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हरियाणा चुनाव: BJP दलितों की जेब में रखी सत्ता की 'डुप्लीकेट' चाभी निकाल पाएगी या ट्रेन मिस हो गई?

Haryana Assembly Election: हरियाणा में जाटों के बाद जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा दलितों का है. राज्य में हुए बीते तीन चुनावों के नतीजे ये बताने के लिए काफी हैं कि राज्य में सत्ता की चाभी अगर जाटों के पास है तो एक डुप्लीकेट दलित भी अपनी जेब में रखते हैं. और इनको नजरअंदाज करने का जोखिम कोई भी राजनीतिक दल नहीं उठा सकता.

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हरियाणा में 17 आरक्षित सीटें हैं. (PTI)

हरियाणा के रहने वाले एक सज्जन कहते हैं- 'हमारे यहां लोग चुनाव जिताने के लिए नहीं, हराने के लिए वोट देते हैं.' 

बीते लोकसभा चुनाव में अगर आप हरियाणा के नतीजों को जमीन पर जाकर देखेंगे तो पाएंगे कि एकजुट दलित वोटों ने कांग्रेस को फायदे से ज्यादा बीजेपी का नुकसान करवाया है. बीजेपी इस बात को बाखूबी जानती थी कि जाटों का वोट कम ही मिलेगा. मगर 10 साल की एंटी-इंकम्बेंसी और आरक्षण को लेकर बीजेपी के खिलाफ बने माहौल में हरियाणा के दलितों का भी एकमुश्त वोट कांग्रेस को जाता दिखा. नतीजा ये हुआ कि पिछली बार 10 सीटें जीतने वाली बीजेपी पांच पर आ गई. और 2019 में चुनाव में शून्य पर 'सवार' कांग्रेस इस बार 5 सीटें अपने खाते में ले गई.

अब बारी है विधानसभा चुनाव की (Haryana Assembly Election 2024). लोकसभा चुनाव के नतीजों ने हरियाणा में बीजेपी को धरातल की हकीकत से वाकिफ कराया. मनोहर लाल खट्टर (Manohar Lal Khattar) को भले ही केंद्र सरकार में उचित सम्मान दिया गया, मगर लोकसभा चुनाव के ठीक पहले उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया था. यह फैसला इतना बताने के लिए काफी था कि खट्टर के खिलाफ हरियाणा में पर्याप्त माहौल बना हुआ है. कहा जा रहा है कि कोर्स करेक्शन के तौर पर इस बार बीजेपी के टिकट बंटवारे में इसलिए सबसे ज्यादा संघ की चली है. तभी खट्टर अपने करीबियों, यहां तक कि अपने पूर्व OSD जवाहर यादव तक को टिकट नहीं दिलवा पाए.  

हालांकि, बीजेपी अब इस बात को भी समझ रही है कि इतने भर से काम बनने वाला नहीं है. पार्टी जानती है कि लोकसभा की तरह इस बार भी जाटों के गुस्से को शांत करा पाना आसान नहीं होगा. मगर दलितों की नाराज़गी अगर कम नहीं की गई तो नतीजे लोकसभा चुनाव से भी ज्यादा निराश कर सकते हैं.

अगर आप पिछले हफ्ते के बीजेपी नेताओं के बयान देखेंगे तो पाएंगे कि सभी एक सुर में कांग्रेस सांसद कुमारी शैलजा के हिमायती हो चले हैं. खट्टर से लेकर सीएम नायब सिंह सैनी और अनुराग ठाकुर तक को कांग्रेस में 'दलित बहन' का अपमान होता दिखने लगा. खट्टर ने तो शैलजा को बीजेपी में आने का खुला ऑफर तक दे दिया. दरअसल, शैलजा बीते कुछ दिनों से कांग्रेस के चुनाव प्रचार से नदारद रहीं. वो टिकट बंटवारे में जितनी सीटें चाहती थीं उतनी मिली नहीं. कहा जा रहा है कि टिकट बंटवारे में सबसे ज्यादा हुड्डा की चली. 70 से ज्यादा टिकट हुड्डा के कहने पर दिए गए, जबकि शैलजा के खाते में आए सिर्फ सात से आठ.

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कांग्रेस सांसद कुमारी शैलजा. (PTI)

आलाकमान के इस रवैये से नाराज़ कुमारी शैलजा ने चुनाव प्रचार से दूरी बना ली. बीजेपी को कांग्रेस के खिलाफ एक मुद्दा मिल गया. और राजनीतिक विश्लेषक कह रहे हैं कि बीजेपी इसी मुद्दे के सहारे दलितों को साधने की कोशिश कर रही है. हालांकि, आजतक के एक कार्यक्रम में शैलजा ने साफ शब्दों में कह दिया कि बीजेपी में जाने का उनका कोई इरादा नहीं है. साथ ही बड़ी सहजता से यह भी जता दिया कि वो भी मुख्यमंत्री बनना चाहती हैं.

