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कहानी उस दिल्ली की जहां शीला दीक्षित से पहले भी कांग्रेस की सरकार थी

Delhi के विधानसभा चुनावों का इतिहास. पहले मुख्यमंत्री Chaudhary Brahm Prakash से लेकर दिल्ली के उन "मौन" 37 सालों की कहानी. जब दिल्ली से उसकी विधानसभा छीन ली गई.

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दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बनें, चौधरी ब्रह्म प्रकाश.

आतिशी इस समय दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं. लेकिन 21 सितंबर, 2024 को CM पद की शपथ लेते ही उन्होंने कहा था कि उनका लक्ष्य है, अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) को फिर से मुख्यमंत्री बनाना. और ये लक्ष्य सिर्फ आतिशी (Atishi) का ही नहीं है, बल्कि केजरीवाल का भी है. केजरीवाल उस दिल्ली के CM फिर से बनना चाहते हैं, जहां पर उनकी पार्टी लगातार तीन बार से सत्ता पर काबिज है. पार्टी ने हर बार उनके नेतृत्व में सत्ता हासिल की, लेकिन शराब घोटाले में गिरफ्तारी के बाद उन्होंने खुद को उस कुर्सी से अलग कर लिया जिस पर BJP और Congress की नजर दशकों से है. अगले कुछ महीनों में फिर से चुनाव होने हैं (Delhi Assembly Election 2025).

केजरीवाल अक्सर ही दिल्ली के पास जरूरी शक्तियां नहीं होने की शिकायत करते रहते हैं, लेकिन सच ये भी है कि उनको राजनीतिक शक्ति या हैसियत से ही दिल्ली हासिल हुई है. इसलिए दिल्ली उनके लिए साख की लड़ाई है. आज जिस दिल्ली की सत्ता पर केजरीवाल का बोलबाला है, कभी यहां शीला दीक्षित (Sheila Dikshit) का मजबूत ‘किला’ हुआ करता था. 

अब थोड़े फ्लैशबैक में जाते हैं. साल 1998 का आखिरी महीना. दिल्ली में सत्ता परिवर्तन हुआ. शीला दीक्षित मुखिया बनीं. और लगातार 15 साल तक बनी रहीं. ये एक लंबा कार्यकाल था. लेकिन इन्हीं सालों में उनके सत्ता से बाहर जाने के रास्ते तैयार हो रहे थे. और ये रास्ता तैयार किया एक संगठन ने, 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन'. बात 2011 की है. देश में लोकपाल के गठन को लेकर आंदोलन शुरू हुआ. और ये आंदोलन धीरे-धीरे देशभर में भ्रष्टाचार विरोधी माहौल बनाने में कामयाब हो गया. इस आंदोलन का चेहरा थे अन्ना हजारे और उनके डिप्टी अरविंद केजरीवाल.  

लेकिन ये आंदोलन सिर्फ भ्रष्टाचार के विरोध तक सीमित नहीं रहा. इसने दो साल के भीतर राजनीतिक चोंगा पहन लिया. और यहीं जन्म होता है आम आदमी पार्टी (AAP) का. इन बदलावों के बाद अन्ना कहीं खो गए. अब हर जगह केजरीवाल ही केजरीवाल नजर आने लगे. कुछ ऐसा ही चुनावी नतीजों में भी दिखा. 2013 में ही जन्मी पार्टी ने चुनावी सियासत के सभी अंकगणित को धत्ता बताते हुए सत्ता पाने का नया फॉर्मूला डिकोड कर दिया. 

भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे कम ही मौके देखे गए हैं जब बिना किसी स्पष्ट विचारधारा के किसी दल को सफलता मिली हो. केजरीवाल ने अपवाद पेश किया. चुनाव जीता. जिस कांग्रेस के विराध में चुनाव लड़े, उसी के समर्थन से सरकार बना ली. पहली सरकार नहीं चल पाई. फिर उठे. फिर सरकार बनाई. केजरीवाल खुद मुख्यमंत्री बने. एक वो समय था और एक ये समय है. अरविंद केजरीवाल की पार्टी की सरकार अब भी है, पर केजरीवाल मुख्यमंत्री नहीं हैं. खुद को ईमानदारी का पर्याय बताने वाले केजरीवाल पर भ्रष्टाचार के छींटे हैं.

