पहचाने जाएंगे. इसके लिए बसवन्ना ने लिंगायतों को इष्टलिंग दिया. इष्टलिंग छोटे शिवलिंग जैसा आकार होता है. जिसे लिंगायत अपने गले में पहनते हैं. यही लिंगायतों की पहचान बना. इसके बाद जिसने इष्टलिंग धारण किया वो लिंगायत बना.
बसवन्ना ने जो शिक्षाएं दीं उन्हें वचन कहा गया. वचन वैसे ही जैसे हिंदी में भजन कहा जाता है. वचन, कविताओं के रूप में हैं. ये सारे वचन बसवन्ना ने कन्नड़ भाषा में दिए. बसवन्ना का मानना था कि वचन सभी को समझ आने चाहिए ताकि उसे वो अपने जीवन में उतार सके. इसलिए उन्होंने बहुत ही सरल भाषा में ज्ञान की बातें कहीं.
JNU में इतिहास के प्रोफेसर पुरुषोत्तम बिलिमाले कहते हैं कि बसवन्ना ने जाति व्यवस्था को और अधिक भीतर तक समझने और खारिज करने की कोशिश की. उन्होंने बताया,
हिंदू धर्म में शादियों दो तरह से मानी जाती हैं. अनुलोम और विलोम. अनुलोम यानी तथाकथित छोटी जाति की लड़की का तथाकथित बड़ी जाति के लड़के से विवाह. और हिंदू धर्म में इसी को सही माना जाता था. बसवन्ना ने जाति व्यवस्था को खारिज किया तो उन्होंने अंतर्जातिय विवाह की सिफारिश तो की. लेकिन एक बड़ा प्रयोग किया.
विलोम विवाह. यानी अंतर्जातिय विवाह तो हो ही लेकिन समाज जिसे बड़ी जाति कह रहा है उसके घर की लड़की की शादी तथाकथित छोटी जाति के लड़के से कराई जाए. बसवन्ना ने ब्राह्मण लड़की की शादी वर्णव्यवस्था की सबसे निचली पायदान वाली जाति के लड़के से कराई.
लेकिन शादी के बाद हंगामा मच गया. रूढ़िवादियों को ये बात पसंद नहीं आई. और मार-काट शुरू हो गई. लिंगायतों को मारा जाने लगा. यहां के कई कहानियां निकल कर आती हैं. कुछ लोगों का दावा है कि बसवन्ना को भी इसी हिंसा में मार दिया गया था. कुछ लोग दावा करते हैं कि बसवन्ना शादी से भागकर आए और उन्होंने आत्महत्या कर ली. कुछ इन दोनों ही तर्कों को खारिज करते हैं और कहते हैं कि बसवन्ना का निधन प्राकृतिक मौत थी.
लिंगायत कहते हैं कि बसवन्ना में 12वीं सदी में देश का पहला लोकतांत्रिक संगठन बनाया था. अनुभव मंतपा. सरल भाषा में समझें तो अपने जीवन के अनुभव साझा करने की एक जगह. जहां समाज के हर तबके के पुरुष और महिलाएं दोनों आकर आध्यात्म और जीवन के बारे में बातें करें.
कलचुरी राजवंश में ही लिंगायत पंथ का उदय हुआ था. और कहा जाता है कि इसी राजवंश के राजाओं ने लिंगायत पंथ को खत्म करने की कोशिश भी की. राजा बिज्जल के शासनकाल में बसवन्ना प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे और इसी दौरान उन्होंने लिंगायत पंथ की स्थापना की. लेकिन बिज्जल के बेटे जब शासन में आए तो उन्होंने इस समुदाय को समाप्त करने का बीड़ा उठाया.
पूर्व ब्यूरोक्रेट और जगतिक लिंगायत महासभा के महासचिव एसएम जामदार कहते हैं कि-
बिज्जल के बेटे सोविदेव और उसकी सेना ने हजारों लिंगायतों को मौत के घाट उतार दिया. बसव के वचनों को जला दिया और लिंगायत पंथ पर प्रतिबंध लगा दिया. समाज में बसवन्ना के बदलाव की क्रांति पर 1167 ईं में विराम लग गया.
इसके बाद लिंगायत संप्रदाय के लोगों को भूमिगत होना पड़ा. पर गुप्त तरीके से ही पंथ का काम चलता रहा. समाज को बल मिला करीब ढाई सौ साल बाद. 15वीं शताब्दी में जब विजयनगर में संगम राजवंश का शासन आया तो फिर से लिंगायत समाज को मान्यता मिली. वसवन्ना के जो वचन नष्ट नहीं हुए थे, उनका संकलन किया गया.