जीत के लिए क्यों जरूरी हैं दलित?

हरियाणा में जाटों के बाद जनसंख्या का सबसे बड़ा हिस्सा दलितों का है. सूबे में 20 प्रतिशत से ज्यादा आबादी दलित समाज की है. राज्य की विधानसभा में कुल 90 सीटें हैं, जिनमें अनुसूचित जाति की 17 सीटें हैं. लेकिन सीटों के नंबर से दलित वोट बैंक के वजन का अंदाजा लगाना सही नहीं होगा. राज्य के 47 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां कम से कम 20 प्रतिशत दलित हैं, जिनका एकजुट वोट किसी भी पार्टी की ‘बिगड़ी’ को बना सकते हैं.

पिछले पांच सालों में राज्य में तीन चुनाव हो चुके हैं, चौथे का दौर चल रहा है. बीते तीन चुनावों के नतीजे ये बताने के लिए काफी हैं कि राज्य में सत्ता की चाभी अगर जाटों के पास है तो एक 'डुप्लीकेट' दलित भी अपनी जेब में रखते हैं. इंडियन एक्सप्रेस के देवांश मित्तल ने इसे डेटा से समझाते हुए एक विस्तृत रिपोर्ट की है. रिपोर्ट के मुताबिक दलित बहुल सीटों पर बीजेपी को जितना नुकसान हुआ है उसका सीधा असर ओवरऑल नतीजों पर देखने को मिला है.

2019 लोकसभा के नतीजों को अगर विधानसभा क्षेत्र के लिहाज से देखें तो 17 आरक्षित क्षेत्रों में 15 पर बीजेपी को बढ़त मिली थी, कांग्रेस को सिर्फ दो. साथ ही बीजेपी ने उन 44 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाई जहां दलितों की आबादी 20 प्रतिशत से ज्यादा है. इस चुनाव में बीजेपी ने लोकसभा की सभी 10 सीटों पर जीत हासिल की.

2019 में ही हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए. इस चुनाव में 17 आरक्षित सीटों में से बीजेपी के खाते में गईं सिर्फ पांच. कांग्रेस को सबसे ज्यादा 7 और दुष्यंत चौटाला की JJP को 4 सीटें मिलीं. 20 प्रतिशत दलित आबादी वाले क्षेत्रों में जिस बीजेपी को लोकसभा में 44 सीटें मिल रही थीं, विधानसभा चुनाव में वो सिमट कर 16 पर आ गईं. जबकि कांग्रेस ने 15 सीटों (20 प्रतिशत दलित) पर जीत हासिल की जो लोकसभा चुनाव के दौरान सिर्फ दो नज़र आ रही थीं. नतीजा ये हुआ कि 2014 में पहली बार अपने दम पर सरकार बनाने वाली बीजेपी 40 सीटों पर आ गई, और कांग्रेस 15 सीट से बढ़कर 31 पर पहुंच गई.

वहीं 2024 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो इस बार आरक्षित और दलित बहुल सीटों पर बीजेपी का प्रदर्शन काफी निराशाजनक रहा. लोकसभा की दोनों आरक्षित सीटें- अंबाला और सिरसा- बीजेपी हार गई. सिरसा से कुमारी शैलजा ने ही बीजेपी के अशोक तंवर को हराया था. इस चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस दोनों को पांच-पांच सीटें मिलीं. लेकिन विधानसभा क्षेत्रों के लिहाज से बीजेपी का प्रदर्शन पार्टी के शीर्ष अधिकारियों के लिए चिंता का सबब बन गया. बीजेपी को 17 आरक्षित क्षेत्रों में से सिर्फ 4 पर बढ़त दिखी. जबकि कांग्रेस 11 पर आगे रही. 20 प्रतिशत दलित जनसंख्या वाली 47 सीटों पर नजर डालें तो बीजेपी को 18 पर बढ़त दिखी जबकि कांग्रेस को 25 पर.

ये आंकड़े इतना बताने के लिए काफी हैं कि हरियाणा में दलितों की नाराज़गी को कोई भी पार्टी पचा कर जीत नहीं पाएगी.

कांग्रेस की लंबी प्लानिंग!