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि उन्होंने दिल्ली की राजनीति के इतिहास में ‘The Kejriwal Era’ नाम का एक नया अध्याय जोड़ा. लेकिन इस इतिहास की शुरुआत यहां से नहीं होती. आइए शुरू से शुरू करते हैं.

Delhi में गुमनाम मुख्यमंत्रियों का समय

आगे बढ़ने से पहले दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री का नाम पूछता हूं. बहुत अधिक संभावना है कि आपके दिमाग में मदन लाल खुराना का नाम आए. लेकिन उनसे पहले भी दिल्ली ने दो मुख्यमंत्री देखे. इनके नाम हैं- चौधरी ब्रह्म प्रकाश और गुरुमुख प्रकाश सिंह.

आजादी के पहले दिल्ली, 'भारत सरकार अधिनियम 1858' के तहत पंजाब प्रांत का ही हिस्सा हुआ करती थी. साल 1911 में ‘ब्रिटिश भारत’ की राजधानी कलकत्ता (कोलकाता) से बदलकर दिल्ली कर दी गई. इस तरह दिल्ली, पंजाब से अलग हुआ और इसे चीफ कमिश्नर के अधिकार के अंदर लाया गया.

Delhi Assembly Building
दिल्ली विधानसभा भवन. (तस्वीर: Wikimedia Commons)

इसके बाद साल 1912 में दिल्ली के नियंत्रण के लिए पहला स्पष्ट कानून आया. इसे ‘दिल्ली कानून अधिनियम 1912’ कहा गया. 'भारत सरकार अधिनियम 1919' और 'भारत सरकार अधिनियम 1935' के दौरान दिल्ली को केंद्र-प्रशासित क्षेत्र ही रखा गया. देश को आजादी मिली. इसके बाद साल 1950 में देश में संविधान लागू हुआ. ‘दिल्ली कानून अधिनियम 1950’ को लागू किया गया. और इस तरह चीफ कमिश्नर के अंदर आने वाले सभी प्रदेशों को ‘पार्ट सी स्टेट’ बनाया गया. इसके अलावा देश के बाकी राज्यों को पार्ट ए, पार्ट बी और पार्ट डी की कैटेगरी में बांटा गया.

‘पार्ट सी स्टेट’ का मतलब था कि दिल्ली एक ऐसा राज्य बना जिस पर डायरेक्ट केंद्र सरकार रूल करती थी. इसके लिए चीफ कमिश्नर सरकार के प्रतिनिधि होते थे.

इसके एक साल बाद 'गवर्मेंट ऑफ पार्ट सी स्टेट एक्ट 1951' लागू किया गया. इसके तहत प्रदेश की विधानसभा को सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस, संविधान, नगर निगमों और स्थानीय अधिकारियों की शक्तियों, दिल्ली में स्थित भूमि और भवनों को छोड़कर बाकी सभी मामलों पर कानून बनाने का अधिकार दिया गया. इसके बाद दिल्ली में चुनावी राजनीति की शुरुआत हुई.

Delhi Assembly Election 1952: चुनावी राजनीति की शुरुआत

साल 1952 में दिल्ली विधानसभा बनी. इसके बाद दिल्ली में पहला चुनाव हुआ. रमा पटनायक और एसएल कौशिक अपनी किताब ‘मॉर्डन गवर्मेंट एंड पॉलिटिकल सिस्टम’ में इस बारे में लिखते हैं,

“1952 में दिल्ली विधानसभा वाला पार्ट सी स्टेट बना. 48 सीटों के साथ दिल्ली की पहली विधानसभा का गठन हुआ. 48 में से 6 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित थीं. कांग्रेस को कुल मतदान का 52.1 प्रतिशत वोट मिला और चौधरी ब्रह्म प्रकाश दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बने. पहली विधानसभा 17 मार्च 1952 को अस्तित्व में आई.”

