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शेयर मार्केट सुना था, ये ग्रे मार्केट क्या बला है? ना किसी का कंट्रोल, ना नियम-कानून, काम कैसे होता है?

जो लोग IPO एप्लिकेशन के लिए समय बीतने के बाद किसी कंपनी के IPO शेयर खरीदना चाहते हैं वो लोग ग्रे मार्केट में जा सकते हैं.

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ग्रे मार्केट में शेयर का दाम भी डिमांड और सप्लाई के हिसाब से तय होता है. (Image credit- Freepik)

अगर आपको लगता है कि IPO के लिए सिर्फ स्टॉक एक्सचेंज से आवेदन किया जा सकता है तो ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है. दरअसल IPO वाले शेयरों को खरीदने का दो तरीका होता है. पहला है स्टॉक एक्सचेंज के जरिए. दूसरा है- ग्रे मार्केट के जरिए. स्टॉक एक्सचेंज यानी नैशनल स्टॉक एक्सचेंज और बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज. एक्सचेंज पर होने वाला कारोबार अधिकृत होता है. यानी यहां होने वाले लेनदेन का हिसाब किताब रखा जाता है. रुपये फंसने पर रिकवरी के लिए नियम कानून होते हैं. मगर ग्रे मार्केट इससे ठीक अलग होता है. ग्रे मार्केट को समझेंगे उससे पहले जरा IPO को समझ लेते हैं.

जब कोई कंपनी शेयरों के जरिए पैसे जुटाने के लिए पहली बार शेयर एक्सचेंज पर आने का फैसला करती है तो वह IPO लाती है. IPO यानी इनीशियल पब्लिक ऑफरिंग. कंपनी IPO के अनाउंसमेंट के साथ शेयरों का शुरुआती दाम बताती है, जिसे इशू प्राइस कहते हैं. कम से कम कितने शेयरों को खरीदना जरूरी होगा, उसकी संख्या ‘लॉट’ कहलाती है. शेयर जिस दाम पर एक्सचेंज पर रजिस्टर होते हैं, उसे लिस्टिंग प्राइस कहते हैं. लिस्टिंग प्राइस इशू प्राइस से कम हो तो निवेशकों को घाटा होता है और अधिक हो तो फायदा. 

ग्रे मार्केट के कामकाज को समझने के लिए IPO से जुड़ी ये जानकारी समझनी जरूरी थी, जिसे आपने ऊपर समझ लिया. अब हम आगे बढ़ते हैं ग्रे मार्केट की तरफ.

सेकेंड हैंड IPO के शेयरों को खरीदने का मौका

आसान शब्दों में कहें तो ग्रे मार्केट IPO शेयरों को खरीदने का सेकंड हैंड बाजार है. यानी डायरेक्ट शेयर एक्सचेंज से खरीदने की बजाय अपने जैसे ही किसी निवेशक से आईपीओ के शेयर खरीदना. ये बाजार अनाधिकृत और अनियंत्रित है. यानी यहां काम करने वाले ब्रोकर, ट्रेडर या सेलर कहीं रजिस्टर्ड नहीं होते हैं. इसका कोई नियम कानून नहीं है, यहां बस आपसी भरोसे के आधार पर काम होता है.

क्या मिलता है ग्रे मार्केट में?

कोई भी कंपनी पहली बार जब शेयर बाजार में रजिस्टर होती है तो IPO लाती है. उसे खरीदने के लिए सेबी रजिस्टर्ड ब्रोकरेज फर्म्स के पास एप्लिकेशन देनी होती है. मगर निवेशक चाहें तो इन शेयरों को ब्रोकरेज फर्म के अलावा किसी खरीदार से खरीद सकते हैं. आसान शब्दों में कहें तो IPO एप्लिकेशन या IPO में अलॉट हुए शेयरों की सेकेंड हैंड खरीदारी. किसी के IPO शेयर को ग्रे मार्केट में कितना भाव मिल रहा है, कितने खरीदार दिख रहे हैं, उसी के आधार पर कंपनियां अंदाजा लगाती हैं कि IPO की लिस्टिंग भी वैसे ही होगी.

शेयर बाजार में लिस्ट होने से पहले भी निवेशक किसी कंपनी का शेयर खरीदना चाहें तो उन्हें ग्रे मार्केट में जाना होगा. इसे ऐसे समझते हैं- मान लेते हैं एक कंपनी है A, वह दमदार कारोबार कर रही है. प्रॉफिट अच्छा है, रेवेन्यू अच्छा है. एक निवेशक की उस पर नजर पड़ी. बिजनेस देखकर उसे लगा कि इसके IPO शेयर खरीदना सही रहेगा. लेकिन उसे मालूम पड़ता है कि IPO के लिए आवेदन करने का टाइम निकल गया है. अब क्या होगा? इसी समस्या का समाधान है ग्रे मार्केट. 