लोकसभा चुनाव 2024 खत्म हुए ही थे कि विधानसभा चुनाव के मद्देनजर दलित समाज की एहमियत को समझते हुए ओम प्रकाश चौटाला की INLD ने मायावती की BSP से गठबंधन का एलान कर दिया. और कुछ ही दिन बाद दुष्यंत चौटाला ने चंद्रशेखर की JJP के साथ गठबंधन कर लिया. कांशीराम की शिष्या मायावती दलित राजनीति के सहारे यूपी में सत्ता का सुख भोग चुकी हैं. उसी रास्ते पर चल रहे चंद्रशेखर भी इस बार संसद में मूंछों पर ताव देने में कामयाब हो गए हैं.

मगर ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की इस कड़ी में कांग्रेस बाकी दलों के मुकाबले कहां नजर आती है? भूपेंद्र सिंह हुड्डा हरियाणा में बड़े जाट नेता के तौर पर स्थापित हुए. कांग्रेस ने उन्हें संभावनाओं से ज्यादा तरजीह दी. हुड्डा ही सीएम रहे और हुड्डा ही लीडर ऑफ अपोज़ीशन भी बने. मगर कांग्रेस ने सधे हाथों से खेलते हुए प्रदेश अध्यक्ष के पद पर दलित नेता को काबिज़ रखा. पिछले 17 सालों से हरियाणा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद पर कोई दलित नेता ही रहा. 2007 से 2014 तक फूल सिंह मुलाना हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. 2014 से 2019 तक अशोक तंवर को इस पद रखा गया. उनके बाद कुमारी शैलजा प्रदेश अध्यक्ष बनीं, जो 2022 तक इस पद पर रहीं. फिर हुड्डा के करीबी उदय भान को हरियाणा कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. वो अब भी इस पद पर हैं.

इनमें से अशोक तंवर अब बीजेपी में हैं. हालांकि प्रदेश प्रमुखों की फहरिस्त में इन नेताओं के नाम बताते हैं कि कांग्रेस ने जाटों के साथ दलित समाज पर भी अपनी पकड़ बनाने के लिए लंबी प्लानिंग की हुई है.

वहीं इसके उलट कहा जाता है कि पिछले एक दशक से सत्ता में रहने के दौरान बीजेपी का फोकस नॉन-जाट पॉलिटिक्स में था. पहले बीजेपी का मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री पद पर बिठाना और फिर उनके साढ़े 9 साल के कार्यकाल ने हरियाणा में एक नई तरह की राजनीति पेश कर दी. यहीं से '35 बनाम एक' का नारा प्रचलित हुआ. हरियाणा के ग्रामीण अंचल की पुरानी कहावतों में 36 बिरादरी का जिक्र सुनाई देता है. इन 36 में जाट, गुर्जर, ब्राह्मण, दलित जैसे सामाजिक धड़े आते हैं. इनके कोई आधिकारिक आंकड़े नहीं होते. मगर गांवों के बुजुर्ग 36 बिरादरियों को साथ रहने की सलाह देते हैं.

बीजेपी के विरोधी कहते हैं कि '35 बनाम एक' की राजनीति से हरियाणा के सामाजिक ताने-बाने को चोट पहुंची है. यहां '35 बनाम एक' में 'एक' का संदर्भ जाट बिरादरी से है. नतीजा ये हुआ कि जाट तो बीजेपी से दूर होते गए ही, दलित भी साथ छोड़ते दिखे. लोकनीति-CSDS सर्व के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में 52 फीसदी जाटों ने बीजेपी को वोट दिया था. इस बार ये घटकर 27 फीसदी पर आ गया. मगर बीजेपी के लिए ज्यादा बुरी खबर ये रही कि उसके दलित वोटों में भी भारी गिरावट आ गई.

लोकनीति-CSDS के सर्वे के मुताबिक 2024 लोकसभा चुनाव में, कांग्रेस-AAP गठबंधन को 68 प्रतिशत दलित वोट मिले, जो पिछले चुनावों की तुलना में चौंकाने वाली बढ़ोत्तरी है. ये आंकड़ा 2019 में बीजेपी को मिले 51 प्रतिशत दलित वोटों से भी ज्यादा था. दूसरी तरफ बीजेपी का दलित वोट शेयर गिर कर 24 प्रतिशत पर आ गया.