48 सीटों का हिसाब-किताब कुछ इस तरह था कि 6 विधानसभा क्षेत्रों से दो-दो विधायक चुने गए. और बाकी के 36 क्षेत्रों से एक-एक विधायक चुने गए. 39 सीटों पर जीत के साथ कांग्रेस को बहुमत मिला. भारतीय जनसंघ को 5, सोशलिस्ट पार्टी को 2, अखिल भारतीय हिंदू महासभा को 1 और निर्दलीय उम्मीदवार को 1 सीट पर जीत मिली. कुल 5,21,766 लोगों ने वोट दिए थे.

Chaudhary Brahm Prakash- दिल्ली के सबसे युवा CM

साल 2024 के सितंबर महीने में जब आतिशी दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं तो चौधरी ब्रह्म प्रकाश (यादव) की चर्चा हुई. चर्चा इस बात की थी कि दिल्ली के अब तक के सबसे युवा मुख्यमंत्री कौन हुए? इस मामले में कांग्रेस के तब के कद्दावर नेता माने जाने वाले ब्रह्म प्रकाश का रिकॉर्ड अब तक नहीं टूट पाया है. मात्र 34 साल की उम्र में वो दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बन गए थे.

Delhi CM List
अरविंद केजरीवाल के बाद आतिशी मार्लेना दिल्ली की CM बनीं.

दिल्ली के इतिहास में ब्रह्म प्रकाश इतने महत्वपूर्ण इसलिए भी हैं कि उनके कार्यकाल से जुड़े कुछ मामले अब तक चले आ रहे हैं. मसलन कि उनको जो सरकारी घर आवंटित हुआ था, बाद में उसे ‘अशुभ’ माना गया. और अब तक उस घर से अधिकतर नेताओं ने दूरी बनाए रखी है.

LG और CM के झगड़े की नींव

अरविंद केजरीवाल, अपने अब तक के कार्यकाल में अक्सर LG से टकराव की बात करते रहे हैं. LG केंद्र सरकार के प्रतिनिधि होते हैं. केंद्र सरकार के प्रतिनिधि और दिल्ली के CM के बीच के टकराव की नींव, इस प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री के समय ही पड़ गई थी. पहला टकराव तो ऐसा था कि चौधरी ब्रह्म प्रकाश को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी. और कुछ समय बाद दिल्ली विधानसभा को ही भंग कर दिया गया.

Jawaharlal Nehru और ब्रह्म प्रकाश

दरअसल, हुआ यूं कि ब्रह्म प्रकाश का तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से अच्छा तालमेल नहीं था. जबकि दिल्ली में उनकी अच्छी पकड़ थी. दोनों के रिश्ते शुरू से खराब नहीं थे. ब्रह्म प्रकाश, जवाहर लाल नेहरू से प्रेरित थे. लेकिन उन दोनों के बिगड़े रिश्तों में आनंद पंडित और गोविंद बल्लभ पंत की अहम भूमिका थी. ‘प्रकाश के दत्ता’ इंडिया टुडे में लिखते हैं कि ब्रह्म प्रकाश को तब के केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद बल्लभ पंत पसंद नहीं करते थे. तब दिल्ली में केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर आनंद पंडित को चीफ कमिश्नर बनाया गया था. आनंद पंडित, जवाहर लाल नेहरू के करीबी थे. CM ब्रह्म प्रकाश और चीफ कमिश्नर आनंद पंडित के बीच अनबन रहती थी. 

दोनों के बीच की इस अनबन को ‘शख्सियत की लड़ाई’ कहा गया. इसके कारण रोज-रोज के सरकारी कामों में अड़चनें आने लगीं. किसी तरह फरवरी 1955 तक चौधरी ब्रह्म प्रकाश दिल्ली के CM बने रहे. लेकिन इसी समय दिल्ली में गुड़ घोटाले को लेकर चर्चा शुरू हो गई. पब्लिक डोमेन में इसकी ज्यादा जानकारी नहीं है. लेकिन जानकार बताते हैं कि इसी गुड़ घोटाले के कारण ब्रह्म प्रकाश से इस्तीफा ले लिया गया. लेकिन कारण इतना भर नहीं था.