ये निवेशक ग्रे मार्केट डीलर के पास जाकर पता करता है कि कोई ऐसा सेलर है क्या जिसने फलां IPO के लिए बोली लगाई है और अब वो एप्लिकेशन बेचकर निकलना चाहता है. डीलर की नजर में अगर कोई ऐसा सेलर होता है तो वह उसे खरीदार से मिलवा देता है. निवेशक यानी खरीदार सेलर से चाहे तो IPO के शेयर या पूरा एप्लिकेशन ही खरीद सकता है.

कैसे लगती है बोली?

ग्रे मार्केट में IPO के शेयर खरीदते समय खरीदार को IPO के लिए तय दाम के मुकाबले ज्यादा की बोली लगानी होती है. डीलर शेयर बेचने वाले से बात करके बताता है कि फलां इंसान IPO के शेयर इतने रुपये देने को राजी है. अगर बेचने वाले को लगता है कि शेयर बाजार में शेयरों की कमजोर लिस्टिंग हो सकती है और उसे घाटा हो सकता है तो वह ग्रे मार्केट में खरीदार को अपने हिस्से के IPO शेयर बेचकर पहले ही निकल जाता है. इस तरह वह घाटा झेलने की बजाय थोड़ा बहुत ही सही मगर मुनाफे में निकल जाता है.

दो तरह से होती है ट्रेडिंग

खरीदार ग्रे मार्केट में दो काम कर सकते हैं. या तो IPO के शेयर खरीद सकता है या फिर IPO का पूरा एप्लिकेशन ही खरीद लेता है. दोनों ही सूरतों में उसे सेलर को ओरिजनल प्राइस के मुकाबले कुछ ज्यादा रकम ऑफर करनी होती है.  

1. अगर IPO के शेयर खरीदना चाहते हैं तो उसका तरीका ये हैः

पहला खरीदार यानी IPO का ओरिजनल खरीदार डीमैट खाते के जरिए अप्लाई करता है. यहां दो स्थिति बनती हैं- या तो उसे शेयर अलॉट नहीं होंगे. अगर हो गए तो हों तो भी दो स्थिति बनती हैं. शेयर का लिस्टिंग प्राइस या तो इशू प्राइस से अधिक होगा या फिर कम. दूसरी तरफ कुछ दूसरे लोग हैं जिन्हें लगता है कि फलां कंपनी ने IPO में शेयर का दाम उसकी असल कीमत से काफी नीचे तय किया है और लिस्टिंग के बाद इसके दाम बड़ी तेजी से बढ़ेंगे. ऐसे में लोग कोशिश करते हैं उन्हें किसी तरह भी लिस्टिंग से पहले शेयर मिल जाएं, ताकि शेयर जब अधिकारिक तौर पर बाजार में लिस्ट हों तो उन्हें बढ़िया फायदा मिल सके.

चूंकि, IPO के लिए अप्लाई का समय निकल चुका है. इसलिए लिस्टिंग से पहले IPO के शेयर खरीदने के लिए उन्हें ग्रे मार्केट डीलर के पास जाना होगा. वहां उसे बताना होगा कि मैं फलां शेयर के लिए इतने रुपये अधिक देना चाहता हूं. ग्रे मार्केट डीलर उन लोगों से कॉन्टैक्ट करेगा जिन्होंने आधिकारिक तौर पर IPO के शेयरों के लिए आवेदन किया है और वो शेयर बेचना चाहते हैं. डीलर बेचने वाले को खरीदने वाले का प्रस्ताव देता है. दोनों में एक दाम पर सहमति बन जाती है.

अब इंतजार होता है शेयरों के अलॉटमेंट का. जब IPO शेयर बाजार में लिस्ट होता है तब या तो खरीदार को शेयर मिलते हैं या नहीं मिलते हैं. अगर बेचने वाले को IPO में शेयर मिल गए हैं तो उसे डीलर का फोन आता है. दोनों के बीच जिस दाम पर सहमति बनी होगी उस दाम पर शेयर दूसरे खरीदार को बेच दिए जाएंगे. अगर बेचने वाले को शेयर अलॉट ही नहीं हुए तो पूरी डील ही कैंसिल हो जाती है.