यहां इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि इतने सालों में बीजेपी हरियाणा में कोई दलित चेहरा नहीं तैयार कर पाई. आम आदमी पार्टी (AAP) से होते हुए कांग्रेस के अशोक तंवर बीजेपी में शामिल तो हो गए, लेकिन पार्टी में ना तो उनको ज्यादा तवज्जो मिली ना ही उनका उचित राजनीतिक इस्तेमाल होता दिखा. पार्टी ने उन्हें लोकसभा में टिकट जरूर दिया, लेकिन कुमारी शैलजा से हार गए. विडंबना देखिए, 23 सितंबर को फतेहाबाद की रैली में अमित शाह ने इन्हीं दोनों नेताओं के बहाने कांग्रेस को दलित विरोधी बताया. शाह ने कहा, “कांग्रेस दलितों का अपमान करती है, चाहे वे अशोक तंवर हो या बहन शैलजा हों.”

मनोहर लाल खट्टर और नायब सिंह सैनी के बाद अमित शाह का ये बयान दर्शाता है कि बीजेपी में दलितों को अपनी तरफ खींचने की बेचैनी बढ़ी है. कहा जा रहा है कि इसीलिए पार्टी अब कुमारी शैलजा के नाम का सहारा ले रही है.

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संभावनाएं कितनी हैं?

हरियाणा विधानसभा चुनाव में अब 15 दिन से भी कम का समय रह गया है. बीजेपी अपने कैंपेन को ज्यादा तेज करती दिख रही है. मगर क्या ये वाकई संभव है कि इतने कम समय में बीजेपी दलितों को अपने खेमे में खींच ले? इस पर हरियाणा की राजनीतिक नब्ज पर नजर रखने वाले पत्रकार इस सवाल का जवाब 'ना' में देते हैं. मसलन, सीनियर जर्नलिस्ट आदेश रावल को नहीं लगता कि अब इस बात की गुंजाइश है कि बीजेपी दलित वोटों को काट पाए.

इस बीच कांग्रेस भी इस बात को समझ रही है कि शैलजा की नाराज़गी को ज्यादा दिन तक टाला नहीं जा सकता. रणदीप सुरजेवाला ने 23 सितंबर को ट्वीट कर कहा कि कुमारी शैलजा 26 तारीख को नरवाना में कांग्रेस प्रत्याशी के लिए प्रचार करेंगी. शैलजा ने भी इस बात के संकेत दिए हैं कि वो जल्द प्रचार का हिस्सा होंगी. इस पर वरिष्ठ पत्रकार धर्मेंद्र कंवारी बताते हैं ,

"कांग्रेस आलाकमान शैलजा की नाराज़गी को ज्यादा दिन चलने नहीं देगा. आप देखेंगे, जल्द ही हुड्डा और शैलजा एक ही मंच नजर आएंगे. या एक ही गाड़ी में जिसको राहुल गांधी चला रहे होंगे."

हालांकि, शैलजा की नाराज़गी से हुड्डा खेमा चिंतित नज़र नहीं आता. हुड्डा खेमे से जुड़े सूत्र कहते हैं कि शैलजा की नाराज़ी से चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ने वाला. उनका मानना है कि शैलजा का उतना जनाधार नहीं है कि वोट कट जाएं. हालांकि वोट कटने की बात पर धर्मेंद्र कंवारी कहते हैं,

"हुड्डा और शैलजा के टसल में दलितों का वोट अगर कटता भी है तो वो बीजेपी के पास ना जाकर दूसरे दलों में जा सकता है. मायावती और चंद्रशेखर की पार्टियां मैदान में हैं ही. मगर उससे भी बीजेपी को ही फायदा होगा. क्योंकि वोट तो कांग्रेस का कटेगा."

हालांकि इस पर वरिष्ठ पत्रकार रविंद्र सिंह श्योराण बेहद रोचक तर्क देते हैं. वो कहते हैं,

“हुड्डा और शैलजा की लड़ाई कोई आज की नहीं है. सालों से ये टसल चल रहा है. और ये सब कांग्रेस आलाकमान की निगहबानी में हो रहा है. क्योंकि अंत में इसका फायदा कांग्रेस को ही मिलता है. शैलजा के पीछे दलित वोट तभी मजबूती से खड़ा होगा जब वो हुड्डा से अलग नज़र आएंगी. अगर वो हुड्डा के साथ खड़ी दिखीं तो दलित यही समझेगा कि नेता तो हुड्डा ही हैं. इसलिए कांग्रेस को फायदा इनकी लड़ाई में ही है.”

यानी मौजूदा स्थिति में कांग्रेस उतने नुकसान में नज़र नहीं आ रही, जितना बीजेपी भुनाना चाह रही है. पर यही तो सियासत है. कहते हैं राजनीति में एक हफ्ता भी लंबा समय होता है. हरियाणा में 5 अक्टूबर को मतदान होने हैं.

वीडियो: हरियाणा चुनाव के लिए बीजेपी ने बड़े-बड़े वादों के साथ जारी किया संकल्प पत्र