Chaudhary Braham Prakash की शख्सियत

संडे गार्जियन में वरिष्ठ पत्रकार पंकज वोहरा लिखते हैं,

“ब्रह्म प्रकाश को उन नेताओं में गिना जाता है, जिनका अपने दौर की राजनीति पर हर मायने में दबदबा था. उन्होंने कांग्रेस आलाकमान से भिड़ने में संकोच नहीं किया. उन्होंने अपने समय के कई उभरते कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाया. 4 बार लोकसभा के लिए चुने गए और चरण सिंह सरकार में केंद्रीय मंत्री के रूप में भी काम किया.”

Chaudhary Brahm Prakash
चौधरी ब्रह्म प्रकाश के नाम पर स्टैंप जारी करते पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान. (फाइल फोटो: PTI, 2001)
"दिल्ली की राजनीति पर अमिट छाप"

पंकज वोहरा साल 2017 में लिखते हैं,

“ब्रह्म प्रकाश के अलावा, केवल दो ही नेता हुए जिन्होंने दिल्ली की राजनीति में अमिट छाप छोड़ी है. एक एचकेएल भगत जिन्हें कई लोग दिल्ली का बेताज बादशाह कहते हैं. दूसरे मदन लाल खुराना जिन्हें भाजपा के मेहनती और तेज-तर्रार नेताओं में गिना जाता है. शीला दीक्षित का कार्यकाल लंबा जरूर रहा, लेकिन वो कभी भी सही मायने में लोगों की नेता नहीं रहीं. उन्होंने अपने बेटे संदीप दीक्षित के अलावा किसी दूसरे युवा उम्मीदवार को आगे बढ़ाने के लिए कोई विरासत नहीं छोड़ी ताकि भविष्य में पार्टी को दिशा मिल सके.”

वोहरा, दिल्ली की राजनीति में केजरीवाल के पहले हुए नेताओं में ब्रह्म प्रकाश को काफी अहमियत देते हैं. 

सीके नायर की वजह से बने CM

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से पब्लिक डोमेन में आने वाले ब्रह्म प्रकाश, नेहरू से तो प्रभावित थे, लेकिन वे सीके नायर को अपना ‘राजनीतिक गुरु’ मानते थे. गांधीवादी विचारधारा के नायर 1930 के नमक मार्च में सक्रिय रहे. उन्हें 'दिल्ली का गांधी' भी कहा गया. जब पहली बार दिल्ली के CM पद के लिए नेताओं को चुना जाना था तब नेहरू की पहली पसंद नायर ही थे. नेहरू ने ऑफर भी दिया. लेकिन उन्होंने अपनी जगह अपने अनुयायी ब्रह्म प्रकाश का नाम सुझाया.

उस समय दिल्ली की राजनीतिक स्थिति जटिल थी. ब्रह्म प्रकाश ने सावधानी से इसे संभाला. उन्होंने अपनी टीम में शिव चरण गुप्ता, बृज मोहन, एचकेएल भगत, सिकंदर बख्त, सुभद्रा जोशी और किशोर लाल जैसे कुछ नेताओं को शामिल किया. लेकिन साल 1955 में गोविंद बल्लभ पंत के केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होते ही बात बिगड़ने लगी. ब्रह्म प्रकाश ग्रेटर दिल्ली क्षेत्र बनाने की मांग कर रहे थे. पंत इस बात से आहत थे कि एक युवा CM ने ऐसी मांग करने की हिम्मत दिखाई. 

इंडिया टुडे मैगजीन में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार,

"साल 1955 में अंदरूनी कलह के कारण यादव नेता ब्रह्म प्रकाश, कांग्रेस के लिए बोझ बन गए थे. 

पंत ने ब्रह्म प्रकाश से CM पद से हटाने की मांग की. नेहरू ने शुरू में उनका बचाव किया लेकिन बाद में वो भी नाराज हो गए. कारण कि ब्रह्म प्रकाश ने मास्टर तारा सिंह की एक मांग का समर्थन किया था. आजादी के बाद से ही पंजाब के भीतर एक अलग ‘पंजाबी सूबा’ बनाने की मांग उठी थी. अकाली नेता मास्टर तारा सिंह ने इसका नेतृत्व किया. इस भावना को ब्रह्म प्रकाश का समर्थन मिला. नतीजा ये निकला कि नेहरू उनसे नाराज हो गए और उनकी CM पद की कुर्सी चली गई. करीब एक साल के लिए उनकी जगह गुरमुख निहाल सिंह को CM बनाया गया. और बाद में दिल्ली विधानसभा ही भंग कर दी गई. इससे साल 1958 में दिल्ली नगर निगम के बनने का रास्ता साफ हो गया.