2. IPO के एप्लिकेशन की ट्रेडिंग

कई बार IPO के लिए बोली लगाने वाला शेयर के अलॉटमेंट तक का इंतजार ही नहीं करना चाहता. उसे लगता है कि उसके पैसे फंस गए. ऐसे में वो अपनी बोली (आवेदन) को ही किसी और को बेच देता है. जैसा कि ऊपर बताया गया है अप्लाई करने के बाद दो स्थिति बन सकती हैं. इनवेस्टर को या तो शेयर नहीं मिलेंगे. अगर शेयर अलॉट हो गए तो कम दाम पर लिस्टिंग हो जाए. इस बीच अगर इनवेस्टर को लगता है कि वो घाटा उठाने के लिए नहीं तैयार है तो वो चाहता है कि कोई उससे उसका आवेदन ही खरीद ले. 

इसके लिए वो ग्रे मार्केट डीलर से कॉन्टैक्ट करता है और कहता है कि अगर किसी को फलां कंपनी के IPO में दिलचस्पी हो तो वे उससे IPO एप्लिकेशन कुछ अतिरिक्त दाम देकर खरीद सकते हैं. खरीदार लोग कंपनी का बिजनेस, निवेशकों के बीच IPO को लेकर कैसा माहौल है, इस आधार पर तय करते हैं कि फलां IPO का कितना दाम होना चाहिए. इसके बाद IPO एप्लिकेशन बेचने वाले के पास ये दाम बताया जाता है.

सेलर के पास यहां दो विकल्प होते हैं. वो चाहे तो लिस्टिंग से पहले ही अपना एप्लिकेशन खरीदार को बेच सकता है. खरीदार ने उसके आवेदन के लिए जितने रुपये एक्स्ट्रा देने की बात कही है वह 'कोस्टक' कहलाती है. इस तरीके में शेयर अलॉट हों या ना हों, उसे ये दाम मिलेगा ही मिलेगा. IPO का एप्लिकेशन बेचने पर थोड़ा बहुत जो भी फायदा होगा उस पर शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन के हिसाब से टैक्स देना पड़ेगा.

इसे उदाहरण से समझते हैं. मान लेते हैं कि एक शख्स ने 15,000 रुपये में 300 रुपये के 50 शेयरों के लिए बोली लगाई. बाद में उसका मन बदल गया. उसने 2,500 रुपये लेकर अपना एप्लिकेशन किसी को बेच दिया. अब लिस्टिंग वाला दिन आया. कंपनी के शेयर 650 रुपये पर लिस्ट हुए. यानी उसके 15000 रुपये 32500 बन गए. चूंकि वह पहले ही अपना एप्लिकेशन किसी और को बेच चुका है इसलिए वो सिर्फ अपनी लागत यानी 15,000 रुपये और एप्लिकेशन बेचने की कीमत 2500 रुपये ही अपने पास रखेगा. 

उसके इतर, जितनी भी कमाई होगी उसे ग्रे मार्केट डीलर के जरिए खरीदार को ट्रांसफर कर देगा. यहां पर उसका फायदा बनता है 17,500 रुपये. चूंकि, उसने 2500 रुपये में अपना एप्लिकेशन बेच दिया है. इसलिए वो सिर्फ 2500 रुपये रखेगा और बाकी के 15,000 रुपये ग्रे मार्केट डीलर को भेज देगा. इस तरह उसे 17,500 रुपये की कमाई पर 15 फीसदी के हिसाब से टैक्स देना पड़ेगा जो 2,625 रुपये बनता है. इस तरह उसे इस पूरे ट्रांजैक्शन पर 125 रुपये का घाटा हुआ.

शेयर अलॉट नहीं हुए तो डील कैंसिल

IPO एप्लिकेशन बेचते समय सेलर के पास एक और ऑप्शन होता है. उसमें भी सेलर अपना एप्लिकेशन खरीदार एक तय फीस के बदले बेचता है. लेकिन ये एक्स्ट्रा दाम उसे तभी मिलता है जब उसे शेयर अलॉट होंगे. अगर उसे लिस्टिंग के बाद शेयर नहीं मिले हैं तो डील रद्द हो जाएगी. यानी उसे सिर्फ वही पैसा मिलेगा जो उसने आवेदन के समय दिया था. इस तरीके को ‘सब्जेक्ट टू सौदा’ कहते हैं.

