जितना सिंपल होगा उतना अच्छा होगा. ऐसा माना जाता है और आम जीवन में आमतौर पर ऐसा ही होता है. मगर जब बात कारों की आती है तो लगता है जैसे सिंपल शब्द से कार कंपनियों को कुछ परहेज जैसा होता है. यूजर ने भले डिमांड भी नहीं की हो लेकिन भतेरे फीचर्स (five useless features of cars) ठूंस-ठूंसकर दिए जाते हैं. ना जी ना हम आजकल बेसिक कारों में आने वाली सनरुफ़ की बात नहीं कर रहे. अब सभी को मालूम है कि भारत जैसे देश में जहां मोटा-माटी 8-9 महीने कड़क धूप रहती है , वहां इसका कोई खास मतलब है नहीं.
अच्छी कार को 'बे-कार' बनाने वाले पांच फीचर, कहीं आपकी गड्डी में भी तो नहीं
हम कुछ ऐसे फीचर्स की बात करने वाले हैं जो वाकई में एक अच्छी कार को 'बे-कार' जैसी (five useless features of cars) बना देते हैं. ऐसे फीचर जो यदा-कदा ही काम आते हैं लेकिन इनका पैसा खूब लगता है. इसलिए अगर पैसा बचाना है तो लिस्ट पर नजर डाल लीजिए.

हम तो कुछ ऐसे फीचर्स की बात करने वाले हैं जो वाकई में एक अच्छी कार को ‘बे-कार’ जैसा बना देते हैं. ऐसे फीचर जो यदा-कदा ही काम आते हैं लेकिन इनका पैसा खूब लगता है. इसलिए अगर पैसा बचाना है तो लिस्ट पर नजर डाल लीजिए.
वायरलेस चार्जरअगर आपकी गाड़ी में ये वाला चार्जर लगा है तो जरा याद कीजिए कब आपने इसका इस्तेमाल किया था. नहीं याद आया क्योंकि ये कोई काम का नहीं होता. इसकी चार्जिंग स्पीड गाड़ी के पहले गियर से भी कम ही होती है. 15W के अल्ले-पल्ले. जब तक फोन चार्ज होगा तब तक तो आपने अपने गंतव्य तक पहुंच जाना है. फोन गर्म होगा सो अलग.
चलिए ये भी सह लिया लेकिन क्या आपके पास वायरलेस चार्जिंग वाला फोन है. मतलब कुछ एक कंपनियों के कुछ एक मॉडल को छोड़ दें तो वायरलेस चार्जर का फीचर मिलता नहीं. यूजलेस फेलो.

ये भी आजकल की कारों का एक आधा काम का फीचर है. सब कुछ स्क्रीन पर दे दिया. सारे कंट्रोल अब टची-टची होने पर ही काम करेंगे. AC और साउंड जैसे बेसिक फीचर के लिए भी स्क्रीन के साथ खेलना पड़ता है. ये वक्त भी खराब करता है और खतरनाक भी है. मतलब सड़क से फोकस हट जाता है. बड़ी स्क्रीन जिसका बड़ा पैसा लगता है, कोई बहुत ज्यादा काम नहीं आती. फिजिकल बटन का अपना फायदा है. उंगलियों को याद रहता है कि क्या किधर पर है. वैसे एक बात बस यूं ही पूछना थी. मोबाइल की स्क्रीन चलाने पर चालान है मगर गाड़ी की स्क्रीन चलाने पर क्यों नहीं. बताओ-बताओ. टेल-टेल

काम का फीचर है मगर इंडिया की सड़कों पर नहीं. हमारे देश के अधिकतर हिस्से में साल के कई महीनों तक ठीक-ठाक गर्मी रहती है. गाड़ी का AC चलाना मजबूरी है भले आप रेड लाइट पर क्यों नहीं खड़े हों. ऑटो-ऑफ के चक्कर में ये बंद हो जाता है. फिर जो आप गड्डी नू दोबारा स्टार्ट करते ही तो इंजन पर एक्स्ट्रा लोड आता है. गाड़ी ठंडा होने में टाइम लेती है सो अलग. इंजन बंद करके जितना तेल बचाया वो खर्च हो जाना है.

अरे वही जिसे अपन डिक्की कहते हैं. आजकल ये अपने आप ओपन होती है. सेंसर भईया सेंस करके काम करते हैं. सेंस तो करते हैं मगर नॉनसेंस टाइप. गजब स्लो प्रोसेस है भाई. जितनी देर में गेट ओपन होकर ऊपर जाएगा, उतनी देर में तो चाय बन जाएगी. (थोड़ा ज्यादा हो गया मगर ये फीचर्स भी तो ज्यादा हैं). मैनुअल बटन ही अच्छा है. दन्न से उठाओ और फ़न्न से सामान अंदर धर दो.
इलेक्ट्रिक सीटकाहे भईया क्या सीट के नीचे लगा लीवर दबाकर काम नहीं चलता जो बटन लगा दिए. ये वाला सिस्टम काफी स्लो होता है जबकि लीवर वाला मामला अल्ट्रा फास्ट होता है. ऊपर से समय के साथ इनके खराब होने के भी चांस होते हैं. इलेक्ट्रिक सीट के नाम पर पैसों का झटका अलग से लगता है.
मतलब क्या ही कहें. हालांकि कई लोगों को ये फीचर अपनी कार में चाहिए ही होते हैं. लेकिन आम यूजर्स के कोई काम के नहीं होते. ऐसे में अगर कार आपको इन फीचर्स के बिना मिल रही और कुछ पैसे बच रहे तो क्या बुराई है.
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