ब्रह्म प्रकाश ने थप्पड़ मार दिया

हालांकि, इसके बाद भी दिल्ली की राजनीति पर ब्रह्म प्रकाश की पकड़ मजबूत होती गई. बाद के सालों में जब दिल्ली में कांग्रेस नगर निगम सत्ता में आई, तो उनके ‘शिष्यों’ ने अपना दबदबा कायम किया. उनके अनुयायी बृज मोहन को इंडियन यूथ कांग्रेस और दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमिटी (DPCC) का प्रेसीडेंट बनाया गया. उन्हें कांग्रेस ‘स्टैंडिंग कमेटी ऑफ द कॉर्पोरेशन’ का चेयरमैन भी बनाया गया.

कहते हैं एक बार किसी बात से नाराज होकर ब्रह्म प्रकाश ने बृज मोहन को थप्पड़ मार दिया था. बृज ने इस बात को दबाने की पूरी कोशिश की थी. लेकिन जब मीडिया ने उन पर दबाव डाला तो उन्होंने कहा कि ब्रह्म प्रकाश उनके पिता जैसे हैं. बाद में एचकेएल भगत जैसे उनके अनुयायी ने ही उनका साथ छोड़ दिया. साथ ही नहीं छोड़ा बल्कि इस बात को सुनिश्चित किया कि कांग्रेस में ब्रह्म प्रकाश की पकड़ कमजोर हो. दो बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले ब्रह्म प्रकाश को 1984 के अपने आखिरी चुनाव में एचकेएल भगत के हाथों ही हार मिली.

एक बात तो स्पष्ट है कि ब्रह्म प्रकाश में ‘बगावती सुर’ मौजूद थे. लेकिन कई रिपोर्ट्स इस बात की ओर इशारा करती हैं कि उनकी सरकार और केंद्र सरकार के बीच के ‘खराब’ रिश्तों के कारण वहां की विधानसभा भंग हुई. और इसके बाद जो कई बदलाव हुए, उसमें उनके कार्यकाल की घटनाओं का योगदान रहा.

Gurmukh Nihal Singh

1955 में कांग्रेस की जिन आंतरिक कलहों से ब्रह्म प्रकाश का संबंध था, गुरुमुख निहाल सिंह ने उन विवादों से खुद को दूर रखा. नतीजा ये निकला कि नेहरू सरकार ने उनको दिल्ली का दूसरा मुख्यमंत्री बनाया. फिर आया साल 1956. 

Gurmukh Nihal Singh
गुरुमुख निहाल सिंह के राज्यपाल के कार्यकाल के दौरान की तस्वीरें. (फोटो क्रेडिट: Flicker)
छीन लिया गया दिल्ली का विधानसभा

राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 पारित हुआ. दिल्ली से सिर्फ विधानसभा ही नहीं छीनी गई बल्कि सत्ता में सीधे तौर पर आम आदमी की भागिदारी खत्म कर दी गई. देश से पार्ट ए, बी, सी और डी स्टेट वाली व्यवस्था समाप्त हो गई. तय हुआ कि देश में अब दो ही तरह की व्यवस्था होगी- राज्य और केंद्र शासित प्रदेश. दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश बना. जाहिर है मुख्यमंत्री के पद का अस्तित्व नहीं रहा. इसलिए 1 नवंबर, 1956 को गुरुमुख निहाल सिंह को राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया.

जब दिल्ली को एक कवि ने ‘संभाला’

अब दिल्ली का प्रशासन, पत्रकार और उर्दू कवि गोपीनाथ अमन को सौंपा गया. इसके लिए एक जनसंपर्क समिति बनाई गई थी. अगले दशक तक इसी समिति ने दिल्ली के प्रशासनिक कामों को संभाला. गोपीनाथ इसके अध्यक्ष थे. उन्होंने बड़े आदमियों के तन्ज़ ओ मिज़ाह, कौरंग और अकीदत के फूल जैसी कई रचनाएं लिखीं. 