इसके बाद कर्नाटक, महाराष्ट्र और तेलंगाना में लिंगायत मठों की स्थापना शुरू हुई. और दावा किया जाता है कि 18वीं शताब्दी आते आते करीब एक हजार लिंगायत मठ स्थापित हो चुके थे.
लेकिन 19वीं शताब्दी में शुरू हुई अलग लिंगायत धर्म की कहानी. और यहीं से बढ़ा लिंगायत और वीरशैवों के बीच का विवाद.
लिंगायत धर्म की मांग1871 में पहली बार देश में जनगणना हुई. जनगणना में शैव पंथ के कुछ लोगों ने खुद को लिंगायत बताया. कुछ ने खुद को वीरशैव बताया और कुछ लोगों ने वीरशैव लिंगायत कहा. विवाद यहीं से शुरू हुआ.
लिंगायत समाज का कहना है कि पहली जनगणना में मैसूर के सुपरिंटेंडेंट एडब्लूसी लिंडसे ने उन्हें जैन धर्म के साथ शामिल किया. दूसरी जनगणना में मैसूर के दीवान सी. रंगचारुलू ने उन्हें दलितों के साथ शामिल किया. इसकी वजह से लिंगायत नाराज़ हो गए.
इसके बाद 1920 आते आते अलग लिंगायत संप्रदाय को अलग धर्म के तौर पर मान्यता देने की मांग तेज़ हो गई. इसका एक कारण ये भी था कि लिंगायत और वीरशैव आपस में लड़ने लगे थे. क्योंकि लड़ाई अब बड़े छोटे की शुरू हो गई थी. दोनों समाज खुद को एक दूसरे से ऊपर बता रहे थे.
कर्नाटक में लिंगायतकर्नाटक में लिंगायतों की आबादी करीब 17-18 प्रतिशत बताई जाती है. हालांकि लिंगायत दावा करते हैं कि कर्नाटक में उनकी संख्या डेढ़ करोड़ है, महाराष्ट्र में एक करोड़ से ज्यादा और तेलंगाना में 50 लाख से अधिक. बाकी तमिलनाडु, केरल, मध्यप्रदेश और गुजरात में बसे हैं. उत्तर कर्नाटक में लिंगायतों की घनी आबादी हैं. दक्षिण के जिलों में इनकी संख्या कम होती जाती है. हालांकि मैसूर और शिमोगा में इनकी आबादी अच्छी खासी है. माना जाता है कि कर्नाटक विधानसभा की 240 सीटों में 90 से 100 सीटें ऐसी हैं जिनमें लिंगायत समाज के वोटर निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं.
संख्या के बल पर ही लिंगायत खुद के लिए अलग धर्म की मांग करते हैं. एसएम जामदार कहते हैं कि लिंगायतों को जैन, सिख और बौद्ध धर्म की तरह अलग धर्म का दर्जा मिलना चाहिए. इससे न तो किसी धर्म को खतरा हो सकता है और न ही देश को. वो कहते हैं कि लिंगायतों ने तो ब्रिटिश और मुस्लिम आक्रांताओं के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी है. लिंगायत देशभक्त होते हैं.
लिंगायत धर्म और राजनीतिकर्नाटक में सबसे ज्यादा मठ लिंगायतों के हैं. उसके बाद नंबर आता है वीरशैव मठों का. मठ का जितना धार्मिक महत्व है उतना ही राजनीतिक भी. मठ जिस दल के साथ, सरकार उसकी. वजह है लिंगायतों की संख्या. इसीलिए कोई भी राजनीतिक पार्टी लिंगायतों को नाराज़ नहीं करना चाहती. क्योंकि इसका नतीजा कांग्रेस देख चुकी है.
आज़ादी के बाद से लिंगायत समुदाय कांग्रेस के पीछे खड़ा था. 90 के दशक तक लिंगायत कांग्रेस को सत्ता तक आसानी से पहुंचाते रहे. 1989 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 179 सीटें मिलीं. 1956 से लेकर 1973 तक मैसूर स्टेट को कर्नाटक बनाने से पहले कांग्रेस ने चार लिंगायतों को सीएम बनाया. एस निजलिंगप्पा, बीडी जत्ती, एसआर कांथी. वीरेंद्र पाटिल.
लेकिन 90 के दशक से लिंगायतों का कांग्रेस के प्रति मोहभंग होता गया. इसके दो बड़े कारण हैं.