इसे भी उदाहरण के साथ समझते हैं. मान लेते हैं XYZ कंपनी 100 रुपये प्रति शेयर के साथ IPO ला रही है. एक शख्स ने दो लाख रुपये के IPO शेयर खरीदने के लिए बोली लगाई. मगर उसने लिस्टिंग से पहले ही एप्लिकेशन 5,000 रुपये के फायदे में ‘सब्जेक्ट टू सौदे’ में बेच दी. ऐसे में होगा ये कि अगर एप्लिकेशन बेचने वाले को शेयर अलॉट होते हैं तभी उसे एक्स्ट्रा 5,000 रुपये मिलेंगे. अगर शेयर नहीं मिले तो डील कैंसिल हो जाएगी. यानी उसके दो लाख रुपये उसके पास आ जाएंगे. कोई अतिरिक्त पैसे नहीं मिलेंगे.

ग्रे मार्केट में कैसे तय होता है दाम?

स्टॉक मार्केट, कमोडिटी मार्केट जैसे फाइेंशियल मार्केट की तरह ही ग्रे मार्केट में भी शेयरों के दाम डिमांड और सप्लाई के हिसाब से घटता बढ़ता है. अगर खरीदार ज्यादा हैं तो दाम बढ़ जाएंगे, और कम खरीदार हैं तो दाम घट जाते हैं. इसके अलावा शेयर बाजार लिस्ट होने वाले IPO का दाम एक सीमा से अधिक न गिर सकता है और ना ही बढ़ सकता है. इसकी निगरानी का काम सिक्योरिटीज एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया करती है. मगर ग्रे मार्केट में ऐसा नहीं होता. जैसा कि शुरुआत में भी बताया गया है कि ग्रे मार्केट में कोई भी नियामक इकाई काम नहीं करती है. इसलिए यहां शेयरों के दाम एक दम से उछल जाते हैं और उतनी ही तेजी से लुढ़क भी सकते हैं.

ग्रे मार्केट में शेयरों के भाव को ‘ग्रे मार्केट प्रीमियम’ कहते हैं. IPO लाने की तारीख और दाम सामने आने के बाद उसके शेयर ग्रे मार्केट में बिकने शुरू होते हैं. कंपनी के शेयर खरीदने के लिए निवेशक तय दाम से ज्यादा देने को भी तैयार रहते हैं. इस अतिरिक्त दाम को ग्रे मार्केट का प्रीमियम कहते हैं. उदाहरण के तौर पर, किसी कंपनी ने अपने शेयरों को रजिस्टर करने के लिए एक शेयर का दाम 100 रुपये तय किया है. ग्रे मार्केट में उसका प्रीमियम 50 रुपये आ रहा है. इसका मतलब है कि निवेशक उस शेयर को खरीदने के लिए 150 रुपये देने को तैयार है. 

कैसे खऱीद बेच सकते हैं शेयर?

ग्रे मार्केट में IPO के शेयर खरीदने के लिए कोई तय जगह या तय अधिकारी नहीं है. कई कंपनियां हैं जो ग्रे मार्केट में ट्रेडिंग की सुविधा देती हैं. उनके दफ्तर जाकर खुद से ऑर्डर देना होगा. ग्रे मार्केट में ट्रेडिंग नगदी में और हाथोंहाथ होती है. इस समय सबसे ज्यादा ग्रे मार्केट ट्रेडिंग गुजरात, दिल्ली, मुंबई और जयपुर जैसे शहरों में हो रही है. अगर आप ग्रे मार्केट से IPO खरीदना चाहते हैं तो आपको नजदीकी कोई ब्रोकर डीलर के पास जा सकते हैं. वो आपकी ग्रे मार्केट के डीलर से मुलाकात कर सकते हैं.

रिस्क समझ लें, उसके बाद ग्रे मार्केट में उतरें

ग्रे मार्केट भारत में उतने ही पुराने हैं जितने की रजिस्टर्ड शेयर बाजार. निवेशक से लेकर ट्रेडर और कंपनियां लंबे समय से ग्रे मार्केट में कारोबार करती रही हैं. हालांकि अगर आप भी ग्रे मार्केट में उतरना चाहते हैं तो कुछ बातें पहले समझ लेनी जरूरी हैं. जैसे कि ग्रे मार्केट में फायदे की जितनी अधिक संभावना रहती है उतना ही पैसे डूबने का डर. क्योंकि ग्रे मार्केट सेबी या किसी भी नियामक इकाई के अधिकार के दायरे से बाहर आते हैं. यहां लेन-देन पूरी तरह आपसी भरोसे के साथ होता है. इसका कामकाज देखने वाले लोग भी कोई रजिस्टर्ड लोग नहीं होते हैं. यही कारण है कि म्यूचुअल फंड, पेंशन फंड या अन्य निवेशक इससे दूर रहते हैं. इसमें ट्रेड करने वाले निवेशक अपनी जिम्मेदारी पर कारोबार करने उतरते हैं.