क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के दबाव के बाद, केंद्र सरकार ने जून 1966 में दिल्ली महानगर परिषद बनाई. इस दौरान एक और बड़ा बदलाव हुआ. दिल्ली के चीफ कमिश्नर के पद को लेफ्टिनेंट जनरल के पद में बदल दिया गया. सितंबर 1966 से फरवरी 1967 तक जग प्रवेश चंद्र की अध्यक्षता में एक अंतरिम महानगर परिषद बनाई गई. फिर आया साल 1967.

Delhi Metropolitan Council के चुनाव

1967 देश के लिए चुनावों का समय रहा. जनरल इलेक्शन के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र समेत करीब 19 राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए. फरवरी महीने में दिल्ली महानगर परिषद का पहला इलेक्शन हुआ. 56 सदस्य वोट से चुने गए और 5 सदस्य नॉमिनेट किए गए. इस तरह कुल 61 सदस्य हुए. 

इस साल हुए चुनावों में अधिकतर राज्यों में कांग्रेस की जीत हुई या बढ़त मिली. लेकिन दिल्ली में मामला गड़बड़ा गया. दिल्ली में तब 7 लोकसभा सीटें थीं. कांग्रेस को सिर्फ 1 पर जीत मिली और भारतीय जन संघ को 6 सीटों पर.

दिल्ली महानगर परिषद चुनाव में भारतीय जन संघ को सबसे अधिक 33 सीटों पर जीत मिली. कांग्रेस को 19 और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (RPI) को 2 सीटों पर जीत मिली. RPI की जड़ें डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के नेतृत्व वाले अनुसूचित जाति महासंघ से जुड़ी थीं. 2 सीटों पर निर्दलीय उम्मदवारों ने जीत हासिल की. इस तरह दिल्ली की महानगर परिषद पर भारतीय जन संघ का कब्जा हो गया. भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी इसके अध्यक्ष बने.

‘पावरलेस परिषद'

परिषद बन तो गई लेकिन हाउस में बहस करने के अलावा उनको कोई खास शक्ति नहीं दी गई. केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर लेफ्टिनेंट गवर्नर हुआ करते थे. हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, साउथ दिल्ली के पूर्व मेयर और 7 साल तक दिल्ली महानगर परिषद में काम करने वाले सुभाष आर्य बताते हैं,

“परिषद मुख्य रूप से एक डिबेट (बहस) क्लब जैसा था. उसके पास किसी भी तरह की कोई वास्तविक शक्ति नहीं थी. बिजली, सीवर और पानी सहित लोगों से जुड़े मामलों को सुलझाने का अधिकार हमेशा से निर्वाचित सदस्यों के पास होना चाहिए था. परिषद का नेतृत्व (अध्यक्ष के अलावा) एक ‘मुख्य कार्यकारी पार्षद’ (CEC) करता था, जो वर्तमान के CM जैसा व्यक्ति होता था.”

कांग्रेस के दो फाड़

हाउस के भीतर अध्यक्ष और CEC सर्वेसर्वा होते थे. एक तो हाउस के पास सिफारिश करने के अलावा कोई शक्ति नहीं थी, दूसरी बात ये कि हाउस के बाहर सारी शक्तियां उपराज्यपाल के पास थीं. परिषद से मिली सिफारिशों को उपराज्यपाल केंद्र सरकार तक पहुंचाते थे. इस पूरी व्यवस्था में आम आदमी की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं थी. तभी से दिल्ली में विधानसभा की मांग उठने लगी.