द हिंदू की पॉलिटिकल एडिटर निस्तुला हेब्बार कहती हैं-
पाटिल दो बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे. पहली बार 1968 में और दूसरी बार 1989. पाटिल जब दूसरी बार मुख्यमंत्री थे तो उन्हें पैरालिटिकल स्ट्रोक हुआ. कुछ दिन बाद राजीव गांधी कर्नाटक के दौरे पर आए. राजीव लौट रहे थे. बेंगलुरू एयरपोर्ट पर राजीव ने एक बयान दिया. जिसका खामियाजा कांग्रेस आज तक भुगत रही है. प्लेन में बैठने से ठीक पहले राजीव गांधी ने कहा कि हम मुख्यमंत्री बदलने वाले हैं.
कुछ दिन बाद पाटिल टीवी पर आते हैं. स्ट्रोक का असर चेहरे पर साफ़ दिखता था. पाटिल ने टीवी पर कहा कि उनके साथ अच्छा नहीं हुआ है. पाटिल लिंगायत थे. समाज तक संदेश पहुंच चुका था. नतीजा आने वाले दिनों में दिखता गया.
और यहीं से कर्नाटक में एक और बड़े लिंगायत नेता का उदय होना शुरू होता है. जो सालों अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर रहा था. बीएस येदियुरप्पा.
येदियुरप्पा कर्नाटक में अपनी पहचान बना चुके थे. वो कॉलेज के दिनों से RSS से जुड़ गए थे. कॉलेज के बाद राइस मिल में नौकरी की. वहीं उनकी मिल के मालिक की बेटी से शादी हुई. लेकिन नौकरी के साथ-साथ येदियुरप्पा संघ में भी सक्रिय थे. 1970 में संघ ने शिकारपुर यूनिट में उन्हें कार्यवाह का पद दिया. कार्यवाह का पद शाखा में सबसे बड़ा होता है. इसके बाद आया इमरजेंसी का दौर. येदियुरप्पा को जेल में डाल दिया गया.
इमरजेंसी खत्म हुई. 1980 में बीजेपी बनी. येदियुरप्पा को 1983 में पहले शिकारपुर तालुका की जिम्मेदारी दी गई. 85 में शिमोगा जिला सौंपा गया और 1988 में पूरे कर्नाटक का जिम्मा येदियुरप्पा को दे दिया गया.
आज़ादी के बाद से अब तक कर्नाटक में बीजेपी की मौजूदगी मामूली ही थी. नब्बे के दशक में वीरेंद्र पाटिल को मुख्यमंत्री पद से हटाना और राममंदिर आंदोलन ने कर्नाटक की राजनीति के सारे समीकरणों को पलटकर रख दिया. इन दोनों घटनाओं से वीरशैव और लिंगायत समुदाय बीजेपी के करीब आता चला गया. और इस करीबी के लिए पुल का काम किया येदियुरप्पा ने.
1994 विधानसभा चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले थे. सबसे ज्यादा कांग्रेस के लिए. कांग्रेस को मिली सिर्फ 36 सीटें. पिछले चुनाव यानी 1989 में इसी कांग्रेस को 179 सीटें मिली थीं. ये चुनाव वीरेंद्र पाटिल को हटाने और राम रथ यात्रा के बाद हुआ था. और बीजेपी को पिछले चुनाव में जहां 4 प्रतिशत वोट मिले थे, इस बार वोट प्रतिशत बढ़कर 17 तक पहुंच गया. बीजेपी को 40 सीटें मिलीं. और इसी के साथ येदियुरप्पा लिंगायत पॉलिटिक्स में एक नए नेता स्थापित हुए.
1994 में येदियुरप्पा विधानसभा में विपक्ष के नेता बने. हालांकि वो 1999 में चुनाव हार गए. तब उन्हें बीजेपी ने राज्यसभा में भेज दिया. 2004 में येदियुरप्पा एक बार फिर विपक्ष के नेता बने.
येदियुरप्पा को सत्ता का सुख 2007 में प्राप्त हुआ. तब पहली बार जेडीएस और बीजेपी की गठबंधन सरकार बनी. गठबंधन में ये तय हुआ कि 20 महीने जेडीएस और 20 महीने जेडीयू का मुख्यमंत्री रहेगा. पहले एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने. लेकिन जब येदियुरप्पा के मुख्यमंत्री बनने की बारी आई तो कुमारस्वामी मुकर गए.
इसके बाद कुछ दिन कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन रहा. फिर जेडीएस और बीजेपी के बीच समझौता हुआ. 12 नवंबर 2007 को येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. लेकिन मंत्रिमंडल के बंटवारे में फिर बात फंस गई और जेडीएस ने सरकार को समर्थन देने से मना कर दिया. एक हफ्ते बाद येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा. लेकिन बीजेपी को इस बात का फायदा आने वाले चुनाव में मिला.