इसके बाद परिषद के 3 और चुनाव हुए. लेकिन इस बीच कांग्रेस ने अपनी ‘दुर्गति’ का एक दौर देखा. कांग्रेस के पुराने नेताओं का एक समूह बन गया था. इसे सिंडिकेट कहते थे. इंदिरा गांधी और इस सिंडिकेट में तनाव चल रहे थे. इस संकट की जड़ में भारतीय राष्ट्रपति चुनाव था. पार्टी ने इसके लिए नीलम संजीव रेड्डी को अपना उम्मीदवार घोषित किया था. लेकिन इंदिरा ने वीवी गिरी को समर्थन दिया. इस ‘ओपेन वॉर’ में 12 नवंबर 1969 को पार्टी अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा ने इंदिरा गांधी को कांग्रेस से निकाल दिया. पार्टी टूट गई. सिंडिकेट ग्रुप Congress (O) बन गया. इंदिरा गांधी के गुट को Congress (R) कहा गया. कांग्रेस (O) ने बाद में  बिहार में भोला पासवान शास्त्री, कर्नाटक में वीरेंद्र पाटिल और गुजरात में हितेंद्र के देसाई के नेतृत्व में सरकार बनाई.

दिल्ली महानगर परिषद का दूसरा चुनाव

1972 में जब महानगर परिषद का दूसरा चुनाव हुआ तो कांग्रेस (O) और कांग्रेस (R) दोनों चुनावी मैदान में थे. 56 में से 44 पर कांग्रेस (R), 5 पर भारतीय जन संघ, 3 पर CPI, 2 पर कांग्रेस (O) और 2 पर निर्दलीय उम्मीदवारों को जीत मिली. अंतरिम महानगर परिषद के समय CEC रहे मीर मुश्ताक अहमद, इस बार महानगर परिषद के अध्यक्ष बने.

इसके बाद 1977 में चुनाव हुआ. जनता पार्टी अस्तित्व में आ गई थी और राजनीति में सक्रिय भी थी. इस चुनाव में जनता पार्टी के 46 और कांग्रेस के 10 सदस्य परिषद में पहुंचे. काल्का दास अध्यक्ष बने. इसके बाद 1983 के चुनाव में कांग्रेस को 34, भारतीय जनता पार्टी (BJP) को 19, लोकदल को 2 और जनता पार्टी को 1 सीट पर जीत मिली. पुरुषोत्तम गोयल को अध्यक्ष बनाया गया.

सालजीत
1967भारतीय जन संघ
1972कांग्रेस (R)
1977जनता पार्टी
1983कांग्रेस
दिल्ली महानगर परिषद के चुनाव

1980 में महानगर परिषद को हटा दिया गया था. लेकिन तीन साल बाद 1983 में फिर से चुनाव हुए. ये साल कांग्रेस के लिए बुरा था. पार्टी की आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में बुरी हार हुई थी. दिल्ली के चुनाव में नई नवेली भाजपा ने नारा दिया, 'कांग्रेस दक्षिण हारी है, अब दिल्ली की बारी है'

हालांकि BJP को जीत नहीं मिली. इंदिरा सरकार ने राजधानी में पूरा जोर लगाया और जीत हासिल की. BJP मुख्य विपक्षी पार्टी बनी और मदन लाल सदन में नेता प्रतिपक्ष. अगले बरस 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हो गई. इसके बाद राजधानी में बड़े पैमाने पर सिख विरोधी दंगे शुरू हो गए. उन दिनों देश के राष्ट्रपति थे ज्ञानी जैल सिंह.

हालांकि, महानगर परिषद का कार्यकाल 1988 में समाप्त हो गया था. लेकिन केंद्र सरकार को दिल्ली के लिए एक नए प्रशासनिक ढांचे पर निर्णय लेना था. इसलिए इसे दो साल के लिए बढ़ा दिया गया. केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी.

History of Delhi
1980 में दिल्ली महानगर परिषद को खत्म कर दिया गया था.

1989 में भी महानगर परिषद भंग रही. चुनाव टाले जा रहे थे. लेकिन भाजपा ने अब तक दिल्ली को राज्य बनाने का आंदोलन तेज कर दिया था. इन मांगों के कारण केंद्र सरकार ने दिसंबर 1987 में सरकारिया समिति बनाई. इसे बाद में बालकृष्णन समिति कहा गया. दो साल बाद, समिति ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की, 

“दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश बने रहना चाहिए, लेकिन आम आदमी से जुड़े मामलों से निपटने के लिए उसे एक विधानसभा प्रदान की जानी चाहिए. सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि से संबंधित मामलों को विधानसभा की शक्तियों से दूर रखा जाना चाहिए.”

इसके बाद भी कई सालों तक ये लड़ाई चलती रही. अंत में 1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने संविधान में एक संशोधन पारित किया. इसके तहत दिल्ली को एक विधानसभा दी गई, जैसा कि सरकारिया-बालकृष्णन समिति ने सिफारिश की थी. केंद्र ने 1992 में एक परिसीमन समिति गठित की जिसने दिल्ली में 70 विधानसभा सीटें निर्धारित कीं. इससे विधानसभा चुनावों का रास्ता साफ हो गया. आखिरकार, नवंबर 1993 में विधानसभा चुनाव के साथ दिल्ली में ‘लोकतांत्रिक माहौल’ फिर से बहाल हुआ.

सालघटनाक्रम
17 मार्च 1952'पार्ट-सी राज्य सरकार अधिनियम 1951' के तहत विधानसभा का गठन
01 नवंबर 1956दिल्ली का पार्ट सी का दर्जा खत्म
02 जून 1966दिल्ली महानगर परिषद अस्तित्व में आई
03 अक्टूबर 1966 दिल्ली महानगर की अंतरिम परिषद बनाई गई
1967-1972पहली महानगर परिषद
1972-1977दूसरी महानगर परिषद
1977-1980तीसरी महानगर परिषद
1983-1990चौथी महानगर परिषद
1993-1998विधानसभा चुनाव
दिल्ली में हुई प्रमुख घटनाएं. (सोर्स- दिल्ली विधानसभा की वेबसाइट)
37 साल बाद दिल्ली में हुआ विधानसभा चुनाव

1989 में भाजपा जब दिल्ली को राज्य बनाने की मांग कर रही थी तब खुराना कभी डीटीसी किराये में वृद्धि तो कभी दूध के महंगे होने पर आंदोलन कर रहे थे. BJP ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष भी बना दिया. 1967 से लेकर 1983 तक दिल्ली महानगर परिषद के चारों चुनावों में मदन लाल खुराना को जीत मिली थी. 1993 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले खुराना सांसद हो गए थे. लोकसभा चुनाव 1991 में उनको साउथ दिल्ली सीट से 50 हजार से अधिक वोटों से जीत मिली थी.

1993 का चुनाव भाजपा ने खुराना के नेतृत्व में लड़ा. और खुराना ने कमाल कर दिया. चुनाव में कांग्रेस की धज्जियां उड़ गईं. एक बार रिजल्ट पर गौर फरमाइए.

पार्टीसीटवोट शेयर
BJP4947.82
Congress1434.48
जनता दल412.65
निर्दलीय35.92
दिल्ली विधानसभा चुनाव 1993 के परिणाम

कुल 70 सीटों में से 49 सीटों पर भाजपा को जीत मिली. इस जीत के बाद दिल्ली में क्या कुछ हुआ? आगे की कहानी में दिल्ली में मोहन लाल खुराना की सरकार बनेगी. और उनका अपने ही दल के नेता साहिब सिंह वर्मा से टकराव होगा. टकराव ऐसा कि खुराना की कुर्सी चली जाएगी लेकिन वर्मा भी टिक नहीं पाएंगे. खुराना और वर्मा की आपसी लड़ाई में सुषमा स्वराज सत्ता पा जाएंगी. और फिर शीला दीक्षित का ‘किला’ तैयार होगा, मजबूती बढ़ेगी और और किले को ढहना भी होगा. फिर केजरीवाल का कमाल का उदय होगा. उनपर भ्रष्टाचार की छींटे पड़ेंगी. और फिर वो तिहाड़ जेल पहुंचेंगे. खुराना की ही तरह वो भी बेदाग साबित होने तक के लिए CM पद से दूरी बनाएंगे. और आतिशी, केजरीवाल को फिर से दिल्ली का CM बनाने के उद्देश्य से दिल्ली की ‘गद्दी’ पर बैठेंगी. इन सबके बारे में विस्तार से अगले अंक में बात करेंगे. तब तक के लिए लल्लनटॉप पर बने रहिए.

वीडियो: दिल्ली विधानसभा चुनाव में AAP की अंतिम सूची में कितने विधायकों के टिकट काटे गए? अरविंद केजरीवाल किस सीट से चुनाव लड़ेंगे?