राष्ट्रपति शासन के बाद अगले साल चुनाव हुए. इस बार लिंगायत समाज येदियुरप्पा के साथ चल दिया. बीजेपी को 110 सीटें मिलीं. कर्नाटक में अपने दम पर पहली बार भगवा पार्टी सरकार बना रही थी. और बिना किसी लाग-लपेट के येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली.
लेकिन 2011 में एक बार फिर राजनीतिक उलटफेर हो गया. कर्नाटक के लोकायुक्त ने कहा कि मुख्यमंत्री येदियुरप्पा पर लैंड माइनिंग और लोहे की खदानों में धांधली में शामिल हैं. आरोप मुख्यमंत्री पर लगे थे. पार्टी जवाब दे पाने की स्थिति में थी नहीं. आलाकमान का दबाव लगातार बढ़ रहा था. आखिरकार येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा. बीजेपी ने सीएम पद इस बार दिया सदानंद गौड़ा को. गौड़ा कर्नाटक के वोकालिग्गा समाज से आते हैं. वोक्कलिगा समाज पर एक अलग एपिसोड में चर्चा की जाएगी.
येदियुरप्पा ने इस्तीफा तो दे दिया लेकिन पार्टी से नाराज़ हो गए. 2012 में येदियुरप्पा ने विधायकी के साथ बीजेपी की प्राथमिक सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया. और अपनी पार्टी बनाई. नुकसान बीजेपी से झेला नहीं गया.
2013 में विधानसभा चुनाव हुए. बाकी चुनावी मुद्दे तो थे ही लेकिन लिंगायत वोट बीजेपी मिला नहीं. सत्ता संभालने वाली पार्टी 40 सीटों पर सिमट गई. येदियुरप्पा की पार्टी को 6 सीट मिली. लेकिन वोट करीब 10 प्रतिशत खींच लिए.
बीजेपी और येदियुरप्पा दोनों को ही समझ आ गया था कि एक-दूसरे के बिना काम नहीं चलेगा. लेकिन इससे पहले कि पार्टी 2014 के लोकसभा चुनाव में जाती, बीजेपी ने येदियुरप्पा की पार्टी का विलय अपने साथ करा लिया. येदियुरप्पा भी बिना शर्त बीजेपी में पार्टी सहित विलय हो गए.
2018 में चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा दिया और केंद्र सरकार को सिफारिश भेज दी. कांग्रेस लिंगायत समाज को एक बार फिर लुभाने की कोशिश में था. लेकिन कांग्रेस की ये स्ट्रैटेजी उतनी काम नहीं आई.
चुनाव में वोटर ने कांग्रेस को नकार दिया. उसे 80 सीटें मिलीं. बीजेपी को 104 और जेडीएस को 37 सीटें मिलीं. लेकिन बहुमत किसी पार्टी को नहीं मिला. चुनाव के बाद येदियुरप्पा ने सरकार बनाने का दावा ठोक दिया. गवर्नर ने मुख्यमंत्री पद की शपथ भी दिला दी. लेकिन येदियुरप्पा बहुमत 9 सीटें कम थीं. फ्लोर टेस्ट से पहले ही भावुक स्पीच के साथ येदियुरप्पा ने ढाई दिन में इस्तीफे का ऐलान कर दिया.
फिर जेडीएस और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनाई. कुमारस्वामी सीएम बने. लेकिन गठबंधन ज्यादा दिन चल नहीं पाया. सरकार को इस्तीफा देना पड़ा. और गवर्नर ने एक बार फिर येदियुरप्पा को सरकार बनाने का न्योता दिया. येदियुरप्पा चौथी बार मुख्यमंत्री बने.
2021 में बीजेपी ने येदियुरप्पा को संकेत दिए कि अब वो राजनीति संन्यास ले लें. येदियुरप्पा ने कुर्सी छोड़ी तो लेकिन इस बार बीजेपी ने 2007 वाली गलती नहीं दोहराई. पार्टी किसी भी हाल में लिंगायत समाज को नाराज़ नहीं करना चाह रही थी. इस बार मुख्यमंत्री बीएस बोम्मई को ही बनाया गया. बोम्मई भी येदियुरप्पा की तरह लिंगायत समाज से आते हैं.
भले ही येदियुरप्पा चुनावी राजनीति से दूर हों. चुनाव में येदियुरप्पा को मिलती तरजीह उनकी अहमियत और लिंगायत समाज में उनकी पकड़ को बखूबी बयान करती है.
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